तसलीमा का दु:ख और महाश्वेता देवी (Taslima ka Dukh aur Mahashweta Devi)
एक स्त्री और एक लेखिका नजरबंद रहे, तो हम चैन की साँस आखिर कैसे ले सकते हैं। इसलिए हम युद्धरत रहने का संकल्प लेते हैं और यही अपेक्षा भारत के लेखकों से करते हैं।
यह भी एक युद्ध है
इन दिनों मैं बेतरह उद्विग्न हूँ। इसकी वजह बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन का दु:ख है। वे वैध वीसा लेकर भारत में रह रही हैं फिर भी उन्हें दिल्ली की एक अज्ञात जगह पर दो महीने से नजरबंद कर रखा गया है। तसलीमा के दु:सह्य एकाकीपन, अनिश्चयता और मृत्युमय निस्तब्धता से उनकी मुक्ति की माँग को लेकर हम यथासाध्य आंदोलन कर रहे हैं और इसी तरह की मुहिम की देशव्यापी जरूरत भी शिद्दत से महसूस करते हैं।
मैं पूछना चाहती हूँ कि तसलीमा को आखिर बंदी जीवन-यापन क्यों करना होगा? उन्हें स्वाभाविक जीवन-यापन क्यों नहीं करने दिया जा रहा है? इन सवालों ने मुस्लिम बुद्धिजीवियों को भी विचलित किया है। तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर इसी महीने 14 जनवरी को बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवी सामने आए। डॉ. गियासुद्दीन और डॉ. शेख मुजफ्फर हुसैन सरीखे विशिष्ट बुद्धिजीवियों ने कोलकाता में एक सभा कर और उसमें सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि तसलीमा को तत्काल कोलकाता लौटाया जाए और उन्हें सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए, पर सामान्य जीवन भी जीने दिया जाए। उस सभा में मैं भी उपस्थिति थी और यह बात मुझे अत्यंत प्रीतिकर लगी कि मुसलमान भी अब तसलीमा के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं। उस सभा से यह भी स्पष्ट हो गया कि यह धारणा भ्रांत है कि सभी मुसलमान तसलीमा के विरुद्ध हैं। बंगाल के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने 'धर्म मुक्त मानव मंच' नामक संस्था बनाकर इस मामले पर जल्द ही रैली और कनवेंशन करने का भी एलान किया है।
रही, दूसरे बुद्धिजीवियों की बात, तो अपर्णा सेन, शंख घोष, सुकुमारी भट्टाचार्य, शुभ प्रसन्न, कौशिक सेन, जय गोस्वामी, विभाष चक्रवर्ती, साँवली मित्र समेत सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग को लेकर पिछले महीने 22 दिसम्बर को कोलकाता में एक विशाल रैली की थी। उसके बाद दो जनवरी को इसी माँग को लेकर बुद्धिजीवियों ने कोलकाता के महाबोधि सोसाइटी सभागार में विशाल सभा की थी। उस दोनों में भी मैं शरीक हुई थी।
बंगाल के बुद्धिजीवी तसलीमा के लिए बहुत जल्द फिर सड़क पर उतरेंगे। मैं भी इस उम्र में भी पदयात्रा करूँगी और जो कुछ भी संभव है, करूँगी। मेरे लिए यह भी एक युद्ध है। एक स्त्री और एक लेखिका नजरबंद रहे, तो हम चैन की साँस आखिर कैसे ले सकते हैं? इसीलिए हम युद्धरत रहने का संकल्प लेते हैं और यही अपेक्षा भारत की सभी भाषाओं के लेखकों से करते हैं। पिछले महीने दिल्ली में भी भारतीय भाषाओं के लेखकों ने एक सभा की थी। मुझे बताया गया कि उस सभा में भी सर्वाधिक मुखर शमसुल इस्लाम थे। वे तसलीमा के पक्ष में ठोस आंदोलनात्मक कार्यक्रम के हिमायती थे। उस सभा में मलयालम के लेखक ए.अच्युतन, हिन्दी के राजेंद्र यादव, मैत्रेयी पुष्पा, अनामिका, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, अरुण कमल, रामशरण जोशी, संजीव, सुरेश सलिल, अनिल चमड़िया समेत कई लेखक जुटे थे। जिस दिन दिल्ली में यह सभा हुई थी, उसी दिन कुलदीप नैयर, खुशवंत सिंह, अरुंधती राय और एमए बेबी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिख कर तसलीमा को कोलकाता लौटाने की माँग की थी। हिन्दी लेखकों की तरफ से भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह माँग की गई है। तसलीमा के लिए आवाज केरल से भी उठ रही है और उत्तर प्रदेश से भी।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने राय की 27 प्रतिशत मुस्लिम आबादी को खुश करने के लिए तसलीमा को बंगाल से निर्वासित किया। मई में बंगाल में पंचायत चुनाव है और उस चुनाव में जीतने के लिए मुस्लिम वोटों की उन्हें दरकार है। केंद्र सरकार की तरफ से यह मामला देख रहे प्रणव मुखर्जी अपनी कुर्सी बचाने के लिए बुद्धदेव के खिलाफ जाहिर है, कोई काम नहीं करेंगे। मुझे पता है, प्रणव मुखर्जी ने तसलीमा को ‘द्विखंडित’ से कतिपय पृष्ठ वापस लेने के लिए बाध्य किया। तसलीमा ने वे पृष्ठ सिर्फ इसलिए वापस लिए, क्योंकि वह कोलकाता लौटना चाहती हैं, लेकिन प्रणव मुखर्जी और प्रियरंजन दासमुंशी इतने क्रूर और बर्बर हैं कि अब तसलीमा को कोलकाता लौटाने की बजाय, उनसे सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी माँगने को कह रहे हैं। अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के मुस्लिम वोटों के लिए वे इतना गिर सकते हैं, यह भी देश ने देख लिया। बुद्धदेव का ही नहीं, प्रणव और दासमुंशी का भी धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतर गया है। प्रणव मुखर्जी और दासमुंशी ने जो जघन्य सांस्कृतिक अपराध किया है, उसका जवाब उन्हें तसलीमा के पाठक और साहित्य के करोड़ों पाठक देंगे।
(हिन्दुस्तान से साभार)
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