क्या ये खजुराहो को उड़ायेंगे
बड़ी मुश्किल हो गयी है। जिसे देखिये वही खजुराहो, अजंता एलोरा, कोनार्क या फिर काम सूत्र का हवाला दिये जा रहा है। हुसैन का मामला हो या फिर बडौदा के एमएस यूनिवर्सिटी के कला विद्यार्थी चन्द्रमोहन की गिरफ्तारी का ... तर्क देने वाले जब देखो, यह बात उठा दे रहे हैं। यह तो हिन्दुत्ववादियों (हिन्दू मजहब मानने वाले नहीं) के गले की फांस बन गया है। भई, उस वक्त तो ये शक्तिमान थे नहीं, तो कलाकारों के मन में जो आया, बना डाला। जिंदगी के जो खूबसूरत तजर्बे थे, उनकी अभिव्यक्ति अपने कला माध्यमों के ज़रिये कर डाली। उनकी नीयत क्या थी, वो तो वही जाने लेकिन ये पंगेबाज उस वक्त रहते तो यकीन जानिये न तो खजुराहो के कलाकार बचते और न ही वात्स्यायन साहब। मेरी एक दोस्त संस्कृत की विदुषी है। विश्वविद्यालय की टॉपर है। संस्कृत में ही शोध किया है। उसने एक बार बताया था कि संस्कृत की एक नहीं कई रचानाएँ हैं, जिनमें आपको ऐसी सामग्री मिल जायेगी, जिन्हें अतिवादी 'अश्लील और भावनाओं को आहत करने वाला' मानेंगे। और तो और... कालिदास और शेक्सपीयर की तुलना कर अघाने वाले लोगों को कालिदास की कई रचनाओं में ऐसे जिक्र मिलेंगे, जिन्हें वे अश्लीलता की श्रेणी में डाल देंगे। ...अच्छा हुआ कालिदास आज नहीं है।
आप लोगों को अफग़ानिस्तान के बामियान के बुद्ध याद होंगे। अपने उदय के थोड़े दिनों बाद ही अफग़ानिस्तान में इस्लाम के पाँव पड गये थे। इस दौरान कई मजबूत शासक हुए, जिन्हें कुछ लोग मुसलिम शासक और कुछ इस्लामी हुकूमत भी कहते हैं। हिन्दुस्तान पर हमले का एक रास्ता भी वही था। कई धुरंधर आये, जो इतिहास में विलेन के रूप में रखे गये हैं। इनमें से किसी का मजहब, किसी का इस्लाम, बामियान बुद्ध के खड़े रहने से नहीं गया। बल्कि उन्होंने उसकी हिफाजत की। उसके साये में कई सदियों तक कई पीढि्यां पली-बढ़ीं। करीब चौदह सौ साल से पहाडों के दरम्यान बुद्ध साबुत खड़े थे। किसी को एतराज नहीं हुआ। एतराज किन्हें हुआ ... जिन्हें हम आप... तालिबान कहते हैं। तालिबानियों को लगा कि बामियान के बुद्ध को नष्ट कर, वे प्रसिद्धि के शिखर पर चले जायेंगे। शिखर पर तो गये पर हमेशा की बदनामी के कलंक के साथ। इतिहास हमेशा उन्हें अतिवादी कठमुल्लों के रूप में याद करेगा। और बामियान के बुद्ध का क्या बिगड़ा ... वे तो स्मृतियों में थे और स्मृतियों में जिंदा रहेंगे।
अब जरा गौर कीजिये, आप जिन्हें तालिबानी कहते हैं तो दिमाग में उनकी क्या छवि उभरती है... ठीक वैसे ही नहीं, जैसे हिन्दुत्ववादी (हिन्दू नहीं) कहते हुए। तालिबान का विचार तब तक पूरी तरह मूर्त रूप न ले सका था, जब तक वे पूरी तरह सत्ता पर क़ाबिज़ नहीं हो गये थे। हमारे हिन्दुत्ववादी भी सत्ता के सहारे सफाई अभियान में लगे हैं। अभी देश के कुछ कोनों में सत्ता पर हैं, तो देश के कुछ कोनों में सफाई चल रही है। जब तालिबानियों की तरह पूरी सत्ता पा जायेंगे, तो क्या गारंटी है कि ये खजुराहो, कोनार्क को नहीं ढहा दें और वात्स्यायन पर पाबंदी न लगा दें... कालिदास की रचनाओं के साथ पकड़े जाने वाला शख्स जेल की सलाख़ों के पीछे न हो। ... मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई... की साफ बयानी करने वाली मीरा के भजन गाने वालों की यह कह कर बोलती न बंद कर दी जाये, इससे हमारे समाज की लडकियों पर बुरा असर पड़ेगा... कुछ लोगों को लग सकता है कि यह दूर की कौड़ी है। तालिबान भी जब लड़ रहे थे तो लोग यही कहते थे, ये सत्ता में नहीं आ पायेंगे... पर वे आये... जब उन्होंने बामियान के बुद्ध को गिराने की धमकी दी तो सबको लगा, डरा रहे हैं... ऐसा करेंगे नहीं। उन्होंने किया। डंके की चोट पर किया। ये भी करेंगे... ये तो आज भी डंके की चोट पर कर रहे। कैमरे के सामने, सरकारों की नाक के नीचे। ... और जब ऐसे कट्टरपंथी ऐसा कर रहे होंगे तो उस वक्त भी आज की तरह कुछ लोग ऐसे होंगे, जिन्हें इनका कृत्य सही और उचित लगेगा। वे लोगे ऐसे अतिवादियों की तरफ से तर्क गढेंगे। जी, वे ऐसा क्यों करेंगे... क्योंकि इस देश की वैचारिक बहुलता, विभिन्नता, सामाजिक सामंजस्य, सांस्कृतिक लचीलापन इन्हें नहीं भाता... इसलिए कि इनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा ऐसी सांस्कृतिक छवियां हैं, जो एकांगी नहीं हैं। ये इसलिए ऐसा करेंगे क्योंकि आप बार-बार यह नहीं कहिए कि खजुराहो में क्या है, देखो... कोनार्क देखो... वात्स्यायन पढ़ो... कालिदास का सौन्दर्यबौध देखो... मीरा की भक्ति भावना से सीखो। न ये रहेंगे ... न बार-बार इनका हवाला आप दीजियेगा।
जब ऊपर की तरह, नीचे वाली जगह भी खाली हो जाये
दुआ भी उन्हीं की कामयाब होती है...
जो कोशिश करते हैं। हम भी कोशिश करें।
टिप्पणियाँ
कौन है जो शिक्षा, प्रेम द्वारा इनका मार्ग-दर्शन कर सकता है, इनके जीवन को एक उद्देश्य दे सकता है। वो 'कौन' एक पढे़-लिखे नौजवान के अलावा और कौन है।
अत:, ऐसी घटनाओं की कम गहराई वाली व्याख्या करने से कुछ आगे भी हमें करना होगा। वरना कुछ दिन बाद हम किसी और न्यूज़ की व्याख्या में व्यस्त होंगे।
bakaul urdu shair IQBAL
Na sambhaloge to mit jaoge aye hindustaan walon,
tumhaari daastaan tak naa hogi daastaano mein.
mumbai.
इसी तरह सैटेनिक वर्सेज तब भी प्रतिबंधित था, अब भी है. हालांकि अब सुर्ख़ लाल झंडे वालों की भी शीर्ष सत्ता में भागीदारी है.
टीवी-वीडियो-सिनेमा में कितना ज़्यादा नंगापन आ गया है. कई ब्लॉगों पर सशक्त दलीलों के ज़रिए साबित करने की कोशिश की जा चुकी है कि नग्नता की अपनी पुरानी विरासत है.(आश्चर्यजनक रूप से किसी ने मोहनजोदड़ो की नग्न नर्तकी का उदाहरण नहीं दिया है!) लेकिन देश में नग्नता के इतने पुख़्ता आधार के बाद भी प्लेब्वॉय और पेंटहाउस तो दूर, इंडिया टुडे या आउटलुक के यौन-सर्वे विशेषांक तक अधिकतर घरों में छुपा कर रखे जाते हैं. अकबर-बीरबल, विक्रम-वेताल और फिल्मी गानों की किताबों के साथ रखे कोकशास्त्र को आज भी पीली पन्नी में लपेटा जाता है.
मतलब शील-अश्लील का अंतर जनता जानती है. मंदिर में देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां भले ही विवस्त्र हों, लोग आज भी तन पर उचित वस्त्र डाल कर ही पूजा करने पहुँचते हैं.
मंदिर निर्माण की कसमें खाने-खिलाने वाली पार्टी की बुरी गत आम जनता ने ही बनाई है. इसलिए टकराव मात्र में रास्ता खोजने से ज़्यादा उचित होगा जनता के विवेक पर भरोसा करना. यदि चुनाव अभी दूर है तो तब तक क्यों नहीं न्याय के लिए कोर्ट-कचहरी-शासन-प्रशासन को झिंझोरा जाये. गुजरात में हमारी चलने नहीं देते, तो केंद्रीय स्तर झिंझोरते हैं. संयोग से इस समय केंद्रीय सत्ता में बंधनमुक्त-कला के पैरोकार भी बड़ी संख्या में हैं!
आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि कलाकार को डंडे के जोर पर 'समझाने' का कोई भी प्रयास दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है. शक्तिशाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर लगातार इसकी निंदा हो भी रही है. ब्लॉगजगत भी खुल कर भर्त्सना कर रहा है. संपूर्ण न्याय के लिए उच्चतम स्तर तक लड़ाई भी ज़रूर ही की जाएगी.
इसलिए उचित नहीं कि हम भारत की समरस संस्कृति के ख़तरे में होने का शोर मचायें. हमारी संस्कृति अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद या भाजपा या विहिप या संघ या मोदी के वार को झेलने में सक्षम है. इतिहास इस बात का गवाह है.
रही बात अश्लीलता की, नग्नता की। यह तो नजरिये की बात है। कपडा पहन लेने से ही कोई शील हो जायेगा और कपडा न पहनने से अश्लील। कपडा पहनी, दुपट्टा ली हुई लडकियों में भी कई लोग अपनी यौन लिप्सा की वजह तलाश लेते हैं। जहां तक प्लेब्वाय और ऐसी पत्रिकाओं का सवाल है, इनकी तुलना कम से कम खजुराहो, जैसा कि आपने याद दिलाया मोहनजोदडो की मूर्तियों से न की जाये तो अच्छा रहेगा। यह ठीक वैसा ही फर्क है कि जैसा फर्क उद्दात प्रेम से उपजी यौन संतुष्टि और खरीदी गयी यौन सेवा में है। इन दोनों में जो भावनात्मक और संवेदनात्मक फर्क होगा वही फर्क प्लेब्वाय और कालिदास की रचनाओं में है।
जहां तक शोर मचाने की बात है। शोर मचा कर कोई शख्स क्या कर सकता है। हम तो बस खतरे के प्रति ध्यान दिला रहे हैं। अभय जी के शब्द उधार लें तो 'डर निर्मूल नहीं है.. इसीलिए इनका प्रतिरोध आवश्यक है..'। इसलिए कि मौन रहना भी एक तरह से साजिश में शामिल होना है, क्योंकि जैसा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर कहते हैं, जो तटस्थ रहेंगे समय लिखेगा उनका भी अपराध ...
आप सबका शुक्रिया। उम्मीद है मैंने अपनी बात कहने में संवाद की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं किया होगा।
भारत एक मल्टी क्लचरल समाज है। हम किसी एक संस्कति को सभी पर नहीं थोप सकते
हैं। यहां पर मुझे लगता है कि टोलरेंस की जरूरत है। हमें अपना टोलरेंस का स्तर
बढ़ना होगा। मुझे लगता है कि तथाकथित धर्म के ठेकेदारों ने यह तय कर लिया है कि
नई पौध को कहां ले जाना है पर वे भूल जाते हैं कि आज की नवीन पीढ़ी
ग्लोबलाईजेशन के प्रभाव से अन्य संस्कतियों से भी प्रभावित हो रही है। नई पीढ़ी
अपने बारे में खुद निर्णय लेने में सक्षम है। सभी धर्म में अभिव्यक्ति की सभी
को छूट है। अगर कुछ लोग ही तय कर दें कि क्या बनाना है कैसे सोचना है, क्या
करना है, तो स्वतंत्रता कहां रह जायेगी। पुरानी दकियानुसी सोच को छोड़ना होगा
और हमें सभी की अभिव्यक्ति का सम्मान करना चाहिए। किसी को बुरा लगे तो उसे भी
हक है कि उसका प्रतिरोध करने का, लेकिन प्रतिरोध के तरीकों को सोचना होगा।
हिंसा की भी रुप में न्यायसंगत नहीं है।
रवि जीना
MASVAW