अल्पसंख्यक नहीं रहा मुसलमान!
क्या न्यायपालिका पर टिप्पणी करना अवमानना होता है? जज साहबान, चाहे जो फैसला दें लेकिन उन पर किसी तरह की टिप्पणी क्यों नहीं की जा सकती? हाल में कई फ़ैसले आये जिन पर राय जाहिर करने के दौरान ऐसे सवालों से दो चार होना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर फैसला दिया, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने के बारे में निर्देश दिये तो एक मजिस्ट्रेट ने रिचर्ड गेर के खिलाफ निर्णय दे दिया। इसी के मुद्देनज़र इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर कानून के कुछ माहरीन लोगों की राय के आधार पर यह टिप्पणी लिखी गयी है। ऊहापोह के कारण यह लेख सिर्फ अँग्रेज़ी में पोस्ट हो सका। मोहल्ला में सत्येन्द्र जी की न्यायपालिका पर राय पढ़ने के बाद यह ख्याल आया, क्यों न इस टिप्पणी को हिन्दी में यहाँ जगह दी जाये। चूंकि ऐसे फैसलों के दूरगामी नतीजे होंगे, ऐसे फ़ैसलों को समझने की कोशिश जरूरी है। खासकर वैसी हालत में जब अदालत में पेश मामले का यह मुद्दा नहीं था। इस पर बहस चल रही है, खासकर उत्तर प्रदेश में। मुसलमानों के अल्पसंख्यक न रहने वाला इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला दो हिस्सों में आया है। नीचे दी गयी टिप्पणी पहले फैसले के बाद लिखी गयी है। ढाई आखर इस पर और भी टिप्पणियां देने की कोशिश की जायेगी।
कितना संवैधानिक है फैसला
नासिरूद्दीन हैदर ख़ाँ
''सन् 1951 और सन् 2001 की जनगणना रिपोर्ट समेत कई दस्तावेजों पर विचार करने के बाद अदालत यह पाती है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं रह गये हैं। इसलिए अदालत उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश देती है कि वह मुस्लिम समुदाय के किसी भी सदस्य को दूसरे गैर अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के बराबर सलूक करे...``
यह इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पाँच अप्रैल 2007 को अल्पसंख्यकों पर दिये गये मशहूर फ़ैसले की लाइन है। इस फ़ैसले के दूरगामी नतीजे निकलने वाले हैं। हालाँकि, इस फ़ैसले पर दूसरे दिन रोक लग गयी लेकिन जिस तरह फैसला दिया गया और फ़ैसले देने के लिए चुना गया वक्त- दोनों कई तरह के सवाल खड़े करता है। एक, यह फैसला उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए होने वाले पहले चरण के चुनाव के ठीक दो दिन पहले आता है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि प्रथम चरण के चुनाव लिए किये गये एग्जिट पोल में मुसलमानों के बीच इस सवाल पर भी राय ली गयी और पता चला कि इसने उनके मत देने के फ़ैसले पर असर डाला है।
दो, अगर आपको ध्यान हो तो इसी वक्त भारतीय जनता पार्टी की विवादास्पद सीडी का मुद्दा भी काफी गर्म था। इस सीडी में कई बातों के अलावा मुसलमानों की जनसंख्या और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे मुद्दे भी शामिल हैं। इन दोनों बातों को देखें तो वे एक-दूसरे की पूरक लगती हैं। यानी कहीं यह निर्णय किसी राजनीति का हिस्सा तो नहीं थी।
पहले फैसला देने के समय के बारे में, माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव कहते हैं, 'चूँकि नौ अप्रैल 2007 से मुझे इस अदालत की लखनऊ खण्डपीठ में बैठना है, इसलिए मैं उचित समझता हूँ कि याचिका के मुख्य तत्व पर फैसला सुनाता जाऊँ।'
मशहूर कानूनविद प्रोफेसर ताहिर महमूद ने दिल्ली से प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि इस तरह फ़ैसले देने की क्या जल्दबाजी थी। यह तो केस का विषय भी नहीं था।
यह याचिका गाजीपुर ज़िले के डेहरा कलाँ के मदरसा नुरूल इस्लाम ने दायर की थी। याचिका का मुद्दा मदरसों की मान्यता और अनुदान से जुड़ा था। इस मदरसा ने अल्पसंख्यक कल्याण और वक़्फ़ विभाग में मान्यता के लिए आवेदन किया ताकि उसे सरकारी मदद मिल सके। मदरसे के मैनेजर ने याचिका में आरोप लगाया था कि मान्यता देने के एवज में उससे पैसे माँगे जा रहे हैं। याचिका में यह भी आरोप लगाया गया था कि विभाग के सचिव और इस मामले में पक्षकार, ने दो मदरसों से मान्यता देने के एवज में पैसे लिये। अब प्रोफेसर महमूद कहते हैं, 'अदालत के सामने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक तय करने का मामला ही नहीं था। कोर्ट ने अपने विषय से बाहर जाकर फैसला दिया।'' इसलिए वे कहते हैं कि फ़ैसले में पूर्वग्रह और ऊहापोह की झलक मिलती है।
इस फ़ैसले पर एक और प्रतिक्रिया मशहूर संविधान विशेषज्ञ, कानून के उस्ताद और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार प्रोफेसर फैजान मुस्तफा देते हैं। वे कहते हैं, '' इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला असंवैधानिक, कानूनी रूप से कमजोर, राजनीतिक रूप से गलत और ग़ैरज़रूरी है। सह सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले दिये गये फ़ैसलों के उलट भी है।''
ऐसे नतीजे पर पहुंचने के बारे में कोर्ट का कहना है ''किसी मजहबी समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मुद्दे पर संविद सभा की कार्यवाहियों से साफ है कि भारतीय संविधान के निर्माताओं द्वारा तय किये गये दो मापदंडों यानी जनसंख्या और ताकत, को लागू करने के बाद अदालत यह पाती है कि मुसलमान अब अल्पसंख्यक नहीं रह गये । ...`` प्रोफेसर महमूद के शब्दों में सिर्फ इतना भर कहना काफी नहीं है। कोई समुदाय अल्पसंख्यक है या नहीं इसे तय करने का आसान सा हिसाब है। लेकिन प्रोफेसर फैजान मुस्तफा माननीय उच्च न्यायालय की राय पर संवैधानिक टिप्पणी करते हैं, ''संविधान में माइनिरीटी' (अल्पसंख्यक) शब्द केवल चार जगहों पर आया है। अनुच्छेद 29 के शीर्ष टिप्पणी (हेडनोट), फिर अनुच्छेद 30 और अनुच्छेद 30 के खण्ड एक और दो के शीर्ष टिप्पणियों में 'अल्पसंख्यक` या 'अल्पसंख्यकों` शब्द आया है। लेकिन रोचक बात यह है कि संविधान में 'अल्पसंख्यक` शब्द की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है।'' प्रोफेसर फैजान का मानना है कि शायद इलाहाबाद हाईकोर्ट की चिंता की वजह भी यही हो। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1957 में केरला एजुकेशन बिल और सन् 2002 में टीएम पई फाउंडेशन केस में 11 सदस्यीय पीठ के फ़ैसले का हवाला देते हुए वे कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट ने बारम्बार यह कहा कि अल्पसंख्यक समूह का निर्धारण करते वक्त इकाई 'राज्य` होगा। इसलिए कोई उच्च न्यायालय उच्चतम न्यायालय के खिलाफ कैसे जा सकता है।``
यही नहीं इन फ़ैसलों से यह भी पता चलता है कि अल्पसंख्यक होने का आधार संख्या है। अगर कोई समूह पचास फीसदी से कम है तो वह अल्पसंख्यक माना जायेगा। यही आधार अंतरराष्ट्री़य़ स्तर पर भी मान्य है। इसलिए यह भी मुमकिन है, प्रोफेसर फैजान की माने तो, कि किसी भी सूबे में कोई भी बहुसंख्यक न हो और सभी समुदायों की मान्यता अल्पसंख्यक के रूप में हो। उदाहरण के रूप में केरल में सभी समुदाय अल्पसंख्यक हैं। और तो और करीब आधा दर्जन राज्यों में हिन्दुओं को ही अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है। ठीक इसी तरह तमिलनाडु में हिन्दी भाषी की अल्पसंख्यक की हैसियत है।
अदालत ने केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को यह भी निर्देश दिया है वो ''केन्द्र द्वारा 23-10-93 को जारी अध्यादेश को संशोधित करने के लिए उचित कदम उठाये।`` यह अध्यादेश अल्पसंख्यक दर्जा देने से सम्बंधित है। इस पर प्रोफेसर ताहिर महमूद कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यकों के बारे में फैसला देने के साथ ही माननीय न्यायालय की 1993 की अधिसूचना को संशोधित करने की बात भी कहती है। इसका तो मतलब यही हुआ कि पूरे देश में मुसलमान अब अल्पसंख्यक नहीं रहे।
हालांकि मुम्बई हाईकोर्ट की मशहूर वकील और महिला कार्यकर्ता फ्लेविया एग्निस के मुताबिक अभी जो फ़ैसले आ रहे है, उनमें ज्यादातर में व्यक्तिगत और वैश्विक परिदृश्य का असर साफ दिख रहा है। न्यायपालिका सामाजिक मुद्दों पर कम ध्यान दे रही है। इनका मानना है कि यह न्यायपालिका के अमेरीकीकरण को दर्शाता है। हाल ही में आया ओबीसी आरक्षण पर फैसला इसी का नतीजा है। फ्लेविया कहती हैं कि मुस्लिम, ओबीसी, दलित, महिलाओं के बारे में आ रहे फ़ैसले काफी चिंताजनक है। वे कहती हैं कि सच्चर कमेटी के ज़रिये मुसलमानों की बदहाली की तस्वीर हमारे सामने आयी है। अभी इस पर चर्चा चल ही रही है कि यह फैसला आया-क्या इसमें कोई सम्बंध है। फ्लेविया आगाह करती हैं कि ऐसे फ़ैसलों से मुसलमानों में अलगाव और अविश्वास का भाव पैदा होगा। ऐसे फ़ैसलों के मुद्देनज़र प्रोफेसर ताहिर महमूद की सलाह है कि जजों की नियुक्ति के तौर-तरीक़ों के बारे में भी गम्भीरता से सोचा जाये।
सुप्रीम कोर्ट का नजरिया
टीएमए पई फाउंडेशन मामले में बहुसंख्यक जजों का कहना था, 'भाषाई और मजहबी अल्पसंख्यक संविधान के अनुच्छेद 30 में 'अल्पसंख्यक` के तहत आते हैं। चूँकि भारत में राज्यों के पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया है, इसलिए अल्पसंख्यक को तय करते समय इकाई के रूप में राज्य होगा... ।
(यही नहीं चुनाव के अंतिम चरण से ठीक पहले इस फैसले का पूरा हिस्सा भी आ गया। ऐसे समय का चुनाव किसी खास वजह से।)
कितना संवैधानिक है फैसला
नासिरूद्दीन हैदर ख़ाँ
''सन् 1951 और सन् 2001 की जनगणना रिपोर्ट समेत कई दस्तावेजों पर विचार करने के बाद अदालत यह पाती है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं रह गये हैं। इसलिए अदालत उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश देती है कि वह मुस्लिम समुदाय के किसी भी सदस्य को दूसरे गैर अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय के बराबर सलूक करे...``
यह इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पाँच अप्रैल 2007 को अल्पसंख्यकों पर दिये गये मशहूर फ़ैसले की लाइन है। इस फ़ैसले के दूरगामी नतीजे निकलने वाले हैं। हालाँकि, इस फ़ैसले पर दूसरे दिन रोक लग गयी लेकिन जिस तरह फैसला दिया गया और फ़ैसले देने के लिए चुना गया वक्त- दोनों कई तरह के सवाल खड़े करता है। एक, यह फैसला उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए होने वाले पहले चरण के चुनाव के ठीक दो दिन पहले आता है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि प्रथम चरण के चुनाव लिए किये गये एग्जिट पोल में मुसलमानों के बीच इस सवाल पर भी राय ली गयी और पता चला कि इसने उनके मत देने के फ़ैसले पर असर डाला है।
दो, अगर आपको ध्यान हो तो इसी वक्त भारतीय जनता पार्टी की विवादास्पद सीडी का मुद्दा भी काफी गर्म था। इस सीडी में कई बातों के अलावा मुसलमानों की जनसंख्या और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण जैसे मुद्दे भी शामिल हैं। इन दोनों बातों को देखें तो वे एक-दूसरे की पूरक लगती हैं। यानी कहीं यह निर्णय किसी राजनीति का हिस्सा तो नहीं थी।
पहले फैसला देने के समय के बारे में, माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव कहते हैं, 'चूँकि नौ अप्रैल 2007 से मुझे इस अदालत की लखनऊ खण्डपीठ में बैठना है, इसलिए मैं उचित समझता हूँ कि याचिका के मुख्य तत्व पर फैसला सुनाता जाऊँ।'
मशहूर कानूनविद प्रोफेसर ताहिर महमूद ने दिल्ली से प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि इस तरह फ़ैसले देने की क्या जल्दबाजी थी। यह तो केस का विषय भी नहीं था।
यह याचिका गाजीपुर ज़िले के डेहरा कलाँ के मदरसा नुरूल इस्लाम ने दायर की थी। याचिका का मुद्दा मदरसों की मान्यता और अनुदान से जुड़ा था। इस मदरसा ने अल्पसंख्यक कल्याण और वक़्फ़ विभाग में मान्यता के लिए आवेदन किया ताकि उसे सरकारी मदद मिल सके। मदरसे के मैनेजर ने याचिका में आरोप लगाया था कि मान्यता देने के एवज में उससे पैसे माँगे जा रहे हैं। याचिका में यह भी आरोप लगाया गया था कि विभाग के सचिव और इस मामले में पक्षकार, ने दो मदरसों से मान्यता देने के एवज में पैसे लिये। अब प्रोफेसर महमूद कहते हैं, 'अदालत के सामने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक तय करने का मामला ही नहीं था। कोर्ट ने अपने विषय से बाहर जाकर फैसला दिया।'' इसलिए वे कहते हैं कि फ़ैसले में पूर्वग्रह और ऊहापोह की झलक मिलती है।
इस फ़ैसले पर एक और प्रतिक्रिया मशहूर संविधान विशेषज्ञ, कानून के उस्ताद और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार प्रोफेसर फैजान मुस्तफा देते हैं। वे कहते हैं, '' इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला असंवैधानिक, कानूनी रूप से कमजोर, राजनीतिक रूप से गलत और ग़ैरज़रूरी है। सह सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले दिये गये फ़ैसलों के उलट भी है।''
ऐसे नतीजे पर पहुंचने के बारे में कोर्ट का कहना है ''किसी मजहबी समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मुद्दे पर संविद सभा की कार्यवाहियों से साफ है कि भारतीय संविधान के निर्माताओं द्वारा तय किये गये दो मापदंडों यानी जनसंख्या और ताकत, को लागू करने के बाद अदालत यह पाती है कि मुसलमान अब अल्पसंख्यक नहीं रह गये । ...`` प्रोफेसर महमूद के शब्दों में सिर्फ इतना भर कहना काफी नहीं है। कोई समुदाय अल्पसंख्यक है या नहीं इसे तय करने का आसान सा हिसाब है। लेकिन प्रोफेसर फैजान मुस्तफा माननीय उच्च न्यायालय की राय पर संवैधानिक टिप्पणी करते हैं, ''संविधान में माइनिरीटी' (अल्पसंख्यक) शब्द केवल चार जगहों पर आया है। अनुच्छेद 29 के शीर्ष टिप्पणी (हेडनोट), फिर अनुच्छेद 30 और अनुच्छेद 30 के खण्ड एक और दो के शीर्ष टिप्पणियों में 'अल्पसंख्यक` या 'अल्पसंख्यकों` शब्द आया है। लेकिन रोचक बात यह है कि संविधान में 'अल्पसंख्यक` शब्द की कोई परिभाषा नहीं दी गयी है।'' प्रोफेसर फैजान का मानना है कि शायद इलाहाबाद हाईकोर्ट की चिंता की वजह भी यही हो। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1957 में केरला एजुकेशन बिल और सन् 2002 में टीएम पई फाउंडेशन केस में 11 सदस्यीय पीठ के फ़ैसले का हवाला देते हुए वे कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट ने बारम्बार यह कहा कि अल्पसंख्यक समूह का निर्धारण करते वक्त इकाई 'राज्य` होगा। इसलिए कोई उच्च न्यायालय उच्चतम न्यायालय के खिलाफ कैसे जा सकता है।``
यही नहीं इन फ़ैसलों से यह भी पता चलता है कि अल्पसंख्यक होने का आधार संख्या है। अगर कोई समूह पचास फीसदी से कम है तो वह अल्पसंख्यक माना जायेगा। यही आधार अंतरराष्ट्री़य़ स्तर पर भी मान्य है। इसलिए यह भी मुमकिन है, प्रोफेसर फैजान की माने तो, कि किसी भी सूबे में कोई भी बहुसंख्यक न हो और सभी समुदायों की मान्यता अल्पसंख्यक के रूप में हो। उदाहरण के रूप में केरल में सभी समुदाय अल्पसंख्यक हैं। और तो और करीब आधा दर्जन राज्यों में हिन्दुओं को ही अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है। ठीक इसी तरह तमिलनाडु में हिन्दी भाषी की अल्पसंख्यक की हैसियत है।
अदालत ने केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को यह भी निर्देश दिया है वो ''केन्द्र द्वारा 23-10-93 को जारी अध्यादेश को संशोधित करने के लिए उचित कदम उठाये।`` यह अध्यादेश अल्पसंख्यक दर्जा देने से सम्बंधित है। इस पर प्रोफेसर ताहिर महमूद कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यकों के बारे में फैसला देने के साथ ही माननीय न्यायालय की 1993 की अधिसूचना को संशोधित करने की बात भी कहती है। इसका तो मतलब यही हुआ कि पूरे देश में मुसलमान अब अल्पसंख्यक नहीं रहे।
हालांकि मुम्बई हाईकोर्ट की मशहूर वकील और महिला कार्यकर्ता फ्लेविया एग्निस के मुताबिक अभी जो फ़ैसले आ रहे है, उनमें ज्यादातर में व्यक्तिगत और वैश्विक परिदृश्य का असर साफ दिख रहा है। न्यायपालिका सामाजिक मुद्दों पर कम ध्यान दे रही है। इनका मानना है कि यह न्यायपालिका के अमेरीकीकरण को दर्शाता है। हाल ही में आया ओबीसी आरक्षण पर फैसला इसी का नतीजा है। फ्लेविया कहती हैं कि मुस्लिम, ओबीसी, दलित, महिलाओं के बारे में आ रहे फ़ैसले काफी चिंताजनक है। वे कहती हैं कि सच्चर कमेटी के ज़रिये मुसलमानों की बदहाली की तस्वीर हमारे सामने आयी है। अभी इस पर चर्चा चल ही रही है कि यह फैसला आया-क्या इसमें कोई सम्बंध है। फ्लेविया आगाह करती हैं कि ऐसे फ़ैसलों से मुसलमानों में अलगाव और अविश्वास का भाव पैदा होगा। ऐसे फ़ैसलों के मुद्देनज़र प्रोफेसर ताहिर महमूद की सलाह है कि जजों की नियुक्ति के तौर-तरीक़ों के बारे में भी गम्भीरता से सोचा जाये।
सुप्रीम कोर्ट का नजरिया
टीएमए पई फाउंडेशन मामले में बहुसंख्यक जजों का कहना था, 'भाषाई और मजहबी अल्पसंख्यक संविधान के अनुच्छेद 30 में 'अल्पसंख्यक` के तहत आते हैं। चूँकि भारत में राज्यों के पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया गया है, इसलिए अल्पसंख्यक को तय करते समय इकाई के रूप में राज्य होगा... ।
(यही नहीं चुनाव के अंतिम चरण से ठीक पहले इस फैसले का पूरा हिस्सा भी आ गया। ऐसे समय का चुनाव किसी खास वजह से।)
टिप्पणियाँ
ज्ञान जी ने अच्छा सवाल उठाया है.. क्या फ़रक पड़ता है इस फ़ैसले से.. शायद आपको इस पर भी क़लम चलानी चाहिय्रे कि क्या हैं अल्पसंख्यक होने के फ़ायदे और क्या हैं नुकसान?
वैसे ज्ञान जी आपकी बात मुझे कुछ तर्क संगत लग नहीं रही.. यदि सचमुच मुसलमान एक मुश्त वोट करे तो बिहार, यू पी असम प.बंगाल, आंध्र प्रदेश, केरल आदि में मज़े से अकेले सरकार बना सकता है.. और मुख्य मंत्री भी.. पर उनके तो मंत्री भी गिने चुने ही होते हैं.. शायद कोई अखबारी दुनिया का साथी इस के सही आँकड़े प्रस्तुत करके आपको सही तस्वीर बता पाये..
रही बात पैमपरिंग की .. तो इतनी पैम्परिंग के बाद हाल ये है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और माली हालत के लिहाज़ से उनकी स्थिति दलितों के साथ गिनी जा सकती है..
अभय अख़बार से जुड़े साथियों से जो गुजारिश कर रहे हैं, इस सिलसिले में आप भी थोड़ी कसरत क्यों नहीं करते. धीरे-धीरे ही सही, ज़रा वक्त लेके भी, एक तस्वीर सामने आए. ज्ञान बाबू जैसे लोग अपनी आंखों से देखें और फिर सच्चे मन से राय बनायें. सोचियेगा.