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जनवरी, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बिलकिस को शुक्रिया (Thanks to Bilkis)

अपूर्वानन्‍द * गणतंत्र दिवस की सुबह धूप खिल आई है. मैं उनकी सूची देख रहा हूँ जिनको राज्य ने इस मौके पर अपना धन्यवाद  देने के लिए अलग अलग उपाधियों  से विभूषित किया है. अजीब सी इच्छा थी इस बार कि एक नाम होता इस सूची  में कहीं तो शायद यह गणतंत्र बता पाता कि वह उनकी कद्र करता है जो उसे वैसा  बनाए  रखने के लिए अपने आप की बाजी लगा देते हैं जिसकी कल्पना आज से साठ साल पहले उसने की थी. यह मालूम है हम सबको  कि यह एक व्यर्थ  इच्छा है एक मामूली सी हिन्दुस्तानी शहरी बिलकीस बानो का नाम उनके बीच तलाश करने की जिन्हें यह गणतंत्र मानता है कि उन्होंने उसे प्राणवंत   बनाए  रखा है. बिलकीस आज  कहाँ होगी, यह ख़बर हमें नहीं. क्या वह उस गुजरात को लौट गई जिसे वह अभी भी अपना वतन मानती है लेकिन जहाँ   पिछले छः साल तक वह नहीं रह सकी थी ? उस  गुजरात को जिसकी पुलिस ने यह रिपोर्ट दाखिल की कि  उसे इसके पर्याप्त सबूत नहीं मिल सके जिससे वह बिलकीस की वह बात  कानूनी तौर पर कबूल करने  लायक मान सके कि २८ फरवरी , २००२ से गुजरात में मुसलमानों पर शुरू हुए हमलों के दौरान उसके साथ  सामूहिक  बलात्कार किया गया , कि उसकी   त

कुछ कहना चाहती है बिलकीस (Bilkis has something to say)

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इंसाफ के लिए जद्दोजहद का नया चेहरा है बिलकीस बानो (Bilkis Bano)। सन् 2002 में हुए जनसंहार के दौरान बिलकीस बानो और उनकी महिला परिवारीजनों के साथ सामूहिक दुराचार हुआ और फिर उनकी हत्‍या कर दी गई। इस घटना में बिलकीस किसी तरह बच गई। उसने इंसाफ के लिए जद्दोजहद किया और कामयाब हुई। (खबर पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। इसके बाद बिलकीस ने कुछ कहने का मन बनाय। तो पढि़ए बिलकीस की संघर्ष गाथा, बिलकीस की जुबानी- मैं सच साबित हुई आज मैं सच साबित हुई हूँ. मेरे सच की सुनवाई कर ली गई है.मुम्बई की एक अदालत में बीस रोज़ तक मुझसे जिरह की जाती रही लेकिन मेरे सच की ताकत ने मुझे सहारा दिए रखा. शुक्रवार १८ जनवरी , २००८ को मुम्बई के सेशंस जज ने जो फैसला सुनाया उसने उस लम्बे और दर्दनाक सफर को किसी हद तक एक मंजिल तक पहुँचाया है  जिस पर मुझे और मेरे परिवारवालों को चलने पर मजबूर कर दिया गया था. यह भी सच है कि कई घाव कभी भी नहीं भरेंगे लेकिन आज मैं पहले के मुताबिक कहीं अधिक ताकत महसूस कर रही हूँ और इसके लिए मैं शुक्रगुजार हूँ. इस जीत का बड़ा हिस्सा उन दोस्तों और साथियों का है जो इस दौरान मेरे साथ बने रहे,

तसलीमा का दु:ख और महाश्‍वेता देवी (Taslima ka Dukh aur Mahashweta Devi)

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एक स्‍त्री और एक लेखिका नजरबंद रहे, तो हम चैन की साँस आखिर कैसे ले सकते हैं। इसलिए हम युद्धरत रहने का संकल्‍प लेते हैं और यही अपेक्षा भारत के लेखकों से करते हैं। यह भी एक युद्ध है महाश्‍वेता देवी इन दिनों मैं बेतरह उद्विग्न हूँ। इसकी वजह बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन का दु:ख है। वे वैध वीसा लेकर भारत में रह रही हैं फिर भी उन्हें दिल्ली की एक अज्ञात जगह पर दो महीने से नजरबंद कर रखा गया है। तसलीमा के दु:सह्य एकाकीपन, अनिश्चयता और मृत्युमय निस्तब्धता से उनकी मुक्ति की माँग को लेकर हम यथासाध्य आंदोलन कर रहे हैं और इसी तरह की मुहिम की देशव्यापी जरूरत भी शिद्दत से महसूस करते हैं। मैं पूछना चाहती हूँ कि तसलीमा को आखिर बंदी जीवन-यापन क्यों करना होगा? उन्हें स्वाभाविक जीवन-यापन क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? इन सवालों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी विचलित किया है। तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर इसी महीने 14 जनवरी को बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवी सामने आए। डॉ. गियासुद्दीन और डॉ. शेख मुजफ्फर हुसैन सरीखे विशिष्ट बुद्धिजीवियों ने कोलकाता में एक सभा कर और उसमें सर्वसम्मति से एक

तसलीमा के हक में (In favour of Taslima Nasreen)

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बनाम आमतौर पर जब भी किसी समुदाय या समूह का कट्टरपंथी या पुरातनपंथी तबका कोई असंवैधानिक और अमानवीय बात कहता है तो उनका शोर सबसे ज्‍यादा सुनाई देता है। यही नहीं इन्‍हीं की आवाज को पूरे समुदाय की आवाज भी मान ली जाती है। हालाँकि जब उसी समुदाय या समूह का संवेदनशील और उदारवादी तबका कोई बात कहता है तो उसे आमतौर पर नजरंदाज करने की कोशिश होती है। इसी तरह जब बांग्‍लादेशी साहित्‍यकार तसलीमा नसरीन के खिलाफ कट्टरपंथी ताकतों ने आवाज बुलंद की तो सब ने सुनी। मीडिया ने भी उनको तवज्‍जो दी। चैनलों के ब्रेंकिंग न्‍यूज बनी। लेकिन जिन लोगों ने तसलीमा के हक में आवाज उठायी, वह कहीं नहीं दिखे। सिर्फ इस बार नहीं पिछले दिनों भी यही हुआ था। तसलीमा नसरीन के खिलाफ ताजा मुहिम के बाद पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवी अब उनके पक्ष में खुलकर सामने आ गए हैं। एक खबर के मुताबिक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने पिछले दिनों कोलकाता प्रेस क्लब में एक सभा कर तसलीमा को वापस कोलकाता आने देने की माँग की। वे रैली भी करेंगे। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गियासुद्दीन का कहना है 'तसलीमा नसरीन को जिस तरह पिछले 52 दिनों से एक अज्ञात स्थान में