महात्मा गांधी का ओसामा को जवाब

ओसामा का ख़त महात्मा गांधी के नाम, आपने पढ़ा। अब आप पढ़ें कि महात्‍मा गांधी ने ओसामा के तर्कों का क्‍या जवाब दिया है। इस संवाद के रचयिता हैं दार्शनिक, राजनीतिक विश्‍लेषक लार्ड भिक्खु पारिख

आतंक क्‍यों:ओसामा बिन लादेन-महात्‍मा गांधी संवाद 2
भूमिका- संसार में लाखों प्राणियों की तरह मैं भी 9/11 घटना से बहुत विक्षुब्ध हूँ और आतंकवाद की घोर निन्दा करता हूँ। आतंकवाद के विरुद्ध व्यापक युद्ध छेड़े जाने के बाद भी हिंसक घटनायें बढ़ती ही जा रही हैं, जैसा कि मैड्रिड में हुआ। बमबाज़ों को क्या प्रेरित करता है? वे अपने कारनामों के साथ कैसे जीवित रहते हैं? क्या हिंसा के इस चक्रवात का कोई विकल्प है? इसके बारे में सलाह देने के लिए अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से अच्छा और कौन हो सकता है? उनके और ओसामा बिन लादेन का काल्पनिक संवाद दो बातें करने का प्रयास करता है। बिना बिन लादेन के विक्षिप्त दृष्टिकोण को समझे उसका उन्मूलन संभव नहीं है। दूसरा उसके द्वारा ही उसका वैचारिक विकल्प ढूंढ़ा जा सकता है। मेरा बिन लादेन एक बुद्धिजीवी, लाक्षणिक पुरुष है, जो उग्र इस्लामी आतंकवाद का पक्षधर है। उसका वास्तविक बिन लादेन से कोई लेना देना नहीं है।
भिक्खु पारिख

प्रिय ओसामा,
1 नवम्बर 2003
प्रिय बंधु ओसामा
, तुम्हें सुनने के बाद मुझको अपने आतंकवादी देशवासियों के साथ हुए वार्तालाप की, जो लंदन में 1909 में आरंभ हुआ और लगभग मेरी मृत्यु तक चला, बहुत याद आ गई। तुम्हारे तर्क, जैसे उनके थे वैसे ही तुम्हारे भी, पूर्णतया विकृत हैं और तुम्हारा हिंसा के प्रति महिमागान पूरी तरह निन्दनीय है। तुमको विदित हो या न हो किन्तु तुम्हारी सोच व कथन बिल्कुल साम्राज्यवादी सरीखा है। तुम इस्लाम का इतिहास केवल परिष्कृत रूप में ही प्रस्तुत कर रहे हो। समस्त सैनिक सफलतायें और साम्राज्यवादी अभियान- रक्तपात तथा क्रूरता का अंग हैं और अन्यायपूर्ण होते हैं। तुम्हारा भी कोई इससे भिन्न नहीं था। भारत में मुसलमान शासकों ने हिन्‍दू मन्दिर नष्ट किये, उनका धन लूटा और एक बड़ी आबादी को लालच अथवा शक्ति के दुरुपयोग से धर्मान्तरित किया। उन्होंने अफ्रीका की पुरातन संस्कृति व सामाजिक ढाँचों को नष्ट किया और इस्लाम के पहले की उनकी स्मृतियों को मिटाने की चेष्टा की। यद्यपि उन्होंने यहूदियों व ईसाइयों के प्रति कुछ बेहतर व्यवहार किया परन्तु उनको अपनी बराबरी का दर्जा कभी नहीं दिया। यह सब बहुत पुराना इतिहास है और इसके लिये आंसू बहाने या दोषारोपण करने का कोई लाभ नहीं है। फिर भी, यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसकी सत्यता को जानें और उसकी पुनरावृत्ति को रोकें। तुम ऐसा नहीं कर रहे हो बल्कि जिन देशों का नाम तुमने लिया, वहां फिर मुस्लिम राज्य स्थापित करना चाह रहे हो। तुम यूरोपीय साम्राज्यवाद की आलोचना कर रहे हो क्योंकि उसने तुम्हारे साम्राज्यवाद को नष्ट कर दिया; तुम अमरीकियों के प्रति आक्रामक हो क्योंकि वे तुम्हारे पुनरावृत्ति के प्रयास में अवरोधक हैं। स्वयं साम्राज्यवादी होते हुये तुम्हें कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि तुम अन्य साम्राज्यवादी प्रयासों की आलोचना करो।

तुम वास्तविक इस्लामी संस्थाओं के बारे में लगातार बात करते हो और उनके वैभव को पुनर्जागृत करना चाहते हो। मुझे यह विचार बिल्कुल आकर्षित नहीं करता और न तुम्हारे अनेकों सहधर्मियों को करता है। तुम एक केन्द्रित सरकार, औद्योगिक अर्थव्यवस्था तथा परमाणविक अस्त्रों का इस्लामिक आस्थाओं तथा रीतियों में समावेश करना चाहते हो। यह एक तर्कविहीन समीकरण होगा। यदि तुम एक बार आधुनिक युग की अर्थव्यवस्था व राजनीतिक संस्थाओं को अपनाओगे तो उनके तर्क से बच नहीं सकते। तुमको धीरे- धीरे पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ना पड़ेगा और वैश्वीकरण को अपनाकर अमरीकी साम्राज्य में समाहित होना पड़ेगा। तुम उसी से दूर रहना चाहते हो। इसके अतिरिक्त तुमको ऐसी संस्कृति अपनानी पड़ेगी जो तुम्हारे सामाजिक, शैक्षिक तथा अन्य संस्थानों को बदल देगी। तुम्हारे धार्मिक व नैतिक मूल्यों को नष्ट कर देगी। तुम एक मज़बूत मुस्लिम समाज बनाना चाहते हो जो पश्चिम से टक्कर ले सके। परन्तु यदि तुम सचमुच में 'उत्तम` समाज चाहते हो तो पश्चिम की नकल करना छोड़ दो। उसके स्थान पर इस्लाम के पुराने मूल्यों को लेकर, उनको अपने सहयोगियों की आवश्यकता व उद्देश्यों के अनुसार ढालकर उन पश्चिमी संस्थानों व मूल्यों को समाहित कर लो, जिनसे तुम्हारा समाज उन्नति कर सके।

तुम कह रहे हो कि मुस्लिम समाज की अवनति हो रही है किन्तु उसका कारण वह नहीं है जो तुम बता रहे हो। उसकी अवनति का कारण उसकी जड़ता, पितृसत्तात्मकता, परिवर्तन का विरोध, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व वैज्ञानिकता दृष्टिकोण का अभाव, एकजुटता और सहकारिता की क्षमता का अभाव है। इन क्षेत्रों में हमें पश्चिम से बहुत कुछ सीखना है। मैं स्वयं पश्चिम सभ्यता का आभारी विद्यार्थी रहा हूं और उसकी उदार, दयालु व समाजवादी परम्पराओं से बहुत कुछ सीखा है। उनका समावेश भारतीय जीवनपद्धति व विचारधारा में किया है। संसार का पूर्व व पश्चिम के रूप में विभाजन भोंडा है। इससे वे दोनों अलग अलग एकजुट हो जाते हैं और उनमें सुविधाजनक अर्न्तसंवाद नहीं रह जाता।

तुम कहते हो कि पश्चिम धार्मिकता विहीन है और उसके नागरिक सब काफ़िर हैं। यद्यपि पश्चिम उपभोक्तावादी व सामंतवादी है किन्तु वहां के कई नागरिकों में सामाजिक अन्तरात्मा है। गऱीबों की सहायता करना, कल्याणवादी राज्य व्यवस्था, न्यायोजित समाज व्यवस्था की भावना, वैश्विक न्याय का दबाव और मानवीय कार्यकलाप उसका उदाहरण है। पश्चिम के कई लोगों को धर्म में बड़ी आस्था है। उनमें से कई लोग गैरईसाई धर्मावलम्बियों से वार्ता करने व उनके विचार ग्रहण करने के लिए उत्सुक हैं। तुम्हारा यह सोचना, कि केवल मुसलमान ही धार्मिक हैं तुम्हारी गल़ती है। धार्मिकता का अर्थ यह नहीं है कि आप कितनी बार पूजा करते हैं, उपवास रखते हैं या मस्जिद में जाते हैं। धर्म का अर्थ है कि आप विनम्रतापूर्वक, उदारतापूर्वक, सहनशीलता व विश्वप्रेम से जीवन यापन करते हैं और अन्य प्राणियों की कितनी सेवा करते हैं। तुममें मुझको इसका कोई अंश नहीं दिखता।

तुमको विश्वास है कि इस्लाम दोषरहित है। परन्तु हर धर्म में कुछ सत्य होते हैं तो कुछ गलतियां भी। इसके अतिरिक्त, ओसामा, तुम स्वयं को इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों को सबसे अधिक समझने का हकदार मानते हो और किसी मतभेद के लिये तैयार नहीं हो। बदले हुये समय के अनुसार इन सिद्धान्तों के समावेश के लिये तुम तैयार नहीं हो। इस्लामी राज्यों की प्रजा पर उन सिद्धान्तों को थोपे जाने का तुम्हारा आदेश उनकी धार्मिक स्वतन्त्रता का हनन है। यह तुम्हारे धर्म व राज्य दोनों को भ्रष्ट करने का निश्चित तरीका है। इससे तुम्हारी प्रजा का धार्मिक व नैतिक विकास अवश्य अवरूद्ध हो जायेगा। सच्चा धार्मिक पुरुष अपने धार्मिक मूल्यों व आस्थाओं के अनुसार जीना चाहता है और यदि राज्य उस पर उनको थोपेगा तो उसके लिये धर्म का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। धर्म पर आधारित राज्य धर्म का अपवित्रीकरण है और ईश्वर तथा व्यक्ति की आत्मा का अपमान है।

तुम अपने दु:खमय असमंजस के लिये यूरोप व अमरीका के निवासियों को उत्तरदायी मानते हो, इस्लाम को बिल्कुल नहीं। तुम एक छोटा सा सत्य भूल जाते हो कि किसी समाज में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई बाहरी तत्व पदार्पण नहीं कर सकता जब तक कि समाज स्वयं ही सड़ न गया हो जैसे कि मनुष्य शरीर व्याधिग्रस्त नहीं हो सकता जब तक कि उसकी पुनरुत्पादन शक्ति समाप्त न हो गई हो। दूसरों को आरोपित करने का प्रयास छोड़ो और अपनी प्रजा को शिक्षित व संगठित करके अपने समाज को पुनर्जागृत व पुनर्शक्तिशाली बनाओ। तुम्हारा यह कथन सही है कि तुम्हारे कई राजा विदेशी शक्तियों की भ्रष्ट कठपुतली हैं, परन्तु तुम भूल रहे हो कि वे कोई विदेशी प्राणी नहीं हैं। वे हमारे ही विस्तृत रूप हैं, हमारी ही छवि हैं। हम ही उनकी स्थिति व कार्यकलापों के लिये उत्तरदायी हैं। ओसामा, तुम्हारे पास धैर्य नहीं है, न सामाजिक पुनर्निमाण की कोई योजना है और न सामाजिक अवनति के गंभीर कारणों को सुलझाने की कोई इच्छा है। तुम समाज सुधारने के लिये एक संकुचित, धार्मिक कार्यकर्त्ताओं के वर्ग पर निर्भर हो, परन्तु जैसे ही वे अधिकार पा जायेंगे वे भी भ्रष्ट, घमंडी व मदांध हो जायेंगे।

अमरीकियों पर आक्षेप करते करते तुम यहूदियों पर आक्षेप करते रहते हो। न केवल यहूदी धर्म के विरोध में बोलते हो बल्कि आपत्तिजनक, आक्रामक व सेमटिक विरोधी भाषा का भी प्रयोग करते हो। तुम्हारे अनुभव के विपरीत मैं कई यहूदियों के साथ रहा हूं और उनके साथ काम किया है। मैं उनकी नैतिक तथा बौद्धिक योग्यताओं का प्रशंसक हूं और उनके इतिहास को भलीभांति जानता हूँ। दक्षिण अफ्रीका में कुछ यहूदी मेरे अभिन्न मित्र बन गये थे। उनमें से एक ने तो एक फार्म भी खरीद लिया था, जहां हम लोगों ने सहकारिता से रहने का प्रयोग किया। मैं यहूदियों को 'ईसाईयत के अछूत' मानता हूं। हालांकि वे सम्मलित यहूदी-ईसाई परम्परा के अंग हैं, किन्तु सदियों तक वे ईसाईयों से अलग रहे, बहिष्कृत रखे गये तथा नीचा दिखाये जाते रहे जिसका कि नाज़ी अत्याचार एक भयानक उदाहरण था।

मैं अच्छी तरह जानता हूं कि बीते कल के प्रताड़ित आसानी से आने वाले कल के अत्याचारी बन जाते हैं। वे अपनी गुज़री हुई पीड़ाओं को दूसरों पर अत्याचार करने का बहाना और औचित्य बनाते हैं। हाल में इसराईल ने अमरीकी मदद से ज्यादतियां की हैं और उनका विरोध भी करना चाहिये। परन्तु तुमको यहूदियों पर पड़ने वाली उनकी पुरानी पीड़ाओं के प्रभाव को भूलना नहीं चाहिये। वे स्वभावत: अपनी दुखद ऐतिहासिक यादों से पीड़ित रहते हैं और बहुत आशंकित रहते हैं। यहाँ तक कि कभी-कभी अच्छे भले विदेशियों पर भी भरोसा नहीं करते। अन्ततोगत्वा उनको एक गृह प्रदेश मिल गया है और वे उसके प्रति अत्यधिक अधिकार भाव से ग्रस्त हैं। उनके नये घर के कारण फिलस्तीनी बेघर हो गये हैं और उनको बहुत परेशानियां हो रही हैं। हमें कोई ऐसा रास्ता निकालना पड़ेगा जिससे दोनों को राहत मिल सके। मैं बहुत उत्सुक था कि वह एक द्वि-राष्ट्रीयता का देश बन जाये जहां अरब व यहूदी साथ-साथ रह सकें, जैसा कि मैं संयुक्त भारत का पक्षधर था। दुर्भाग्यवश मेरे अनेक प्रयासों के बाद भी भारत का विभाजन हो गया। मैंने उसको इस आशा से स्वीकार कर लिया कि दो भाई अपने-अपने घर बसाने के बाद लड़ाई का वातावरण भूलकर न सिर्फ शान्तिपूर्वक रहने लगेंगे बल्कि आपस में और नज़दीक आ जायेंगे। तुम, ओसामा, इसराईल की स्थापना को क़बूल कर लो, उसको सुरक्षा की भावना दो और धैर्यपूर्वक चेष्टा करो कि वह फ़िलस्तीनियों की समस्याओं और न्यायोचित मांगों को समझ सके। जब तक तुम उसको डराते रहोगे, उसके लोग भयभीत रहेंगे, वे घोर प्रतिक्रियावादी तथा हिंसावादी नेताओं के हाथों में चले जायेंगे। समझदार इसराईली लोगों को पता है कि उन्हें अरब देशवासियों के बीच में रहना है और अरबवासी सदा कमज़ोर व विभाजित नहीं रहेंगे।

अन्त में, मैं तुम्हारे हिंसात्मक तरीकों के बारे में बात करना चाहता हूं। मैं उनको व्यावहारिक तथा नैतिक कारणों से अस्वीकार करता हूं। उनके द्वारा तुम अपने उद्देश्य में कभी सफल नहीं हो सकते। उनके द्वारा तुम अमरीकियों को कभी बाहर नहीं निकाल सकते। अमरीकी तुम्हारे संसाधनों व कैम्पों को समाप्त करने में पूरी शक्ति लगा देंगे, जैसा उन्होंने अफ़गानिस्तान तथा अन्य स्थानों में किया है। वे अर्न्तराष्ट्रीय नियमों की तथा अपने संवैधानिक प्रावधानों की भी अनदेखी कर देंगे। ऐसे कट्टर व शक्तिशाली प्रतिद्वन्दियों से जीत पाने की कोई आशा नहीं की जा सकती। यदि वे चले भी गये तो अपने तरीक़ों से तुम उनके स्थानीय सहयोगियों को नहीं हरा सकोगे, अपने मुस्लिम समाज को पुनर्जीवित करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। समस्त इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जहां आतंकवादियों ने स्वस्थ व मानवीय समाज की स्थापना की हो। ओसामा, आज तुम अमरीकियों व मुसलमान राज्यों के विरुद्ध आतंकवाद पैदा कर रहे हो, कल तुम्हारे लोग तुम्हारे विरुद्ध वही तरीक़े अपनायेंगे और उसका वही औचित्य बतायेंगे जो तुम आज बता रहे हो। यह कुटिल चक्र कब समाप्त होगा?

तुम्हारे तरीक़ों का मैं नैतिक विरोधी हूँ। मनुष्य जीवन एक अनमोल वस्तु है और इसका विनाश स्वयं में दुष्कर्म है। इसके अतिरिक्त, कोई मनुष्य, कितना ही गिरा हुआ क्यों न हो, कभी इतना निकृष्ट नहीं होता कि उचित नैतिक दबाव से सुधर न सके। प्राणी इसलिये गल़त काम करता है क्योंकि यह गल़त विचारों से ग्रसित होता है या घृणा की भावना से प्रेरित होता है या समाज के अपने प्रति व्यवहार से ऐसे काम कर बैठता है जिनको वह स्वयं व्यक्तिगत रूप से सही नहीं समझता। हिंसा से इनमें से किसी संभावनाओं का उपचार नहीं हो सकता।

जैसा कि मैंने अपने उदाहरण से दिखाया, नियमित अहिंसात्मक प्रतिरोध ही बुराई से लड़ने का नैतिक व प्रभावी तरीका है। वह विपक्षी की मानवीय भावनाओं को प्रभावित करता है, उसकी अन्तार्त्मा को जागृत करता है, उसको आश्वस्त करता है कि उसकी हानि नहीं होगी और जनमत की शक्ति को संगठित करता है। इसके द्वारा विचारधारा को शान्त होने का समय मिल जाता है और दोनों पक्षों के आपसी सम्बन्धों का स्तर भी उठ जाता है। इससे सहभागिता की भावना को प्रेरणा मिलती है, झूठी पृथकता समाप्त हो जाती है और आपसी वैमनस्य भी शेष नहीं रह जाता। तुम अपने विरोधियों का रास्ता अपनाकर शोध-प्रतिशोध के चक्कर में मत फंसे रहो। उनकी बुराइयां अपने सर ले लो, उनकी अन्तार्त्मा बन जाओ और प्रतिरोध का रूपांतर कर दो। मैं इसको आत्मा की शल्य क्रिया मानता हूं जिससे घृणा का विष निकल जाता है और विपक्षी की नैतिक ऊर्जा भी सामूहिक प्रयास में भागीदार बन जाती है।

फिलस्तीनियों का मामला ले लो। उन्होंने हिंसा का मार्ग अपनाया। प्रत्युत्तर में इसराईल ने और अधिक हिंसा की। परिणामस्वरूप दोनों समाजों में क्रूरता बढ़ गई। अब सोचो, यदि फिलस्तीनियों ने मेरी सलाह के अनुसार कार्य किया होता। वे इसराईली जनता के प्रति किसी धमकी का प्रयोग नहीं करते; उनको अपना भाई मान कर उनकी न्यायप्रियता व अपने विरुद्ध लम्बे समय के अपमान का हवाला देकर उनको इस बात का आभास कराते कि उनके व्यवहार से फिलस्तीनियों को कितना कष्ट हो रहा है और उनके समाज व स्वयं की सोच पर कितना बुरा प्रभाव पड़ रहा है। आवश्यकता होने पर सविनय असहयोग व अहिंसात्मक प्रतिरोध करते और इसराईली सरकार को मनमानी कार्यवाही करने की चुनौती देते।

मैं नहीं समझता कि कोई इसराईली सरकार-चारे वह एरियल शैरोन की ही क्यों न हो, निहत्थे व शांतिपूर्ण प्रतिरोधियों की हत्या कर सकती है जबकि सारा संसार देख रहा है। यदि वे ऐसा करते तो विश्व भर में निन्दा के पात्र बन जाते।

समझदार यहूदी भी उनके विरोधी हो जाते और उनका समाज विभाजित हो जाता। मुझे पूरा विश्वास है कि कुछ इसराईली सैनिक भी आदेश मानने से इंकार कर देते जैसा कि अब होने भी लगा है। आजकल के हिंसात्मक वातावरण के स्थान पर शांतिमय प्रतिरोध से इसराईल की हिंसा अन्यायपूर्ण बन जाती और फिलस्तीनियों का साहस व नैतिक स्तर ऊंचा हो जाता और विश्व का जनमत भी उनके पक्ष में हो जाता।

हो सकता है तुमको, या जैसा तुम्हारे कुछ सहयोगियों को लगता है, कि अहिंसा हम हिन्दुओं की स्वाभाविक पसन्द है, जब कि इस्लाम के लिये वह अपरिचित है। यह सच नहीं है। हिन्दुओं का भी लम्बा इतिहास हिंसा का है और उनके स्वभाव में भी हिंसा वैसी ही है जैसी अन्य लोगों में है। मैं काफ़ी प्रयासों तथा अहिंसक उदाहरणों के बाद ही उनको इसका विश्वास दिला सका हूं। जहां तक मुसलमानों का प्रश्न है, तुमको मालूम होना चाहिये कि अहिंसा उनकी भी लम्बी परम्परा है। उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेश, जो अब पाकिस्तान है, में हिंसक पठानों ने मेरे मित्र अब्दुल गफ़्फार खां के नेतृत्व में अहिंसा के मार्ग को सफलतापूर्वक अपनाया। कोई भी धर्म स्वयं में हिंसा के पक्ष या विपक्ष में नहीं होता है। यह उनके नेताओं पर निर्भर है कि वे इसकी सम्यक व्याख्या करें और तदनुसार अनुयाइयों का मार्ग दर्शन करें।

आशीर्वाद व प्यार के साथ
मोहनदास कर्मचंद गांधी

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टिप्पणियाँ

Sanjeet Tripathi ने कहा…
बहुत ही अच्छ!!

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