चे- शहादत के चालीस साल
- दुनिया में बहुत कम लोग होते हैं, जो न सिर्फ अपने वक्त में बल्कि आने वाली कई पीढ़ियों की प्रेरणा की वजह बनते हैं। ऐसे लोग तो और भी कम हैं, जिन्होंने निजी जीवन की सुख सुविधाओं को तज कर गरीबों और मजलूमों के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी हो और उनके ख्यालात आज भी लोगों को जद्दोजहद करने के लिए प्रेरित करते हों। अर्नेस्टो चे ग्वेरा ऐसी ही शख्सियत हैं।
- चे ग्वेरा, फिदेल कास्त्रों के साथ क्यूबा की क्रांति के नायक थे। अमरीका की दबंगई के खिलाफ क्यूबा के डटे रहने की नींव चे ग्वेरा ने ही डाली थी। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा कोना हो, जहाँ संघर्षशील नौजवान चे ग्वेरा से अपने आपने को जोड़ना पसंद न करते हों। चाहे मिस्र हो या अर्जेंटीना, पाकिस्तान, मलेशिया या अपना हिन्दुस्तान या फिर विश्व सामाजिक मंच जैसा कोई प्रतिरोध जमावड़ा, चे ग्वेरा हर जगह नजर आते हैं। किसी के टीशर्ट पर तो किसी की टोपी पर... तो किसी के गले की लॉकेट में। कोई इन्हें फैशन में इस्तेमाल करता है तो किसी के लिए वो मजलूमों के लिए जद्दोजहद करने की याद दिलाने वाला चेहरा हैं। इसी चे ग्वेरा की नौ अक्तूबर को शहादत दिवस थी। चालीसवीं शहादत दिवस। दुनिया भर के लोगों के लिए उसकी कुर्बानी को याद करने का दिन।
- चे का जन्म 14 मई 1928 को अर्जेंटीना में हुआ था। पूरा नाम- अर्नेस्टो ग्वेरा डे ला सेरना। लोगों ने चे (मेरा) नाम दिया और वे हो गये अर्नेस्टो चे ग्वेरा। चे का कहना था, 'मेरे जीवन में जो कुछ भी महत्वपूर्ण और मूल्यवान है, उसका रिश्ता 'चे` शब्द से है।`
- 1946 से 1853 तक डॉक्टरी की पढ़ाई। 1953 में फिदेल से मुलाकात। फिदेल के साथ क्यूबा के मुक्ति संग्राम में शामिल। अपनी काबलियत से अहम रणनीतिकार बने। 1959 में क्यूबा की मुक्ति के बाद वहां के राष्ट्री़य बैंक के निदेशक बने। क्यूबा के नुमांइदे के रूप में पूरी दुनिया का सफर। संयुक्त राष्ट्र में अमरीका की नीतियों के खिलाफ जबरदस्त भाषण देकर विकासशील देशों के चहेते बने। 1965 में लातीनी अमरीकी देशों में चल रहे मुक्ति युद्ध में हिस्सा लेने के लिए सबको अलविदा कह कर क्यूबा छोड़ दिया। आठ अक्तूबर 1967 को चे बोलीविया में पकड़े गये। जीवित चे के बढ़ते असर का साम्राज्यवादियों के जहन में कितना खौफ था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगले ही दिन यानी नौ अक्तूबर को उन्हें अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए के इशारे पर गोली मार दी गयी। वाकई में इतना महान क्रांतिकारी मारा गया है, इसकी पहचान के लिए मारने वालों ने चे के दोनों हाथ काट कर रख लिये। काफी खोज बीन के बाद 1997 में चे के अवशेष को क्यूबा लाया गया और पूरे सम्मान के साथ दफनाया गया। पर दफन तो शरीर होता है... विचार हमेशा जिंदा रहते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह भगत सिंह हमारे बीच आज भी जिंदा हैं।
- चे ग्वेरा, भारत सरकार के बुलावे पर 1959 में क्यूबा सरकार के मंत्री और क्रांति के नायक के रूप में हिन्दुस्तान के सफर पर भी आये थे। हिन्दी के एक ब्लॉग मोहल्ला ने पिछले दिनों जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी के जरिये मुहैया करायी गयी चे की राय को पहली बार आम लोगों तक पहुँचाने का काम किया। इस मुलाकात की जानकारी इस मुल्क के क्रांतिकारियों के पास भी नहीं है।
- चे ने भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की और हिन्दुस्तान के गाँव-शहर देखे। अपनी रिपोर्ट में चे लिखते हैं, 'महात्मा गांधी के गूढ़ व्यक्तित्व के माध्यम से भारत ने अपने सत्याग्रह को जारी रखा और अंतत: अपेक्षित स्वतंत्रता हासिल की। ... वहीं (कलकत्ता में) कृष्ण नाम के एक विद्वान से मुलाकात का मौका मिला। ...उस निष्कपटता और विनयशीलता के साथ उसने हमसे लम्बी बातीचीत, जिसके लिए यह मुल्क जाना जाता है। दुनिया की समूची तकनीकी शक्ति और सामर्थ्य को आण्विक ऊर्जा के शांतिप्रिय उपयोग में लगाने की जरूरत पर जोर देते हुए, उस अंतरराष्ट्रीय बहसों की राजनीति की उसने भरपूर निंदा की जो आण्विक हथियारों की जखीरे बाजी को समर्पित है। भारत में युद्ध शब्द वहाँ के जन-मानस की आत्मा से इतना दूर है कि स्वतंत्रता आंदोलन के तनावपूर्ण दौर में भी वह उसके मन पर नहीं छाया। जनता के असंतोष के बड़े-बड़े शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेजी उपनिवेशवाद को आखिरकार उस देश को हमेशा के लिए छोड़ने को बाध्य कर ही दिया, जिसका शोषण वह पिछले डेढ़ सौ वर्षों से कर रहा था।''
अहिंसा के बारे में यह उस शख्स की टिप्पणी थी, जो खुद सशस्त्र क्रांति और गुरिल्ला युद्ध का माहिर माना जाता है। यह पंक्तियाँ उसके वैज्ञानिक सोच का भी नमूना है। यानी हर जगह के सामाजिक बदलाव के तरीके एक जैसे नहीं होंगे। विचारधारा की मजबूती और स्थानीय हालात के मुताबिक रणनीति की तैयारी ही, कामयाबी की असली वजह होती है। यही चे की विरासत है। चे इस बात के भी प्रतीक हैं कि जो वाकई महान होते हैं, उनका दायरा सिर्फ अपने लोग या देश नहीं होता बल्कि पूरी मानव जाति होती है। इसलिए चे उतने ही हमारे हैं, जितना वे अर्जेंटीना या क्यूबा वालों के।
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टिप्पणियाँ
जनसत्ता में छपे थानवी जी के शोधपरक लेखों की श्रृंखला वाकई एक अमूल्य दस्तावेज है।