दोस्त, साँस की डोर क़ायम है
हम ढेर सारे मिथकों और भ्रांतियों पर यक़ीन करते हैं और उसी में जीते हैं। समाज के बारे में, समुदायों और जातियों के बारे में... हम उसे सच की कसौटी पर कसना भी नहीं चाहते। वही भ्रांति और मिथक समुदायों और जातियों के बीच दूरी की वजह भी बनता है।
मेरे ब्लॉग के एक पोस्ट '... तो टीवी देखना इस्लाम के खिलाफ़ है ' पर पाठक साथी ab inconvenienti ने एक टिप्पणी दर्ज की। टिप्पणी भ्रांतियों और मिथकों के तह में लिपटे मुसलमानों के बारे में है। ab inconvenienti कहते हैं, ' यही बात आप किसी मुस्लिम आबादी के सामने कह कर देखें, मौलवी-मौलानाओं के सामने... देखते हैं फ़िर कितनी देर आप अपनी साँसों की डोर को कायम रख पाते हैं?'
ब्लॉगिंग की दुनिया में मुझे लगातार हौसला देने वाली Mired Mirage की, जिन्हें हम घुघूती बासूती के रूप में जानते हैं, इस पोस्ट पर राय है कि 'आपने इस विषय पर लिखा, बहुत अच्छा किया। ऐसे ही प्रयासों की आवश्यकता है। अच्छा बुरा हर जगह होता है। हमें उसमें से अच्छा चुनना सीखने की आवश्यकता है।'
पर इस पूरे मामले को एक अलग नज़रिये से देखने वाले भी कई हैं। और जैसा की लगता है, शायद ये वही हैं, जिनके बीच जाने की बात ऊपर वाले दोस्त कर रहे हैं। हालाँकि मुझे पक्का यक़ीन नहीं है।
महामंत्री-तस्लीम की टिप्पणी है, 'इस तरह के बेसिर पैर के फतवों के कारण ही इस्लाम के प्रति लोगों में गलत धारणा बैठी है।'
तो Anwar Qureshi पूरे विमर्श को एक नया आयाम देते हैं- 'आप ने बहुत अच्छा लिखा है, अगर हम बुरा ना देखना चाहें तो ये हमें उसके लिए प्रेरित नहीं करती हैं। लेकिन हमें विवादों से दूर होकर इस्लाम और मुसलमानों के हक की बातें सोचनी चाहिए और उनके पिछडे़पन को दूर करने की कोशिश करना चाहिए...'
धर्म के अलमबरदारों के बारे में लोगों की ही क्या राय है, यह Farid Khan से समझा जा सकता है। फरीद खान का कहना है, '... जिस अँधेरे के ख़िलाफ़ इस्लाम का आविर्भाव हुआ था, मौलवी-मुल्ला उसी अँधेरे में वापस जा कर मुसलमानों को गुमराह कर रहे हैं। असल में ये मुल्ला ही इस्लाम विरोधी हैं, आज के युग में।' इससे ज्यादा आलोचनात्मक टिप्पणी क्या हो सकती है।
यही नहीं, वह एक हवाला पेश करते हैं, जिसके मुताबिक 'अल बरूनी ने एक जगह लिखा है कि इस्लाम विज्ञान के क्षेत्र में दख़ल नहीं देता। इसका आधार क़ुरान में बतायी गईं वे बातें जिसमें अल्लाह ने बार-हा कहा कि हमने बहुत सारी निशानियाँ इस दुनिया में छोड़ी हैं, जिसे समझो।'
वेब साइट TwoCircles.net से आई राय भी इसी बात को और तर्क मुहैया कराती है। इनका कहना है, ' टेक्नॉलॉजी ख़ुद में बुरी नहीं है। कोई ईजाद ख़ुद में अच्छी या बुरी नहीं होती लेकिन ये तो निर्भर करता है कि हम इसका इस्तेमाल कैसे करते हैं?
चाक़ू का इस्तेमाल आप सब्जी काटकर अपना पेट भरने के लिए कर सकते हैं या फिर आप उसका इस्तेमाल किसी को जख़्मी करने के लिए करें। लिहाज़ा टीवी का इस्तेमाल अगर इल्म और तरबियत के लिए किया जाए तो यह बहुत अच्छी बात होगी।'
टू सर्किल दूसरा पहलू भी सामने लाती हैं, 'हाँ कुछ उलमा तस्वीरों को बहुत बुरा मानते हैं लेकिन इस सोच में काफी बदलाव आया है और अब तो नदवा और देवबंद को भी टीवी चैनल खोलने की रिक्वेस्ट की जा रही है। नासिरूद़दीन साहब ने काफी अच्दा लिखा है कि मीडिया डेमोक्रेसी का ऑक्सीजन है।'
यह एक ऐसी बात है जो विमर्श का जमीन मुहैया कराती है न कि विवाद का। आगे टू सर्किल का कहना है, '...और मुसलमानों की एक अच्छी ख़ासी आबादी टीवी के ज़रिए मुल्क़ और दुनिया का हाला जान पाती है। इसलिए टीवी के खि़लाफ मुहिम मुसलमानों को सामाजी तौर पर कमज़ोर करेगी।' फिर एक आँकड़ा पेश करते हैं कि मुसलमानों के पास ख़बर पाने का ज़रिया क्या है-
How do Muslims get news:
Oral sources: 50.1% rural, 36.1% urban
TV: 13.2% rural, 42.9% urban
Radio: 20% rural, 19% urban
Newspapers: 9%rural, 20.2% urban
यह बात सबसे अहम है। और इनमें से किसी ने साँस की डोर थामने की बात नहीं की। बल्कि ये जाहिलियत के अँधेरे से बाहर निकलने की कोशिश में लगे हैं। इसलिए जब हम समाज को देखें तो बेहतर हो कि 'हम' और 'तुम' में बाँट कर न देखें। क्योंकि जो 'तुम' में है, वह 'हम' में भी होगा या हो सकता है।
टिप्पणियाँ
पढ़े लिखे मुसलमान तो उदार होते हैं और वे मुल्लों के बहकावे में नहीं आते, पर पिछडे लोग जो पश्चिमी शिक्षा को गैर मज़हबी मानते हैं?
पर पता नहीं क्यों, कुछ इंजिनियर डॉक्टर नौजवान भी पश्चिम के खिलाफ जेहाद की तरफ़ आकर्षित होते जा रहे हैं?
सर सैय्यद को विरोध का सामना करना पड़ा था पर वह डेढ़ सौ साल पुरानी बात है।
http://nirmal-anand.blogspot.com/2007/12/blog-post_03.html
उपर दिये गए पते पर इन पंक्तियों के लेखक ने रुश्दी और तस्लीमा के संदर्भ में एक लेख लिखा हुआ है, जिसे ख़ास कर कई मदरसों में भी भेजा था, और वहाँ के उस्ताद और तालिब-इल्म इससे सहमत भी हुए।
पर यह लेख सिर्फ़ मुस्लिम कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़ नहीं था बल्कि सिर्फ़ धार्मिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ था, जो हमारे निकट के आरएसएस कई भाईयों को पसंद नहीं आई।
समस्या यह कि मुस्लमानों को 'एक स्पेश्ल केस' मानकर समझा जाता है। इसलिए उनके पिछड़ेपन पर चिंता करने वाले को भी उसी खाँचे में रख दिया जाता है, और उस चिंता के पीछे छिपी देश के समुचित विकास की चिंता को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है। उस चिंता के पीछे छिपे उस आवाहन को अनसुना कर दिया जाता है कि "आओ भारतवासियों , भारत का एक वर्ग पिछड़ेपन से जूझ रहा है, भारत के विकास के लिए उस पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश करें।"