आंख बंद! दिमाग बंद!! सवाल कोई नहीं!!!

इस मुल्‍क के एक बड़े हिस्‍से के लिए जो भी अमरीकी है, वह श्रेष्‍ठ है। बोलना- चालना, उठना- बैठना, पहनना- ओढ़ना कहाँ तक गिनती गिनी जाए। यहाँ सिलसिला अब पत्रकारिता तक पहुँच गया है। ऐसा नहीं है कि पहले नहीं था, पहले भी था लेकिन वही मुख्‍य स्‍वर नहीं था। आज अमरीकी पत्रकारिता की शैली आदर्श है। आज वही श्रेष्‍ठ है। आज वही लीड है।

जब अमरीका ने अफगानिस्‍तान और फिर इराक में हमले किए तो एक  शब्‍द बड़े जोरशोर से सुनने को मिला। इस शब्‍द के बारे में मैंने मॉस कॉम में कुछ ऐसा नहीं पढ़ा था, जो प्रोफेशन में उतारने लायक हो।  खैर, यह शब्‍द है- इम्‍बेडेड जर्नलिस्‍ट। वैसे इस शब्‍द का रिश्‍ता युद्ध क्षेत्र से जुड़ी पत्रकारिता से हैं और दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान भी यह शब्‍द मिलता है। लेकिन इस शब्‍द को इक्‍कीसवीं सदी में जो शोहरत मिली वैसी पहले कभी नहीं थी। इस शब्‍द को नया आयाम मिला। पत्रकारिता को एक नया अर्थ।

अफगानिस्‍तान और इराक 'आतंक के खिलाफ जंग'  (यह शब्‍द मेरे नहीं हैं) में ये वे पत्रकार थे, जो अमरीकी सेना की छाँव में चल रहे थे। उनकी बताई स्‍टोरी पर ही काम कर रहे थे। उनके विश्‍वसनीय... उच्‍चपदस्‍थ... खुफिया... सूत्र... नाम न छापने की शर्त लगाने वाले सूत्र सब अमरीकी राज्‍य के खबरची थे। वे वही जानकारी देते थे, जो उन्‍हें छपवाना या प्रसारित करवाना होता था। कहाँ तक कितनी दूर तक कोई पत्रकार खोज खबर लेगा, यह भी अमरीका ही तय करता। इसमें इस मुल्‍क के कुछ नामचीन पत्रकार भी थे।

यह सिर्फ 'युद्ध' क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहा। इस पत्रकारिता ने खास तरह के पत्रकारों की ब्रीड ही तैयार कर दी। यानी 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' में वही नजरिया, वहीं बातें ज्‍यादातर छपीं/ छप रही हैं जो अमरीकी सरकार चाहती थी/ है। यह सिलसिला भी अमरीका तक सीमित नहीं था बल्कि उसके हिमायती जितने भी मुल्‍क हैं, वहाँ यही होने लगा। आज भी यही हाल है। इसमें राबर्ट फिस्‍क जैसे इक्‍का-दुक्‍का पत्रकार ही थे, जिन्‍होंने इम्‍बेडेड का तमगा स्‍वीकार नहीं किया।

अपने मुल्‍क में भी यही हो रहा है। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में सच वही है, जो खुफिया अफसर/पुलिस फीड कर रही है। विश्‍वसनीय... उच्‍चपदस्‍थ... खुफिया... सूत्र... नाम न छापने की शर्त लगाने वाले सूत्र सब पुलिस के खबरची हैं। कहाँ, तो पुलिस से सामान्‍य जानकारी निकालने में लोगों और पत्रकारों के तलवे घिस जाते हैं, और कहाँ आतंकियों से जुड़ी हर छोटी बड़ी जानकारी बड़ी आसानी से हर छोटे- बड़े पत्रकार को सूत्रों के जरिए मुहैया है। हर की खबर ऐसी जैसे सब कुछ उसी पत्रकार के सामने हो रहा है। हर अखबार और टीवी चैनल के पास हर रोज अलग-अलग एंगिल से खास खबर है। पुलिस के 'सेलेक्टिव लीक' को ब्रेकिंग न्‍यूज बनाने से  भी कोई नहीं हिचक रहा। यहाँ भी इक्‍का-दुक्‍का को छोड़ दें तो कोई अपनी तफ्तीश करता नजर नहीं आता। ऐसे अखबार और पत्रकार उँगली पर गिने जा सकते हैं।

(अब पत्रकारों की एक नई और स्‍थाई कैटेगरी ही हो गई यानी इम्‍बेडेड। इन्‍हें देखकर यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि पत्रकारों की ऐसी टोली जो राज्‍य की हर कार्रवाई के साथ शीश नवाए खड़ी हो। हमारे मुल्‍क के संदर्भ में एक और अर्थ भी हो सकता है- ऐसे पत्रकारों की टोली जो पार्टियों के साथ गुंथे हों। उनके लिए खबर वही, जो पार्टी बताए और पार्टी लाइन के मुताबिक हो।)

और सूचना के ऐसे हमलों के जरिए एक कंडिशनड दिमाग बनाया जा रहा है। जहाँ ज्‍यादातर लोग हर बात पर आंख बंद करके यकीन कर रहे हैं। सवाल कोई नहीं खड़े कर रहा। हमें बताया गया था/ जाता है, पत्रकारिता का मूल मंत्र है- किसी बात को आंख बंद करके मत मानो... सवाल उठाने की सलाहियत पैदा करो-  लेकिन आतंक के खिलाफ जंग में हम में से ज्‍यादातर लोगों ने इस मंत्र को ताक पर रख दिया है। पिछले कुछ दिनों के शीर्षक देखिए, शब्‍दों के इस्‍तेमाल देखिए- इस बात का अंदाजा खुद लग जाएगा। और विडम्‍बना यह है कि जो लोग इस ओर, इशारा करने की कोशिश कर रहे हैं, वे ही शक के दायरे में हैं।

टिप्पणियाँ

kashif ने कहा…
A day before his retirement, Central Bureau of Investigation (CBI) Director Vijay Shankar offered this professional advice to reporters:

“I know journalists are under pressure but I want you not to be friends with officers. Instead, be as critical of CBI as you can.”

this should be the case while reporting any law enforcement bulletins. Because of lack of questions many innocent lives have been tarnished for ever.

Journalists are important part of democracy and if they do not do their job properly, we all lose.
Farid Khan ने कहा…
पूँजीवादी लोकतंत्र तो तानाशाही का आवरण है.....
पत्रकारिता हो या इतिहास लेखन , यह हमेशा प्रायोजित ही रहा है....। जिसकी विजय होगी उसकी पत्रकारिता होगी और उसका ही इतिहास...।

प्रतिभा के स्थान पर नाम, रूप और धर्म से इसीलिए पहचान करवयी जाती है ताकि किसी को आसानी से लक्ष्य किया जा सके। और यह प्रशिक्षण अनपढ़ लोगों से ज़्यादा पढ़े लिखे लोगों को दी जाती ताकि वे समाज में वैसा ही परिवेश निर्माण करें जैसा उनके मालिक कहते हैं। पत्रकार इससे अलग नहीं हैं।

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