ये वो सहर तो नहीं

आज़ादी के साठ साल। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के साठ साल। यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है। इसका सेहरा इस देश के अभिजन यानी एलीट को नहीं आमजन को जाता है। जो आज भी यक़ीन करता है कि यह देश उसका है और उसके लिए कुर्बानी दे रहा है।

आज़ादी की जद्दोजहद, बिना ख्वाब के मुमकिन नहीं रही होगी। जो लड़ रहे थे, जो जान की बाज़ी लगा रहे थे और एक नये हिन्दुस्तान का ख्वाब देख रहे थे। ... पर जब आज़ादी आयी तो ख़ून ख़राबे और हिंसा के साथ। देश के टुकड़े करने के साथ। तब भी इस देश के अभिजन को शायद ही फर्क पड़ा हो, दर बदर और खूंरेंजी का शिकार आमजन ही हुआ। कई लोगों के लिए यह ख्वाब टूटने जैसा था। पर वे हिम्मत नहीं हारे। कुछ ऐसे ही हालात का बयान फैज़ अहमद फैज़ की नज्म करती है-सुबहे आज़ादी।

सुबहे आज़ादी

ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं कि जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आखिरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल

जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों में
चले जो यार तो दामन पे कितने दाग़ पड़े
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुखे-सहर की लगन

बहुत करीं था हसीना-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी-दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फ़िराके ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाले-मंज़िल-ओ-गाम

बदल चुका है बहुत अहले दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाबे-हिज़्र हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारे हिज़्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निग़ारे-सबा किधर को गयी
अभी चिराग़े-सरे-रह को कुछ खबर ही नहीं

अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई
निज़ाते-दीदा-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

टिप्पणियाँ

फेज बहुत बेहतरीन शायर थे।यहाँ उन को प्रेषित करने के लिए आपक धन्यवाद।

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