लौटना मार्क्स का (Lautna Marx Ka)
इधर एक शोर बरपा है। दाढ़ी खुजलाते, बाल झटकते, बोलते-बोलते टेढ़े होते बदन, हमेशा तनाव से खींचे रहने वाले चेहरों पर चमक दिख रही है। कार्ल मार्क्स लौट रहे हैं। दास कैपिटल यानी पूँजी की तलाश फिर शुरू हुई है। गोष्ठियों में कहा जा रहा है, ‘देखा आ गई ना मार्क्स की याद। मार्क्स ही इस दुनिया को बचाने वाले हैं।’ कार्ल मार्क्स न लौट रहे हों जसे कल्कि अवतार हो रहा हो। जसे कोई आस्थावान कह रहा हो, देखो हम कहा करते थे ना, दुनिया को बचाने भगवान, कल्कि अवतार का रूप लेंगे। वो आ गए। वो आ गए...। पिछले कई सालों से वचारिक रूप से पस्त चल रहे ‘ऑफिशियल मार्क्सवादियों’ में विश्व आर्थिक मंदी ने थोड़ी हरकत पैदा कर दी है। पँख फड़ फड़ाकर वे धूल झाड़ रहे हैं। खबरें पढ़कर खुश हो रहे हैं। कोने में छप रही - ‘मार्क्स की याद आई’ या ‘तलाशी जा रही है मार्क्स की पूँजी’ जसी खबरें उन्हें खुशी से झुमा रही है। याद अमेरिका, यूरोप और दूसरों को आ रही है, खुश ये हो रहे हैं। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी तलाशना अच्छी बात है। लेकिन यह खुशी, इस मुल्क में न तो मार्क्सवाद का झंडा बुलंद कर पाएगी और न ही समाजवाद ला पाएगी। उ