जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
हिन्दुस्तान की गंगा जमनी तहजीब का अगर कोई सबसे मजबूत वाहक है, तो वह हैं नजीर अकबराबादी। नजीर एक शायर नहीं, बल्कि परम्परा हैं। जो इस बात की मजबूत दलील पेश करते हैं कि इस मुल्क में रहने वाले लोगों के मजहब भले ही अलग-अलग हों, उनकी तहजीब की जड़ एक है। उस जड़ को बिना 'जड़' बनाए आगे बढ़ाते रहना ही, हिन्दुस्तान की असली परम्परा है। आज इसी मिली-जुली संस्कृति पर कई ओर से हमला हो रहा है। एक खास विचारधार इस बात पर यकीन करती है कि इस मुल्क में संस्कृति और धर्म के आधार पर मेलजोल मुमकिन नहीं है। इसके लिए वे नफ़रत और हिंसा फैलाने में यकीन रखते हैं। हमारे आस-पास नफ़रत फैलाने वाले ऐसे लोगों को पहचानना मुश्किल नहीं है।
ऐसे में होली के मौके पर नजीर को याद करना जरूरी है। होली पर जितना नजीर ने लिखा है, उतना शायद ही किसी और ने लिखा हो। यह बात हर साल इसलिए याद दिलाने की जरूरत है ताकि कुछ लोग जो भारतीय संस्कृति के एकमात्र दावेदार होने की घोषणा करते हैं, नजीर की शायरी में अपना असली चेहरा देखें। नजीर की ढेर सारी होली कविताओं में से दो की चंद लाइनें आपके सामने पेश है।
होली मुबारक!!!!!!
होली- 1
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।
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जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
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होली- 2
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीशए (सागर) जाम (शराब का प्याला) छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
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गुलज़ार (बाग़) खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
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ऐसे में होली के मौके पर नजीर को याद करना जरूरी है। होली पर जितना नजीर ने लिखा है, उतना शायद ही किसी और ने लिखा हो। यह बात हर साल इसलिए याद दिलाने की जरूरत है ताकि कुछ लोग जो भारतीय संस्कृति के एकमात्र दावेदार होने की घोषणा करते हैं, नजीर की शायरी में अपना असली चेहरा देखें। नजीर की ढेर सारी होली कविताओं में से दो की चंद लाइनें आपके सामने पेश है।
होली मुबारक!!!!!!
होली- 1
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।
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जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
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होली- 2
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़म शीशए (सागर) जाम (शराब का प्याला) छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
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गुलज़ार (बाग़) खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
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टिप्पणियाँ
ये तो मेरी पसंददीदा रचना है
वैसे होली की ढेर सारी शुभकामनाऐं..