सवाल उठाने की इजाजत चाहता हूँ
सवाल उठाने पर सवाल
पृथ्वी गोल है। सूरज पूरब से उगता है। गंगा नदी है। हिमालय पर्वत राज है- अगर इन प्राकृतिक सचाइयों को छोड़ दें तो सच वही नहीं होता जो अक्सर बताया या दिखाया जाता है। सच के भी कई रूप होते हैं। सच को हम अपने मुताबिक स्वीकार या इनकार करते हैं।
पिछले कुछ दिनों में सच की ढेर सारी शक्लें सामने आ रही हैं। ये शक्लें वैसी हैं, जिन्हें हम अपने मुताबिक ढालने की कोशिश कर रहे हैं। दिल्ली में विस्फोट और कई बेगुनाहों की हत्या। विस्फोट करने वाले कथित लोगों का बटला हाउस में इनकाउंटर। फिर तफ्तीश का ब्रेकिंग न्यूज...
मैं मॉस कॉम का विद्यार्थी रहा हूँ। मॉस कॉम सिद्धांत और रिसर्च में मेरी दिलचस्पी है। मॉस कॉम का एक मूल और सामान्य सा सिद्धांत है जो सच की सचाई को बताती है। इसके मुताबिक सच का चेहरा कलम को पकड़ने वाले हाथ, टाइपराइटर या कम्प्यूटर पर चलने वाली उंगलियाँ, कैमरे के पीछे लगी आँखें और सबसे बढ़कर 'गेटकीपर' तय करते हैं। ( गेटकीपर यानी खबरें जिन आँखों से गुजरती और खबरों के होने न होने पर जिनका नियंत्रण होता है।) सच वही होता है, जो ये सभी बताते, लिखते, दिखाते या छापते हैं।
लोक जीवन में एक ही घटना के कई आख्यान हमें मिल जाएँगे। इसीलिए विद्वानों ने इतिहास को देखने का भी एक सब अलटर्न तरीका निकाला। यानी घटनाओं का वैकल्पिक आख्यान जो कथित रूप से आधिकारिक ब्योरे से इतर है। खबरों का भी ऐसा ही आख्यान है। जो दिखता है और जो छपता है, कई बार सच उससे इतर भी होता है। अक्सर एक ही खबर, दो अखबारों या चैनलों में बिल्कुल अलग तरीके से सामने आती है। ... लेकिन आतंकवाद एक ऐसी खबर है, जिसने पहली बार एक कॉमन दिमाग, कॉमन शत्रु, कॉमन जबान, कॉमन टारगेट बनाने में कामयाबी हासिल की है। यहाँ सवाल उठाने की इजाजत नहीं है। सवाल उठाने वाले दिमाग 'शत्रु' की श्रेणी में हैं। आँख बंद कर मान लेने वाला देशभक्त है। सवाल की गुंजाइश चाहने वाला 'आतंकियों का दोस्त'।
लेकिन सवाल तो उठेंगे क्योंकि सब कुछ ठीक नहीं है।
कुछ उदाहरण देखें-
(1) बम धमाकों की जितनी भी निंदा की जाए कम है। लेकिन बम धमाकों को सुलझाया कैसे गया। एक इनकाउंटर हुआ। दो कथित आरोपित मारे गए और एक पुलिस अधिकारी को जान गँवानी पड़ी। एक आरोपित पकड़ा गया, दो लोग भाग गए। ... कई दिनों तक इसी से जुड़ी खबरें मीडिया की सुख्रियाँ रहीं। न कोई शक, न कोई सवाल।... कुछ लोगों ने हिम्मत जुटाकर कुछ सवाल खड़े किए तो वे 'देशद्रोही' की श्रेणी में आ गए। यानी सच वही, जो बताया जाए और उस पर आँख बंद कर विश्वास कर लिया जाए। ... जब दिमाग का इस्तेमाल ही नहीं है तो फिर मनुष्य के रूप में जन्म क्यों। शायद इस पर भी सवाल नहीं है।
कुछ रिपोर्ट: माने या न माने पर सवाल की इजाजत तो दें
Fact finding team finds loopholes in Delhi encounter
Civil society team questions Batla House encounter
Batla House residents speak out
(2) दिल्ली पुलिस के मामला सुलझाने से पहले, यूपी और अहमदाबाद की पुलिस बम धमाकों को सुलझाने का दावा कर चुकी थी। ... यह तो सहज बुद्धि का मामला है कि जानकारी ली जाए कि अगर दिल्ली में पकड़े गए नौजवानों ने ही यूपी की कचहरियों, वाराणसी के संकटमोचन मंदिर, गोरखपुर के साथ ही साथ गुजरात और राजस्थान में धमाके किए तो जिन्हें पहले पकड़ा गया, वे कौन हैं।
(3) अब देखिए हमारा जीके कितना बढ़ाया जा रहा है। पहले पता चलता है कि यूपी में धमाके हूजी ने कराए। हूजी कौन है, क्या है किसी को पता नहीं। किसी ने बताया लादेन की तरह बड़ा शातिर दिमाग है। पाकिस्तान में बैठा है। तलाश किया गया तो पता चला यह एक संगठन का नाम है। जानकारी तो बढ़ी। खैर। इसके बाद जयपुर में भी हूजी था। अहमदाबाद में 'सिमी' हो गया। फिर गाड़ी घूमी, अब जयपुर में भी सिमी। फिर दिल्ली ने दावा किया, सब इंडियन मुजाहिदीन ने कराए। जाहिर है, राजधानी एक्स की रफ्तार सबसे अच्छी है तो अब सबकी गाड़ी इंडियन मुजाहिदीन की ओर है। और अब सब 'आईएम'। हर रोज ज्ञान बढ़ाता एक नया बम। इस 'सूचना विस्फोट' ने दिमाग के उस तंत्र पर सबसे ज्यादा असर डाला, जो हमें सवाल करने का द्रव देता है और जानवरों से बेहतर बनाता है।
(4) पुलिस के दावों के मुताबिक यूपी, जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली में विस्फोट करने वाले पकड़े गए। अच्छी बात है। गुनाहगारों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। ... लेकिन एक बात आज तक पता नहीं चली... किसी ब्रेकिंग न्यूज में भी नहीं आया... किसी सूत्र ने नहीं बताया और पुलिस की प्रेस कांफ्रेंस में भी सवाल नहीं उठे। आखिर यह धमाके अगर इन्हीं नौजवानों की कारस्तानी है तो इन्होंने यह किया क्यों। ... पैसे की खातिर... सम्मान की खातिर... ऐशो आराम के लिए... आखिर क्यों। चूँकि यह सवाल ही नहीं आया तो जाहिर है जवाब कहाँ तलाशा जाता।
(5) यूपी, जयपुर, अहमदाबाद और दिल्ली से पहले भी शायद कुछ और जगहों पर ब्लास्ट हुए थे। वहाँ भी बेगुनाहों लोगों की जानें गई थीं। जहाँ तक याद पड़ता है, मालेगाँव, हैदराबाद की मक्का मस्जिद, बम्बई में ट्रेनों में और बंगलुरू में भी विस्फोट हुए थे। अगर हाल के सारे धमाके दिल्ली वाले लड़कों ने किए हैं। तो ये सब धमाके किसने कराए। जरा इनके बारे में भी कुछ रोशनी डाली जाती तो कितना अच्छा रहता। पर सवाल...न...न ।
(6) हर साजिश के पर्दाफाश के साथ, एक मास्टरमाइंड पकड़ा जा रहा है। अब तक पता नहीं कितने मास्टरमाइंड पकड़े जा चुके हैं। इतने मास्टरमांइड और इन सबका पता धमाके के बाद चलता है, ऐसा कैसे। यही नहीं एक ही वारदात के कई मास्टरमाइंड। यह भी बड़ी अनोखी चीज है। और अगर मास्टरमाइंड गिरफ्त में हैं, प्रमुख लोग पकड़े जा चुके हैं तो फिर दिल्ली के मेहरौली, गुजरात के साबरकांठा और महाराष्ट्र के मालेगांव में धमाके कौन कर गया। और उसने रात का वक्त क्यों चुना। मेहरौली ब्लास्ट के बाद यह बताने की कोशिश हुई... कि इसमें बंग्लादेशियों का हाथ है। दुश्मन की पहचान इतनी तेज... कि यह नहीं तो वह, वह नहीं तो कोई और। यहाँ भी कोई सवाल नहीं।
(7) कल गुजरात के मदौसा और महाराष्ट्र के मालेगांव में ब्लास्ट के बाद दो चीज बताई गई। एक कि नवरात्र के पहले डराने के लिए यह आतंकी घटना है और दूसरी कि यह मामूली विस्फोट है। ... दो दिन बाद ईद है। रमजान में इफ्तार के बाद लोग बड़ी तादाद में शाम से लेकर देर रात तक खरीदारी करते हैं। यह बात कहाँ लोप हो गई। क्या किसी को ईद की याद भी थी। धमाके जिन इलाकों में हुए, वहाँ कौन रहते हैं। कौन मारे गए या घायल हुए। धमाका लो इंटेंसिटी का था, यह बताते जबान नहीं थक रही थी फिर ये सवाल कैसे छूट गए।
(8) कानपुर, नांदेड़ में बम बनाते मारे गए लोग कौन थे। इनकी तफ्तीश कहाँ तक पहुँची। यहाँ तो कुछ छिपा नहीं था। कितने हिरासत में लिए गए। कितनों के रिश्तेदार पकड़े गए। कितनों के साथी और सहयोगियों को पकड़ा गया। इनका भी कोई मास्टरमाइंड था या नहीं। मुम्बई या थाणे में बम फोड़ने वाले कौन थे। कौन थे, जिनके कमजोर बम बनाने पर ठाकरे साहब नाराज हो गए थे। आज तक कितने खबरिया माध्यम में ये सवाल आए... या ये सवाल उठाया गया कि ये धमाके किसी और संगठन की कार्रवाई भी हो सकती है। क्यों... क्योंकि यकीन है कि 'वे' ऐसा नहीं कर सकते। यह यकीन पुलिस को भी है और खबरिया बंधुओं को भी।
(9) इन्हीं सबके बीच एक और ऑपरेशन चल रहा है। एक महीने से ज्यादा हो गया, उड़ीसा में ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं। गिरजाघरों को नष्ट किया जा रहा है। कइयों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। यह सब, एक स्वामी जी की हत्या के बाद शुरू हुआ। शक नक्सल संगठनों पर था। उन्होंने बाद में हत्या की जिम्मेदारी भी ली। लेकिन हत्या का बहाना बना कर ईसाइयों पर आज तक हमले जारी हैं। कर्नाटक में भी यही हो रहा है। आप खबर पढि़ए, तो आपको पता चलेगा किसी भीड़ या उपद्रवी ने यह किया है। भीड़ का कोई सांगठनिक चेहरा भी है या चेहरा विहीन है। हम उस भीड़ का नाम क्यों नहीं देना चाहते। और सबसे अहम है, यह सब हो क्यों रहा है। जान बख्शने की कीमत, धर्म परिवर्तन ही क्यों है।
(10) इसी बीच एक और सच भी आया। गोधरा कांड का सच। नानावटी आयोग ने जो बताया, उस पर ढेर सारे लोगों का यकीन नहीं है। एक अखबार ने तो यहाँ तक लिख दिया कि पार्ट वन में, पार्ट टू के बारे में फैसला दे दिया गया। एक सच फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी का है तो एक सच बनर्जी समिति का। और इन सबके बीच एक सच है, उन परिवारों का है, जिनके लोग मारे गए और जो मारने के इल्जाम में पकड़े गए हैं। अपना-अपना सच, और सच से जुदा। नानावटी के सच पर सवाल उठेगा या नहीं।
(11) सबसे बड़ा सवाल, कोई भी समुदाय, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अपने अंदर पैठे कट्टरपंथी ताकतों को पहचान रहा है या नहीं। क्या वह ऐसे लोगों पर सवाल उठा रहा है, जो नफरत फैलाने के लिए किसी भी हद तक जाने से परहेज नहीं कर रहे। क्या कहीं से उन लोगों को दरकिनार करने की कोशिश हो रही है, जो दूसरे विश्वास, मजहब, विचार, मत, पंथ, जाति वालों को दुश्मन बनाकर पेश कर रहे हैं। उनके खात्मे में ही, अपनी जिंदगी देख रहे हैं। जो इस कीमत पर जिंदगी बख्श रहे हैं कि आप उन जैसे ही हो जाइए। क्या इस विश्वास पर कहीं सवाल उठाया जा रहा है कि नफरत फैलाने वाला या वाले 'हमारे' बीच के नहीं होते। वे तो 'उनके' बीच में हैं। हमारा न तो धर्म और न ही संस्कृति हिंसा को सहारा देती है। अगर सबका 'हमारा' ऐसा है तो हिंसा आ कहाँ से रही है। कम से कम यही सवाल उठे।
और अंत में, मेरी प्रोफेशनल नैतिकता सवाल उठाने पर टिकी है। क्योंकि जो जवाब निकलेगा, वह सच के काफी करीब होगा। अमृत भी बिना मंथन के कहाँ मिला था। मेरी व्यक्तिगत परवरिश और विचार सवाल उठाने पर जोर देते हैं, इसलिए कृपया मुझे कुछ सवाल उठाने की इजाजत मिलनी चाहिए। मुझे हाँ में हाँ मिलाने की आदत डालने पर मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। हाँ, इन सवालों के एवज मुझसे मेरी देशभक्ति का सर्टिफिकेट भी न माँगा जाए।
क्या इन्हें भी पढ़ने का वक्त निकालेंगे
यह मुल्क हमारा होकर भी हमारा क्यों नहीं लगता
टिप्पणियाँ
http://paramjitbali-ps2b.blogspot.com/2008/09/blog-post_20.html
Rahi baat media me ek jaisi sugandh (ya ki durgandh) wali khabron ki to mujhe lagta hai yeh apni crime beat wali reporting ki bankruptsy jyada hai. Jo police brief / tafteesh k tukdon par lambe arse se pal rahi hai.Usne apni tafteesh, vishleshan, soongh, shak aur sawlon k sare raston par alasya aur mediocrity se upji helplessness ki naagfani bo rakhi hai. Aise me police wale bhi readymade suchna k bhukhe in tukadkhoron ko ab achchi tarah pahchan gaye hain.Unhe pata hai ki in tukadkhoron k saamne kaun se tukde kaise, kab aur kahan hava me uchhalne hain.
Rajneetik baade me bhi kisi sher k uth khade hone ki sambhavna nikat bhavishya me to nahi dikhti.
Badhi hui dhadkano aur paseezi peshanio k beech mera bhi ek sawal hai-kahin mera koi musalman dost bhi to nahi utha liya jayega? Unke mobile me mera number aur dilon me kuch zazbaat pade hain.
सारे हिन्दू संघी-बजरंगी नहीं हैं और न ही सारे मुसलमान आतंकवादी । अच्छे और बुरे लोग हर वर्ग, समुदाय, जाति-समाज में समान रूप से होते हैं । कठिनाई यही है कि भले लोग असंगठित और अपने-अपने कमरों में बन्द हैं जबकि दुर्जन, संगठित हैं और मैदान में निरन्तर सक्रिय हैं । जिस दिन भले लोग कमर कस कर मैदान मे आ जाएंगे और निरन्तर सक्रिय बने रहेंगे उस दिन न तो आपको सवाल पूठने की जरूरत होगी और न ही बेचैन होने की ।
aapka blog serch kar hi liya. filhaal itna hi kah sakta hoon ki bahut hi achha kar rahe hain.