मायावती की कहानी मायावती की जुबानी

mayawati वे यहाँ रहने वाली हैं... आप पसंद करे या नापसंद... वे हकीकत हैं... देश की पहली दलित मुख्यमंत्री हैं... पहली महिला मुख्यमंत्री हैं, जो चार बार इस पद तक पहुँची... शायद पहली दलित और दूसरी महिला हों, जो देश की बागडोर भी सम्हाल लें। जी हाँ, बात उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुशी मायावती की हो रही है... पिछले दिनों अंग्रेजी की अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘न्यूजवीक’ ने उन्हें विपरीत हालात में शिखर तक पहुँचने वाली योग्य महिलाओं की वैश्विक सूची में शुमार किया है। पत्रिका ने बहिन जी की कहानी, उन्हीं की जुबानी छापी है। हम ‘ढाई आखर’ के पाठकों के लिए इसे न्यूजवीक से अनुवाद कर इसे साभार यहाँ पेश कर रहे हैं।

मैं यहां तक कैसे पहुँची

मैं दिल्ली में रहने वाले एक दलित परिवार में पैदा हुई। आठ भाई-बहनों के साथ एक घनी आबादी और भीड़-भाड़ वाले मोहल्ले में पली बढ़ी। मेरे पिता क्लर्क थे और निहायत ही कम  वेतन पाते थे। मेरी अनपढ़ माँ,  परिवार को चलाने के लिए कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती थीं। अक्सर हम अपनी छुट्‌िटयाँ उत्तर प्रदेश की अपने पुश्तैनी गाँव में बिताया करते थे। इन्हीं यात्राओं के दौरान मैं भारत के दलितों के जबरदस्त शोषण-उत्पीड़न से रू-ब-रू हुई। जब मैं आठवीं क्लास में थी, मैंने ध्यान देना शुरू किया कि हमारे रिश्तेदारों की झोपड़ियाँ गाँव में सबसे किनारे और बिना किसी सुविधा वाले इलाके में हैं। इसके उलट ब्राह्माणों और ऊँची जातियों के पास बेहतरीन घर और सबसे अच्छी जमीनें थीं।
मैं मन ही मन सोचती, यह नाकाबिले बर्दाश्त नाइंसाफी है। मैं जानती थी कि मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। लेकिन एक गुमनाम शहर में मुझे इस भयानक विभेद का वैसा सामना नहीं करना पड़ता था जैसा कि गरीब और अनपढ़ गाँव वालों को करना पड़ता था। मेरा दिल तकलीफ से कराह उठता और मैं अपने बाबू जी से पूछा करती, कि आखिर मैं इनकी मदद के लिए क्या कर सकती हूँ। बाबू जी ने मुझ से कहा कि बेहतर तालीम हासिल किये बगैर मैं अपने लोगों की मदद करने लायक नहीं बन पाऊँगी।
तब खुद की तालीम मेरी पहली प्राथमिकता बन गई। आज भी कमजोर तबके की पढ़ाई मेरी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर है। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की और शिक्षक बन गई। उस वक्त मैं जबरदस्त जोश और उत्साह से लबरेज थी। दिन में मैं पढ़ाया करती और शाम को कानून की पढ़ाई करती। जल्द ही मैं कानून की डिग्री हासिल करने में कामयाब हुई। गरीबों के लिए कुछ कर सकूँ, इसलिए मैं सिविल सेवा की प्रवेश परीक्षा में शामिल होने के लिए तैयारियों में जुट गई।
इसी दौरान कांशीराम नाम के एक सम्मानित नेता ने दलित और धार्मिक अल्पसंख्यक सरकारी कर्मचारियों के लिए एक संगठन बनाया। वे बहुत अच्छी तरह समझते थे कि दलितों को उन अधिकारों के बारे में जरूर जानना चाहिए जो भारतीय संविधान ने उन्हें दिये हैं। मैं पहले से ही गरीब दलितों को शिक्षित करने के लिए बस्तियों में काम कर रही थी। कांशीराम ने मुझे कुछ मीटिंगों में बोलते हुए सुना और शायद मेरी बातों ने उन्हें मुतास्सिर भी किया।
मेरे माँ-बाबूजी का बड़ा ख्वाब था। वे मुझे एक बड़े सरकारी अफसर के रूप में देखने के ख्वाहिशमंद थे। लेकिन कांशीराम ने उनसे कहा कि उनकी बेटी में लीडर बनने की खासियत है। उन्हें अपनी बेटी को सियासत में जाने की इजाजत देनी चाहिए और एक दिन ऐसा आयेगा जब बड़े-बड़े सरकारी अफसर उनकी बेटी के हुक्म पर चलेंगे।
यही दौर है, जब मुझे एक बड़ा फैसला लेना पड़ा। सन्‌ 1984 में, मैं पूरावक्ती तौर पर सियासत में कूद पड़ी। कांशीराम ने, जो उस वक्त नई-नई बनी बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा के नेता थे, मुझे अपनी शागिर्दी में ले लिया। मेरे माँ-बाबूजी डरे हुए थे। मेरी जान को खतरा था। हम सदियों पुरानी उस जड़ सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था को हिलाने में लगे थे, जिसने कुछ लोगों को तो मालामाल किया और बड़ी आबादी को सर्वहारा बना दिया।
उन मुश्किल भरे दिनों में दलितों के साथ होने वाले बुरे बर्ताव ने मुझे फौलादी बना दिया। मैं जानती थी कि इस हालात में बदलाव लाने के लिए हमें सामाजिक क्रांति शुरू करनी पड़ेगी- हमें समाज के हाशिये पर डाल दिये लोगों को संगठित करना पड़ेगा ताकि वे खड़े होकर अपना हक माँग सके।
एकल महिला और दलित होने के नाते मैंने लाँछन सुने, दुत्कार, बेइज्जती सही और यहाँ तक कि सीधा हमला भी झेला। कई दूसरे राजनेताओं की तरह मुझे राजनीति विरासत में नहीं मिली। राजनीति में एक एक इंच जगह पाने के लिए मुझे काफी जद्दोजहद करनी पड़ी तब जाकर मैं आज यहाँ तक पहुँच पाईं हूँ।
शुरुआत में दलितों को संगठित करने के लिए आक्रामक तेवर अपनाना हमारी जरूरत थी। ऊँची जातियों के वर्चस्व वाली राजनीतिक पार्टियाँ दलितों के जन उभार से बेचैन थीं। उनके विरोध ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में मेरे पिछले सभी कार्यकाल को काफी छोटा बना दिया। अब यह साफ हो गया था कि हमें अपना जनाधार व्यापक बनाना पड़ेगा।
इसीलिए हमने गाँव के स्तर पर सभी गरीबों की, चाहे वो किसी जाति या मजहब के हों, भाईचारा बैठक करनी शुरू की। हमारी इन कोशिशों पर झूठे इलजाम लगाये गये, हमले हुए, मुकदमेबाजी की गयी ... पर हम जद़दोजहद करते रहे और इस साल मई में हुए चुनाव में कामयाबी हमारे सर आयी।
पिछले सत्रह सालों में पहली बार उत्तर प्रदेश में एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार बनी है और इस सरकार का नेतृत्व एक दलित के जिम्मे है। अब हमारा मकसद है कि जीत के इस फार्मूले को दूसरे राज्यों में भी कामयाब बनाया जाये और दिल्ली की सत्ता पाने के लिए बड़े संघर्ष की तैयारी की जाये।

टिप्पणियाँ

Dr Prabhat Tandon ने कहा…
शुक्रिया नासिर भाई , इस लेख को हिन्दी मे पढवाने के लिये ! वैसे राजनेताओं के चरित्र को समझना बडी ही टेढी खीर है लेकिन फ़िर भी इससे कोई इन्कार नही कर सकता कि मायावती का बुलंदियों को छूना उनकी मेहनत को दर्शाता है।
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
भले ही मायावती विचारधारा के नाम पर अम्बेडकर पार्क में करोणों रूपयों का अपव्यय कर रही हों, भले ही वह विचारधारा के प्रचार प्रसार के लिए धडाधड सरकारी जमीन को अपने कब्जे में ले रही हों, पर व्यक्तित्व के नजरिए से वे काबिले तारीफ हैं। उन्होंने जो उपलब्धियां अर्जित की हैं, वह किसी करिश्मे से कम नहीं है।
Unknown ने कहा…
namaskaar
maayaavatii ji ki mamimaa nihsandeh pprashashniiya hai kintu inke kaal men bhrshtaachaar badhataa jaa rahaa hai.
vaastav men daliton kaa kalyaan padhaaii se hii hoga to bahan ji uttar pradesh men itene rojgaar parak uchch shikshaa kii vyvasthaa kar den ki kisii bhii vyakti ko pareshaanii na ho.
vyakti kii jaati se adhik paisaa dhan mahatvapurna hai.
aasha hai uttar pradesh men maavatii ji shikshaa mandiro ka nirmaan vikaas khand star par kar dengi sabakaa kalyaan hogaa

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