राम का 'दूसरा बनबास'
राम के नाम पर अयोध्या में जो कुछ हुआ या उसके बाद पूरे देश में- क्या राम उससे खुश हुए होंगे। इस बात को बिना मर्यादा पुरुषोत्तम को समझे बिना, नहीं जाना जा सकता। कैफ़ी आज़मी ने इसे समझने की कोशिश की। कैफ़ी न सिर्फ बड़े शायर थे बल्कि भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन के पुरोधा भी। कैफ़ी का जुड़ाव जिस ज़मीन से था, वो उस जगह की मिलीजुली संस्कृति के मज़बूत वारिस हैं। वह, हर उस परम्परा और संस्कृति को अपना मानते थे, जिसे आप हिन्दुस्तानी कह सकते हैं। राम उनके लिए इस संस्कृति और परम्परा की धरोहर हैं। वे राम के मर्म को समझते थे, तब ही उनकी कलम से 'दूसरा बनबास' जैसी कविता निकली। कैफ़ी ने राम के मन को समझा या नहीं, यह आप तय करें-
दूसरा बनबास
राम बनबास से लौट कर जब घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा (रक्स- तांडव)
छह दिसम्बर को सिरी राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये।
जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफ़रत के उसी राहगुजर में आये।
धर्म क्या उनका है, क्या जात है, यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आये।
शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंज़र
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आये।
पाँव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
कि नज़र आये वहां ख़ून के गहरे धब्बे
पाँव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राजधानी की फि़ज़ां आयी नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनबास मुझे।
आप इसे भी पढ़ सकते हैं
टिप्पणियाँ
शुक्रिया!
आपके राम आन्दोलन से ऐसा लगता है अब, कि राम भारतीयों की धरोहर हैं संघियों की नहीं....
इस कोशिश की सराहना की जानी चाहिए.... अब शायद राम के नाम पर डर नहीं लगेगा....
या क्या आप पोस्ट करेंगे? तो कर ही दीजिए.
और सब?