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अगस्त, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन

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जन्‍माष्‍टमी की चारों ओर धूम है और सूफी शायारों में श्री कृष्‍ण की काफी धूम रही है। नजीर अकबराबदी (पूरा नाम वली मुहम्‍मद नज़ीर ) ने श्री कृष्‍ण पर कई रचनाएँ लिखीं हैं। काफी लम्‍बी और काफी रोचक। नज़ीर ने ये नज्‍़म करीब पौने दो सौ साल पहले लिखी थीं। इस जन्‍माष्‍टमी पर उनकी कई रचनाओं में से दो के कुछ अंश आपके सामने पेश है। अगर आपको पसंद आया तो बाकि पोस्‍ट की भी हिम्‍मत करूँगा। जन्‍माष्‍टमी के मुबारक मौके पर ये कलाम उन दोस्‍तों की नजर, जो साझी संस्‍कृति-विरासत और परम्‍परा को अपवाद बनाने में लगे हैं। इस दुआ के साथ की उनकी कोशिश कभी कामयाब न हो। (1) जनम कन्‍हैया जी ............................................. फिर आया वाँ एक वक्‍़त ऐसा जो आए गर्भ में मनमोहन। गोपाल, मनोहर, मुरलीधर, श्रीकिशन, किशोर न, कंवल नयन।। घनश्‍याम, मुरारी, बनवारी, गिरधारी, सुन्‍दर श्‍याम बरन। प्रभुनाथ बिहारी कान्‍ह लला, सुखदाई, जग के दु:ख भंजन।। जब साअत परगट की, वाँ आई मुकुट धरैया की। अब आगे बात जनम की है, जै बोले किश्‍न कन्‍हैया की।। 11 ।। था नेक महीला भादों का, और दिन बुध, गिनती आठन की। फिर आ

आप कैसा इस्‍लाम या मुसलमान देखना चाहते हैं

प्रभात जी, मैं जानता हूँ आपने उकसाने के लिए ये टिप्‍पणी नहीं कर रहे। लेकिन जिस माहौल में हम रह रहे हैं, वहाँ आपका सवाल और फरीद का जवाब, ये बता रहा है कि हमारे समाज में कहीं कोई कड़ी टूट गयी या गायब हो गई है। हम अपने ही समाज को, वहाँ रहने वाले जीते-जागते इंसानों के बारे में कितना कम जानते हैं। आज कोई हिन्‍दू रोजा रखता है या कोई मुसलमान छठ का व्रत, तो यह हमारे लिए खबर होती है। लेकिन मुझे कभी ताज्‍जुब नहीं हुआ क्‍योंकि मैं ऐसे ही समाज से निकला हूँ। मुझे ताज्‍जुब तब होता है, जब ऐसा नहीं होता। रही बात आपके सवालों की, तो आपने देखा होगा, मैं उकसाने वाले ब्‍लॉगजगत के विद्वानों की बात का जवाब न देना ही पसंद करता हूँ। लेकिन आप उनमें से कतई नहीं हैं। मैं आपके सवालों पर तैयारी के साथ पोस्‍ट लिखना चाह रहा था। पर अब बात शुरू हुई है तो कुछ कह रहा हूँ। इतिहास की मुझे बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन जहाँ तक मुझे मालूम है, औरंगजेब को छोड़ आप किसी मुगल बादशाह को तथाकथित कट्टर की श्रेणी में नहीं रख पाएँगे। यहाँ तक कि औरंगजेब ने आपके पड़ोस चित्रकूट में श्री राम वनवास के प्रतीकों की हिफाजत कराई है। खैर। बाबर

आतंक, राशिद और इन्‍फोसिस

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जयपुर में विस्‍फोट के कुछ दिनों बाद ही पुलिस ने कुछ लोगों को पकड़ा और दावा किया कि साजिश का पर्दाफाश हो गया है। हर पकड़ा गया शख्‍स मास्‍टरमाइंड था। इन्‍हीं में से थे- राशिद हुसैन। बिहार के रहने वाले। पेशे से इंजीनियर। इन्‍फोसिस में नौकरी। इनकी खता क्‍या थी। यह कभी सिमी से जुड़े थे, जब उस पर पाबंदी नहीं थी। लेकिन जो चीज उन्‍हें शक के दायरे में लाई- वह था सेवा करने का जज्‍बा। विस्‍फोट के बाद, राशिद उन चंद लोगों में शामिल थे, जो घायलों की मदद के लिए पहुँचे थे। पुलिस का दिमाग देखिए, उसे लगा ‘राशिद’ नामधारी व्‍यक्ति सेवा करने कैसे पहुँचा। जरूर दाल में काला है। और राशिद हो गए ‘आतंकी’। किसी तरह छूटे। इससे आगे की कहानी, अपूर्वानन्‍द बता रहे हैं। आतंक, राशिद और इन्‍फोसिस राशिद हुसैन के स्वर में कड़वाहट नहीं थी. होना स्वाभाविक होता. आख़िर राजस्थान पुलिस ने उसे नौ दिन गैरकानूनी तरीके से बंद कर रखा था और लगातार यह कोशिश की थी कि उसे यह मानने पर मजबूर कर दिया जाए कि उसके ताल्लुकात ‘सिमी’ नामक संगठन के साथ हैं. उस मानसिक यंत्रणा को झेल कर भी राशिद टूटा नहीं. पुलिस से बच जाने के बाद जब राशिद ने

आंख बंद! दिमाग बंद!! सवाल कोई नहीं!!!

इस मुल्‍क के एक बड़े हिस्‍से के लिए जो भी अमरीकी है, वह श्रेष्‍ठ है। बोलना- चालना, उठना- बैठना, पहनना- ओढ़ना कहाँ तक गिनती गिनी जाए। यहाँ सिलसिला अब पत्रकारिता तक पहुँच गया है। ऐसा नहीं है कि पहले नहीं था, पहले भी था लेकिन वही मुख्‍य स्‍वर नहीं था। आज अमरीकी पत्रकारिता की शैली आदर्श है। आज वही श्रेष्‍ठ है। आज वही लीड है। जब अमरीका ने अफगानिस्‍तान और फिर इराक में हमले किए तो एक  शब्‍द बड़े जोरशोर से सुनने को मिला। इस शब्‍द के बारे में मैंने मॉस कॉम में कुछ ऐसा नहीं पढ़ा था, जो प्रोफेशन में उतारने लायक हो।  खैर, यह शब्‍द है- इम्‍बेडेड जर्नलिस्‍ट। वैसे इस शब्‍द का रिश्‍ता युद्ध क्षेत्र से जुड़ी पत्रकारिता से हैं और दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान भी यह शब्‍द मिलता है। लेकिन इस शब्‍द को इक्‍कीसवीं सदी में जो शोहरत मिली वैसी पहले कभी नहीं थी। इस शब्‍द को नया आयाम मिला। पत्रकारिता को एक नया अर्थ। अफगानिस्‍तान और इराक 'आतंक के खिलाफ जंग'  (यह शब्‍द मेरे नहीं हैं) में ये वे पत्रकार थे, जो अमरीकी सेना की छाँव में चल रहे थे। उनकी बताई स्‍टोरी पर ही काम कर रहे थे। उनके विश्‍वसनीय... उच्‍च

सारे जहाँ से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍ताँ हमारा (Saare Jahan Se Achha Hindostan Hamara)

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'जन गण मन' और 'वंदे मातरम' के बीच राष्‍ट्रीय गीत या गान का विवाद गाहे ब गाहे चलता रहता है। पिछले दिनों हिन्‍दी ब्‍लॉग की दुनिया में भी यह विवाद उठा था। मेरे ज़हन में अक्‍सर यह सवाल उठता है कि इस विवाद में 'सारे जहाँ से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍ताँ हमारा' का नाम क्‍यों नहीं सुनाई देता। क्‍या कभी किसी ने यह सवाल नहीं उठाता कि यह तराना, कौमी तराना क्‍यों नहीं बना। क्‍या इसमें देशभक्ति की कमी थी। क्‍या इसमें लय ताल छंद कमजोर थे। क्‍या इसमें वह सलाहियत नहीं थी, जो इसके आगे 'राष्‍ट्रीय' गीत या गान लगवा सके। मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूँ, इसलिए मेरे पास इनके जवाब नहीं है। महज जिज्ञासु सवाल हैं। मैं कोई विवाद नहीं पैदा करना चाह रहा  और न ही मेरी बेजा विवादों में दिलचस्‍पी है। न ही इस बात का अब कोई मतलब है। लेकिन यह बात आज क्‍यों फिर जहन में आई। आज सुबह उर्दू राष्‍ट्रीय सहारा में एक विज्ञापन छपा। इसके मुताबिक दस अगस्‍त यानी आज 'सारे जहाँ से अच्‍छा हिन्‍दोस्‍ताँ हमारा' की सालगिरह है। कैसे। पता चला कि पंजाब के क्रांतिकारी लाला हरदयाल छात्र जीवन में यंग मैन