ये जंग है जंगे आज़ादी
आज़ादी मिली तो फैज़ ने बहुतों के दिल के दर्द को आवाज़ दी 'ये वो सहर तो नहीं'। यानी हम देश के बंटवारे के लिए तो आज़ादी नहीं चाह रहे थे। कल तक जिनकी जद्दोजहद साझा थी, उसे हुक्मरानों ने बांट दिया था। दिलों पर जख्म लिये लोगों ने नया सफ़र शुरू किया। नये उम्मीदों से भरपूर सफ़र। स्वराज का सफ़र। पर कुछ ही सालों में लोगों को लगा कि आमजन का स्वराज तो अब भी नहीं आया है।
फिर याद आने लगी 1931 में लिखी भगत सिंह की बात- 'भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को- भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकार जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।'
क्या आपको नहीं लगता कि भगत सिंह भविष्यवक्ता के रूप में अपनी बात कह रहे थें। उनकी बात आज भी, मेरी नज़र में सौ फीसदी सटीक है। ... जब यह बात महसूस हुई तो फिर आज़ाद मुल्क में ही जद्दोजहद की शुरुआत हुई। इसका इतिहास काफी लम्बा है। आमजन के स्वराज की ख्वाहिश को आवाज़ दी उर्दू के मशहूर शायर और तेलंगाना संघर्ष के सिपाही रहे मख्दूम मोहिउद्दीन ने- ये जंगे है जंगे आज़ादी आज़ादी के परचम के तले। भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा के संस्कृतिकर्मियों की स्वर लहरियों ने इसे एक जोशीले गीत में तब्दील कर दिया।
कुछ लोगों को यह बेतुका आदर्शवाद लग सकता है। शायर का दिवास्वपन लग सकता है। कुछ लोग सोवियत संघ के विघटन का उदाहरण देकर ऐसी किसी मंजि़ल की हकी़कत को नकार सकते हैं। लेकिन आज़ादी के साठ साल बाद जब किसान ख़ुदकशी कर रहे हों और दस्तकार भूखे मर रहे हों, तो यह सवाल जस का तस रह जाता है कि आमजजन का स्वराज कहां है। इसलिए आज़ादी के गान के साथ जद्दोजहद के गीत भी गाये जायेंगे। ... तब तक... जब तक भगत सिंह के सपनों का हिन्दुस्तान तामीर नहीं हो जाता। आप भी पढ़ें मख्दूम की रचना-
ये जंगे है जंगे आज़ादी, आज़ादी के परचम के तले
हम हिंद के रहने वालों की महक़ूमों की मज़दूरों की
आज़ादी के मतवालों की, दहक़ानों की मज़दूरों की
सारा संसार हमारा है
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन
हम अफ़रंगी हम अमरीकी
हम चीनी जावा जाने वतन
हम सुर्ख़ सिपाही ज़ुल्म शिकन
आहन पयकर फ़ौलाद बदन
वह जंग ही क्या वह अमन ही क्या
दुश्मन जिसमें ताराज़ न हो
वह दुनिया दुनिया क्या होगी
जिस दुनिया में स्वराज न हो
वह आज़ादी आज़ादी क्या
मज़दूर का जिसमें राज न हो
लो सुर्ख़ सवेरा आता है आज़ादी का आज़ादी का
गुलनार तराना गाता है आज़ादी का आज़ादी का
देखो परचम लहराता है आज़ादी का आज़ादी का
(मख्दूम की कई नज्में फिल्मों में भी इस्तेमाल की गयी हैं। इनमें 'दो बदन प्यार की आग में जल गये इक चमेली के मंडवे तले' और 'आपकी बात, बात फूलों की' जैसे मशहूर गीत शामिल हैं। )
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इश्क के शोले भड़काओ कि कुछ रात कटे दिल के अंगार को भड़काओ कि कुछ बात चले......