... तो टीवी देखना इस्लाम के खिलाफ़ है! (Ooh...Watching TV is against the Islam!)
सनिचर 12 जुलाई की सुबह मेरठ के लावड़ कस्बे के पास दौराला रोड पर लोगों का हुजूम लगा था। जिसे देखिए वही अपनी गाड़ी लगाकर तमाशा देख रहा था। समझना चाह रहा था कि आखिर यह हुआ क्या। क्या हो रहा है। ... लोग अपने घरों से टीवी उठाकर ला रहे हैं और सड़क पर पटक रहे हैं। कोई वीसीडी प्लेयर लिए चला आ रहा है तो किसी के हाथ में टेपरिकार्डर। ... टीवी, टेपरिकार्डर, सीडी और सीडी प्लेयर ... जिस घर में जो था ... सब तोड़ दिए गए। कहीं किसी सामान की साँस न चलती रहे, इसलिए इतिमिनान के लिए मलबे में आग लगा दी गई। राख... सब कुछ खाक।
पर यह हुआ क्यों।
इन सबकी अगुआई कर रहे नेता जी कहना था कि 'ये सारी चीज़ें अश्लीलता और जुर्म को बढ़ावा देने का सबब हैं। नौजवान अपनी जिम्मेदारियों से दूर हो रहे हैं।' और तो और उन्होंने एक और लुकमा जोड़ दिया... 'यह सारी चीज़ें इस्लाम विरोधी हैं। ऐसा इस्लाम के विद्वानों ने बताया है। मुसलमानों के लिए इन्हें देखना हराम है। इनकी अपील है कि मुसलमान टीवी... सीडी प्लेयर इस्तेमाल न करें और कर रहे हैं तो इनकी तरह घर से इन्हें बेदख़ल कर दे।'
इस्लाम के पहले के युग को जाहिलियत का युग कहा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि इस्लाम ने अपने समय की ढेर सारी कुरीतियों को कुसंस्कार को दूर करने और कई पर पाबंदी लगाने का काम किया। जैसे बेटी को मारने की प्रथा पर पाबंदी... औरतों को विरासत में हक दिलाना... वगैरह वगैरह। इस मामले में यह मज़हब यथास्थिति का हिमायती नहीं रहा और अपने समय से आगे रहा। तो अब ज़रा सोचिए, चौदह सौ साल पहले बहुत कुछ ऐसा नहीं था, जो आज है। तो इनके होने और इस्तेमाल के बारे में मज़हब का नज़रिया क्या होगा या होना चाहिए, यह सबसे अहम सवाल है।
क्या जो भी चीज आधुनिक युग की देन है, उन सबको नकारा जाएगा। तब तो जंगल में पत्ते बटोरकर, पत्ते खाकर, पत्ते पहनकर, पत्तों पर सोकर ही जि़दगी बसर करनी चाहिए। यह मान लेना चाहिए कि इस्लाम की घड़ी की सुई 14 सौ साल पहले ही अटकी हुई है। फिर क्या टीवी और टेप रिकार्डर के साथ ही हर चीज, जिसका ईजाद इस्लाम के आने के बाद हुआ, उसके इस्तेमाल पर पाबंदी लगेगी। यह तो इस्लाम की सीख नहीं बताती है।
असल में दिक्कत यह है कि जाहिलियत का युग, इस्लाम के आने के बाद ख़त्म नहीं हुआ। ऐसे मामलों को देखकर तो यही लगता है। जाहिलियत का अँधेरा अब भी बरकरार है। ऐसे लोग और ऐसी घटनाओं, कुछ और करती हों या न करती हों, इस्लाम का मज़ाक जरूर बनाती हैं।
समझने की बात है कोई तकनीक या नया अविष्कार अपने आप में न तो अश्लील होता है और न मज़हब विरोधी। उसका इस्तेमाल कौन, किस मक़सद से कर रहा है, यह सबसे अहम है। अगर सास बहू के सीरियल हैं तो क्यू टीवी भी है। अगर दस बुरी फिल्में हैं तो कई अच्छी फिल्म भी। क्यों नहीं सबसे पहले क्यू टीवी और अल जज़ीरा चैनल बंद करवा दिए जाते हैं। हुजूर, ये सारे माध्यम सूचना और जानकारी पहुँचाने के औजार हैं। आज के वक्त में इनकी वैसी ही जरूरत है, जैसे दाना-पानी की। यह ऑक्सीजन का काम करते हैं। जम्हूरियत की जरूरत हैं।
इसलिए, नौजवान अश्लीलता के आगोश में डूबेगा या नहीं, जुर्म के गलियारे में फँसेगा या नहीं... यह तो बाद की बात है, पर इतना तो तय है कि वह दुनिया के बेशुमार इल्म और जानकारी की दौलत से महरूम जरूर रह जाएगा। और आज के वक्त में यही जाहिलियत है। इसका अँधेरा कैसे मिटेगा।
टिप्पणियाँ
घुघूती बासूती
अल बैरूनी ने एक जगह लिखा है कि इस्लाम विज्ञान के क्षेत्र में दख़ल नहीं देता। इसका आधार क़ुरान में बतायी गईं वे बातें जिसमें अल्लाह ने बार-हा कहा कि हमने बहुत सारी निशानियाँ इस दुनिया में छोड़ी हैं, जिसे समझो।
chaaqu aap sabzi kaat kar apna peT bharne ke liye kar sakte haiN ya phir aap uss ka istemaal kisi ko zakhmi karne ke liye kareN.
lihaza, TV ka istemaal agar ilm or tarbiyat ke liye kiya jaaye to ye to bahut achhi baat hogi.
haaN kuchh ulema tasveeroN ko bahut bura maante haiN lekin iss soch meN kaafi badlaaw aaya hai aur ab to nadva aur deoband ko bhi TV channel kholne ki request ki jaa rahi hai.
nasiruddin sahib ne kaafi achha likha hai ke media democracy ka oxygen hai.
aur musalmaanoN ki aik achhi khaasi aabadi TV ke zariye mulk aur duniya ka haal jaan paati hai, iss liye TV ke khilaaf muhim, musalmaanoN ko samaaji taur pe kamzor karegi.
How do Muslims get news:
Oral sources: 50.1% rural, 36.1% urban
TV: 13.2% rural, 42.9% urban
Radio: 20% rural, 19% urban
Newspapers: 9%rural, 20.2% urban
[MG 1-15 Feb 2006]