मकसद, मुसलमानों को सबक सिखाना था
मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार को नजदीक से देखने और महसूस करने वालों में आईपीएस अफसर विभूति नारायण राय भी हैं। इस घटना के बीस साल पूरे होने पर मैंने,हिन्दुस्तान के लिए उनसे बात की। बातचीत और उनकी किताब के आधार पर तैयार रिपोर्ट ढाई आखर के पाठकों के लिए- नासिरूद्दीन
हाशिमपुरा कांड पर एक पुलिस अफसर का नजरिया
'पुलिस हिरासत में हत्या का हाशिमपुरा कांड जैसा उदाहरण खोजना मुश्किल है। असलीयत में यह नरसंहार मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए अंजाम दिया गया था। अल्पसंख्यकों के बारे में पुलिस के नजरिये का इससे बेहतर उदाहरण और दिल दहला देने वाली घटना, शायद ही कोई और हो।' सन् 1987 में हुए मेरठ के हाशिमपुरा कांड के बारे में यह ख्यालात आईपीएस अफसर विभूति नारायण राय के हैं।
बतौर गाजियाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय ने इस घटना को नजदीक से देखा था। यही नहीं, शोधकर्ता के रूप में भारतीय पुलिस पर अपने अध्ययन 'कॉम्बैटिंग कम्युनल कांफिल्कट` में इस घटना का विश्लेषण भी किया है। 22 मई 2007 को जब इस हत्याकांड के 20 साल पूरे हो गये हैं, वीएन राय घटनाक्रम की कड़ियाँ ऐसे जोड़ते हैं, मानो कल की ही बात है। चूंकि पीएसी ने मेरठ के हाशिमपुरा में तलाशी के दौरान गिरफ्तार लोगों को जहां मारा, वो दोनों जगह गाजियाबाद में पड़ती थी, इसलिए वीएन राय ने ही इनके खिलाफ दो मुकदमे दर्ज किये थे। हालांकि बाद में यह मामला सीआईडी को सौंप दिया गया।
उन्होंने इस घटना के पीछे काम कर रही मानसिकता को समझने के लिए कई पीएसी जवानों से बात की। जो बात उभर कर सामने आयी, उसमें भारतीय समाज के साम्प्रदायिक नजरिये की झलक मिलती है। आमतौर पर दूसरे समुदायों के बारे जैसा पूर्वग्रह और सोच समाज में देखा जाता है, वह पुलिस वालों के बीच भी था।
वीएन राय के मुताबिक इन पुलिस वालों का मानना था कि मेरठ में हिंसा, मुसलमानों की शरारत का नतीजा है। यही नहीं वे मानते थे कि मेरठ मिनी पाकिस्तान बन चुका है और यहाँ मुसलमानों पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं है। इसलिए अगर मेरठ में शांति कायम करनी है तो इन्हें सबक सीखाना जरूरी है ताकि वे सर न उठा सकें। वे इस अफवाह के साथ भी बह रहे थे कि मेरठ के हिन्दू खतरे में हैं और अल्पसंख्यकों के हमले के शिकार हो रहे हैं। ये पुलिस वाले इस बात के हिमायती थे कि किसी भी सभ्य समाज में दंगा, बिना मुसलमानों को सबक सिखाये नहीं रुक सकता है और उनकी यही समझ मेरठ में अमन लाने के लिए हाशिमपुरा नरसंहार की वजह बन गया। वे ध्यान दिलाते हैं कि पुलिस के साम्प्रदायिकरण का अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि जिस पीएसी की इकाई ने इस घटना को अंजाम दिया, वो उस वक्त ड्य़ूटी पर नहीं थी।
वीएन राय मानते हैं, पुलिस के ऐसे नजरिये की झलक हर दंगे में मिल सकती है, जहाँ पुलिस वालों का व्यवहार अल्पसंख्यकों के साथ दुर्भावनापूर्ण होता है। वे हाशिमपुरा की घटना को न सिर्फ बर्बर कार्रवाई मानते हैं बल्कि पुलिस वालों के गैर पेशेवराना व्यवहार का जघन्य उदाहरण भी मानते हैं। अपने शोध में वो रेखांकित करते हैं कि औसत हिन्दू या मुसलमान, एक दूसरे के बारे में जो धारणा लेकर बड़ा होता है, उन्हीं धारणाओं के साथ 18 साल की कच्ची उम्र में सिपाही भर्ती होता है। उसे महज नौ माह का पेशेवर प्रशिक्षण मिलता है। इसके बाद की पूरी सेवा में कोई प्रशिक्षण उसके लिए नहीं होता। इसलिए वो उन्हीं आग्रहों और पूर्वग्रहों के साथ ही ताउम्र ड्यूटी करता रहता है, जो 18 की उम्र में साथ लेकर आया था। हाशिमपुरा कांड के संदर्भ में वे सवाल करते हैं कि राज्य पर लोग कैसे यकीन करेंगे जबकि बीस साल बाद भी उनकी इंसाफ की जद्दोजहद जारी है। उनकी राय में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा बलों में उचित प्रतिनिधित्व देकर शायद ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है।
हाशिमपुरा कांड पर एक पुलिस अफसर का नजरिया
'पुलिस हिरासत में हत्या का हाशिमपुरा कांड जैसा उदाहरण खोजना मुश्किल है। असलीयत में यह नरसंहार मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए अंजाम दिया गया था। अल्पसंख्यकों के बारे में पुलिस के नजरिये का इससे बेहतर उदाहरण और दिल दहला देने वाली घटना, शायद ही कोई और हो।' सन् 1987 में हुए मेरठ के हाशिमपुरा कांड के बारे में यह ख्यालात आईपीएस अफसर विभूति नारायण राय के हैं।
बतौर गाजियाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय ने इस घटना को नजदीक से देखा था। यही नहीं, शोधकर्ता के रूप में भारतीय पुलिस पर अपने अध्ययन 'कॉम्बैटिंग कम्युनल कांफिल्कट` में इस घटना का विश्लेषण भी किया है। 22 मई 2007 को जब इस हत्याकांड के 20 साल पूरे हो गये हैं, वीएन राय घटनाक्रम की कड़ियाँ ऐसे जोड़ते हैं, मानो कल की ही बात है। चूंकि पीएसी ने मेरठ के हाशिमपुरा में तलाशी के दौरान गिरफ्तार लोगों को जहां मारा, वो दोनों जगह गाजियाबाद में पड़ती थी, इसलिए वीएन राय ने ही इनके खिलाफ दो मुकदमे दर्ज किये थे। हालांकि बाद में यह मामला सीआईडी को सौंप दिया गया।
उन्होंने इस घटना के पीछे काम कर रही मानसिकता को समझने के लिए कई पीएसी जवानों से बात की। जो बात उभर कर सामने आयी, उसमें भारतीय समाज के साम्प्रदायिक नजरिये की झलक मिलती है। आमतौर पर दूसरे समुदायों के बारे जैसा पूर्वग्रह और सोच समाज में देखा जाता है, वह पुलिस वालों के बीच भी था।
वीएन राय के मुताबिक इन पुलिस वालों का मानना था कि मेरठ में हिंसा, मुसलमानों की शरारत का नतीजा है। यही नहीं वे मानते थे कि मेरठ मिनी पाकिस्तान बन चुका है और यहाँ मुसलमानों पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं है। इसलिए अगर मेरठ में शांति कायम करनी है तो इन्हें सबक सीखाना जरूरी है ताकि वे सर न उठा सकें। वे इस अफवाह के साथ भी बह रहे थे कि मेरठ के हिन्दू खतरे में हैं और अल्पसंख्यकों के हमले के शिकार हो रहे हैं। ये पुलिस वाले इस बात के हिमायती थे कि किसी भी सभ्य समाज में दंगा, बिना मुसलमानों को सबक सिखाये नहीं रुक सकता है और उनकी यही समझ मेरठ में अमन लाने के लिए हाशिमपुरा नरसंहार की वजह बन गया। वे ध्यान दिलाते हैं कि पुलिस के साम्प्रदायिकरण का अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि जिस पीएसी की इकाई ने इस घटना को अंजाम दिया, वो उस वक्त ड्य़ूटी पर नहीं थी।
वीएन राय मानते हैं, पुलिस के ऐसे नजरिये की झलक हर दंगे में मिल सकती है, जहाँ पुलिस वालों का व्यवहार अल्पसंख्यकों के साथ दुर्भावनापूर्ण होता है। वे हाशिमपुरा की घटना को न सिर्फ बर्बर कार्रवाई मानते हैं बल्कि पुलिस वालों के गैर पेशेवराना व्यवहार का जघन्य उदाहरण भी मानते हैं। अपने शोध में वो रेखांकित करते हैं कि औसत हिन्दू या मुसलमान, एक दूसरे के बारे में जो धारणा लेकर बड़ा होता है, उन्हीं धारणाओं के साथ 18 साल की कच्ची उम्र में सिपाही भर्ती होता है। उसे महज नौ माह का पेशेवर प्रशिक्षण मिलता है। इसके बाद की पूरी सेवा में कोई प्रशिक्षण उसके लिए नहीं होता। इसलिए वो उन्हीं आग्रहों और पूर्वग्रहों के साथ ही ताउम्र ड्यूटी करता रहता है, जो 18 की उम्र में साथ लेकर आया था। हाशिमपुरा कांड के संदर्भ में वे सवाल करते हैं कि राज्य पर लोग कैसे यकीन करेंगे जबकि बीस साल बाद भी उनकी इंसाफ की जद्दोजहद जारी है। उनकी राय में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा बलों में उचित प्रतिनिधित्व देकर शायद ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता है।
टिप्पणियाँ
लेकिन मेरा आपसे निम्न शब्द पर मतभेद है
"औसत हिन्दू या मुसलमान, एक दूसरे के बारे में जो धारणा लेकर बड़ा होता है,"
क्या आपके 18 साल की उम्र तक हिन्दू दोस्त नहीं हुये? मेरे उस समय के हिन्दू दोस्त भी हैं, मुसलमान और सरदार दोस्त भी हैं. सब के सब इतने अच्छे हैं (मेरा तो ये मानना है कि दोस्ती तो सिर्फ बचपन में होती है, बड़े होकर तो हम सिर्फ घृणा सीखते हैं ज्यादा भले हुये तो जान पहचान कर लेते हैं, दोस्त तो सिर्फ बचपन में ही बनते हैं)
आप अपने बचपन के उस हिन्दू दोस्त के चेहरे का ध्यान कीजिये और दुबारा अपने शब्दों पर गौर कीजिये.
हर हत्यारे को सज़ा मिलनी ही चाहिये, गुजरात के दरिंदों को भी, यूपी के इन पीएसी के वहशियों को भी और बाकी के इधर उधर बिखरे हत्यारों को भी. ये सारे भारत की साझी चिन्ता है.
आप से शीर्षक में शायद कुछ भूल हो गई..
बाकी लेख बहुत ज़रूरी है.. अच्छा किया इसे यहाँ देकर.. विभूति जी हमारे हॉस्टल के सीनियर भी है..
...वैसे इस पोस्ट से मेरे सामने तो एक आश्चर्य जनक सचाई सामने आई है...
अदालतें भी हिन्दी फ़िल्मों की तरह लोकप्रियतावादी केसेस में ज़्यादा दिलचस्पी रखती हैं..जैसे शिल्पा शेट्टी और रिचर्ड गेयर के चुम्बन का मामला...इस मामले की जिस आनन फ़ानन में सुनवाई की गई उससे तो लगता है कि अदालते इन्साफ़ को ले कर बडी सजग हैं...
लेकिन मेरठ , हाशिमपुरा के केस के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि अदालत भी मुसलमानों को ठीक वैसे ही सबक सीखाना चाहती है जैसे पी एस सी के जवान ....इसीलिए आज तक ये केस लटका हुआ है...
क्या अदालतों पर केस या महा-अभियोग चलाने का प्रावधान नहीं है ?
उम्मीद है इस ब्लॊग के माध्यम से आंखे खोल देने वाली सचाई आप सामने लाएंगे...लेकिन मुहल्ला की तरह सनसनी-खेज़ तरीके से नहीं...गम्भीर और विचारणीय तरीके से.
ध्न्यवाद.
भाई धुरविरोधी जी (इस नाम से सम्बोधित करना बडा अटपटा लग रहा है। मैं काफी देर से परेशान हूँ कि आपको कैसे सम्बोधित करूँ। खैर फिलहाल यही सही।) आपने एकदम सही कहा है कि 'आप अपने बचपन के उस हिन्दू दोस्त के चेहरे का ध्यान कीजिये और दुबारा अपने शब्दों पर गौर कीजिये'। अपने बारे में कुछ भी दावा करना ओछापन होगा। मेरे निन्याबे फीसदी ईष्ट मित्र हिन्दू नामधारी ही हैं। उनसे मुझे परेशानी नहीं हुई।
यह विचार विभूति जी के हैं। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों के बारे में यह बात कह रहे हैं। उनके कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि जब हम बतौर हिन्दू और मुसलमान बडे होते हैं तो ढेर सारी मिथकों और भ्रांतियों के साथ बडे होते हैं। जैसे- मुसलमान गंदे होते हैं। मुसलमान कट्टर होते हैं। मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करता है। मुसलमान हमलावर होते हैं या फिर हिन्दू काफिर होता है। हिन्दुओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए। चाय थूककर पेश करता है। ... 17-18 साल की उम्र कच्ची उम्र कहलाती है। इन्हीं पूर्वग्रहों के साथ पुलिस कर्मी (सिपाही स्तर का) सेवा में रहता है। इस पूर्वग्रह को दूर करने की कोशिश नहीं की जाती। विभूति जी का जोर इस बात पर है। इसीलिए वे सेवा के दौरान प्रशिक्षण देने की बात भी करते हैं। अगर परस्पर मिलने और संवाद की प्रक्रिया नहीं होगी तो यह पूर्वग्रह जड जमा लेंगे। आपकी दोस्ती और संवाद बचपन में हुआ, इसीलिए आपकी सोच अलग है और आपका ध्यान इस लाइन पर गया। आज इसी संवाद की प्रक्रिया को बढाने की जरूरत है ताकि पूर्वग्रह से मुक्त हुआ जा सके। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।
क्या यह सम्भव है वी एन राय जी का पूरा शोध यहां उपलब्ध कराया जाय?