दबे पांव आया एक सामाजिक 'सुनामी'
जी हां, मशीन से बसपा का जिन्न निकला पर किसी ने उसकी ऐसी धमाकेदार आमद का अहसास नहीं किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। जब भी हाशिये पर लोगों की दस्तक सत्ता तक पहुँचती है, 'सभ्य नागरिक समाज' उसे न तो देख पाता है और न ही देखना चाहता है। सुनना भी नहीं चाहता। नहीं तो ऐसा क्यों है कि उत्तर प्रदेश में इतना बड़ा बदलाव हो रहा था लेकिन धुरंधर से धुरंधर विश्लेषक, चुनाव सर्वेक्षक, मीडिया कर्मी जमीन पर घूमते हुए जमीन के बदलाव को नहीं महसूस कर पा रहे थे। कुछ थोड़े से लोग जो इस बदलाव की साफ उम्मीद जता रहे थे, उन्हें ही शक के दायरे में रख दिया जा रहा था। उन पर किसी न किसी तरह की चिप्पी चस्पा कर दी गयी और खानों में डाल दिया गया।
याद करें, बिहार में सन् 1995 में लालू प्रसाद यादव के साथ ठीक यही हुआ था। दलित-शोषित-वंचित वर्ग, लालू के रूप में ऐसी सरकार देख रहा था, जो उनकी होगी। लेकिन सारे सर्वेक्षण, चंद पत्रकारों को छोड़, सभी अखबार, लालू को खत्म मान रहे थे। उन्हें यह बदलाव नहीं दिख रहा था। ... और लालू लगातार कह रहे थे, बैलेट बॉक्स से जिन्न निकलेगा। ... और जिन्न ही निकला। लालू पहले से ज्यादा समर्थन के साथ वापस लौटे। टीएन शेषन न होते तो यही कहा जाता कि लालू ने बॉक्स ही बदल दिये। हुआ क्या था? आजादी के बाद बिहार में पहली बार एक ऐसा चुनाव हुआ, जहां दबंगों की नहीं चली थी। बड़े पैमाने पर दलितों, गरीबों, शोषितों और औरतों ने पहली बार वोट डाले थे। यही नहीं, जगह-जगह उन्होंने अपने वोट के लिए संघर्ष भी किया था। वोट इसलिए डाल पाये कि बड़े पैमाने पर केन्द्रीय बल थे और वोट के लिए जद्दोजहद इसलिए कर रहे थे कि उन्हें पहली बार लगा कि लालू की सरकार, उनकी सरकार है। यह बात बिहार का शहरी, पढ़ा लिखा और कथित सभ्य समाज न तो देखना चाह रहा था और न ही सुनना। चूँकि लालू उसकी पसंद नहीं थे, इसलिए उसने बदलाव को भी नहीं देखा और उनके अंत का एलान कर डाला।
बहुजन समाज पार्टी के साथ हर बार ऐसा होता है। हर चुनाव के वक्त उसे कम करके आँका जाता और हर बार वह पहले से बेहतर होकर उभरती। इस बार उसमें अप्रत्याशित इजाफा हुआ। वजह बिहार से मिलते जुलते थे। चुनाव आयोग की ऐसी सख्ती, हर बूथ पर चाक चौबंद केन्द्रीय सुरक्षा बल- उत्तर प्रदेश पहली बार देख रहा था। न तो बूथ लुटने का खौफ था और न ही दबंगों की दबंगई का। हिंसा का भी कहीं नाम नहीं था। इसने बड़े पैमाने पर दलितों-गरीबों-वंचितों को वोट डालने का मौका दिया।
सभ्य समाज गर्मी के मारे घरों में बैठा था और गरीब पसीना बहाते अपनी खामोश लेकिन मजबूत दस्तक दे रहा था। पहले दौर के बाद ही उनकी आहट सुनाई देनी लगी। इस आहट के साथ समाज के दूसरे तबके भी साथ हो लिये। इनमें वैसे तबके भी हैं, जो बसपा के पारम्परिक वोटर नहीं थे। विश्लेषक सभ्य समाज की टोह ले रहे थे। उसी समाज से आये हैं तो ज्यादातर उनकी ही बात कर रहे थे और काफी जद्दोजहद के बाद बसपा की बढ़त तो स्वीकार करने लगे थे लेकिन जोड़तोड़ की गुंजाइश आखिरी वक्त तक बनाये हुए थे। यानी एक सौ बीस से डेढ़ सौ सीट के बीच में तीन बड़ी पार्टियाँ! यानी गरीब-दलित का नेतृत्व इतना कैसे बढ़ सकता है? इतनी सीटें कैसे पा सकता है कि बिना 'नकेल' डाले उसकी सरकार बन जाये! चूंकि मन यह यकीन नहीं कर रहा था, इसलिए यह दिख भी नहीं रहा था। बसपा सुप्रीमो मायावती की रणनीति का साधारण अंक गणित भी समझने में परेशानी हो रही थी। गरीब, दलित, सवर्ण हिन्दुओं का एक हिस्सा और मुसलमानों की बड़ी तादाद-यह एक नया सामाजिक गठबंधन बन रहा था और यह देखा नहीं जा रहा था। यह गठबंधन जातियों की पारम्परिक गोलबंदी को भी तोड़ रहा था, और कहा जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में चुनाव तो अंतत: जात-पात पर ही होगा। यह विश्लेषकों और मीडिया के धुरंधरों की सोच भी बताता है और सीमा भी।
उत्तर प्रदेश के मीडिया कर्मियों पर जैसा ध्यान दूसरी पार्टियां देती हैं, बसपा या यूं कहे मायावती उन्हें वैसा तवज्जो नहीं देतीं। विचार के स्तर पर भी सामाजिक न्याय/अन्याय की बात करने वाले और परेशान होने वाले पत्रकार भी पहले की तरह नहीं रहे। ऐसे में बसपा जैसी हर विचार के लिए मीडिया में मुश्किल ही मुश्किल है। इसलिए बसपा की लहर भी नहीं दिखी।
उत्तर प्रदेश में इतिहास बन रहा था- दलितों-वंचितों के नेतृत्व में वो आ गये थे, जो उन्हें कल तक अपने चापाकल पर पानी भी नहीं लेने देते थे। टकराव की जगह, सामंजस्य ले रही थी पर यह आहट नहीं सुनाई दे रही थी। प्रकृति भी जब करवट लेती हैं और सुनामी आता है, तो अंदमानी निवासी उसकी आहट भाँप लेते हैं। यह भी सामाजिक सुनामी था, सामने हो रहा था और विश्लेषक भाँप नहीं पाये! हाशिये के लोगों की दस्तक हमेशा हो हल्ला के साथ हो, यह जरूरी नहीं है। यह शोषित जातियों और वंचितों वर्गों की दस्तक है। जिन्न लालू के लिए भी खामोशी से निकला था और मायवाती के लिए भी। यही नहीं जिन्न कुछ लोगों के लिए मददगार होता है तो कुछ लोगों को डराता भी है। यह दलितों-गरीबों के जिन्न का डर था, जो 'सभ्य नागरिक समाज' देखना नहीं चाह रहा।
.. बसपा को मिली जबरदस्त कामयाबी, चुनौती और खतरे भी साथ लेकर आयी है। उम्मीदें तो जाहिर है, होंगी ही। पहले बसपा यह कहकर अपने लोगों को दिलासा दे देती थी कि उसके पास बहुमत नहीं है, हाथ बँधे हैं। इस बार यह कहना मुमकिन न होगा। ... इतिहास भी है... जैसा लालू के साथ हुआ... वो अपने मददगार जिन्न की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो जिन्न ने इंतजार के बाद उनका साथ छोड़ दिया।
(मेरा यह लेख 16 मई के हिन्दुस्तान में छपा है-नासिरूद्दीन)
याद करें, बिहार में सन् 1995 में लालू प्रसाद यादव के साथ ठीक यही हुआ था। दलित-शोषित-वंचित वर्ग, लालू के रूप में ऐसी सरकार देख रहा था, जो उनकी होगी। लेकिन सारे सर्वेक्षण, चंद पत्रकारों को छोड़, सभी अखबार, लालू को खत्म मान रहे थे। उन्हें यह बदलाव नहीं दिख रहा था। ... और लालू लगातार कह रहे थे, बैलेट बॉक्स से जिन्न निकलेगा। ... और जिन्न ही निकला। लालू पहले से ज्यादा समर्थन के साथ वापस लौटे। टीएन शेषन न होते तो यही कहा जाता कि लालू ने बॉक्स ही बदल दिये। हुआ क्या था? आजादी के बाद बिहार में पहली बार एक ऐसा चुनाव हुआ, जहां दबंगों की नहीं चली थी। बड़े पैमाने पर दलितों, गरीबों, शोषितों और औरतों ने पहली बार वोट डाले थे। यही नहीं, जगह-जगह उन्होंने अपने वोट के लिए संघर्ष भी किया था। वोट इसलिए डाल पाये कि बड़े पैमाने पर केन्द्रीय बल थे और वोट के लिए जद्दोजहद इसलिए कर रहे थे कि उन्हें पहली बार लगा कि लालू की सरकार, उनकी सरकार है। यह बात बिहार का शहरी, पढ़ा लिखा और कथित सभ्य समाज न तो देखना चाह रहा था और न ही सुनना। चूँकि लालू उसकी पसंद नहीं थे, इसलिए उसने बदलाव को भी नहीं देखा और उनके अंत का एलान कर डाला।
बहुजन समाज पार्टी के साथ हर बार ऐसा होता है। हर चुनाव के वक्त उसे कम करके आँका जाता और हर बार वह पहले से बेहतर होकर उभरती। इस बार उसमें अप्रत्याशित इजाफा हुआ। वजह बिहार से मिलते जुलते थे। चुनाव आयोग की ऐसी सख्ती, हर बूथ पर चाक चौबंद केन्द्रीय सुरक्षा बल- उत्तर प्रदेश पहली बार देख रहा था। न तो बूथ लुटने का खौफ था और न ही दबंगों की दबंगई का। हिंसा का भी कहीं नाम नहीं था। इसने बड़े पैमाने पर दलितों-गरीबों-वंचितों को वोट डालने का मौका दिया।
सभ्य समाज गर्मी के मारे घरों में बैठा था और गरीब पसीना बहाते अपनी खामोश लेकिन मजबूत दस्तक दे रहा था। पहले दौर के बाद ही उनकी आहट सुनाई देनी लगी। इस आहट के साथ समाज के दूसरे तबके भी साथ हो लिये। इनमें वैसे तबके भी हैं, जो बसपा के पारम्परिक वोटर नहीं थे। विश्लेषक सभ्य समाज की टोह ले रहे थे। उसी समाज से आये हैं तो ज्यादातर उनकी ही बात कर रहे थे और काफी जद्दोजहद के बाद बसपा की बढ़त तो स्वीकार करने लगे थे लेकिन जोड़तोड़ की गुंजाइश आखिरी वक्त तक बनाये हुए थे। यानी एक सौ बीस से डेढ़ सौ सीट के बीच में तीन बड़ी पार्टियाँ! यानी गरीब-दलित का नेतृत्व इतना कैसे बढ़ सकता है? इतनी सीटें कैसे पा सकता है कि बिना 'नकेल' डाले उसकी सरकार बन जाये! चूंकि मन यह यकीन नहीं कर रहा था, इसलिए यह दिख भी नहीं रहा था। बसपा सुप्रीमो मायावती की रणनीति का साधारण अंक गणित भी समझने में परेशानी हो रही थी। गरीब, दलित, सवर्ण हिन्दुओं का एक हिस्सा और मुसलमानों की बड़ी तादाद-यह एक नया सामाजिक गठबंधन बन रहा था और यह देखा नहीं जा रहा था। यह गठबंधन जातियों की पारम्परिक गोलबंदी को भी तोड़ रहा था, और कहा जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में चुनाव तो अंतत: जात-पात पर ही होगा। यह विश्लेषकों और मीडिया के धुरंधरों की सोच भी बताता है और सीमा भी।
उत्तर प्रदेश के मीडिया कर्मियों पर जैसा ध्यान दूसरी पार्टियां देती हैं, बसपा या यूं कहे मायावती उन्हें वैसा तवज्जो नहीं देतीं। विचार के स्तर पर भी सामाजिक न्याय/अन्याय की बात करने वाले और परेशान होने वाले पत्रकार भी पहले की तरह नहीं रहे। ऐसे में बसपा जैसी हर विचार के लिए मीडिया में मुश्किल ही मुश्किल है। इसलिए बसपा की लहर भी नहीं दिखी।
उत्तर प्रदेश में इतिहास बन रहा था- दलितों-वंचितों के नेतृत्व में वो आ गये थे, जो उन्हें कल तक अपने चापाकल पर पानी भी नहीं लेने देते थे। टकराव की जगह, सामंजस्य ले रही थी पर यह आहट नहीं सुनाई दे रही थी। प्रकृति भी जब करवट लेती हैं और सुनामी आता है, तो अंदमानी निवासी उसकी आहट भाँप लेते हैं। यह भी सामाजिक सुनामी था, सामने हो रहा था और विश्लेषक भाँप नहीं पाये! हाशिये के लोगों की दस्तक हमेशा हो हल्ला के साथ हो, यह जरूरी नहीं है। यह शोषित जातियों और वंचितों वर्गों की दस्तक है। जिन्न लालू के लिए भी खामोशी से निकला था और मायवाती के लिए भी। यही नहीं जिन्न कुछ लोगों के लिए मददगार होता है तो कुछ लोगों को डराता भी है। यह दलितों-गरीबों के जिन्न का डर था, जो 'सभ्य नागरिक समाज' देखना नहीं चाह रहा।
.. बसपा को मिली जबरदस्त कामयाबी, चुनौती और खतरे भी साथ लेकर आयी है। उम्मीदें तो जाहिर है, होंगी ही। पहले बसपा यह कहकर अपने लोगों को दिलासा दे देती थी कि उसके पास बहुमत नहीं है, हाथ बँधे हैं। इस बार यह कहना मुमकिन न होगा। ... इतिहास भी है... जैसा लालू के साथ हुआ... वो अपने मददगार जिन्न की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो जिन्न ने इंतजार के बाद उनका साथ छोड़ दिया।
(मेरा यह लेख 16 मई के हिन्दुस्तान में छपा है-नासिरूद्दीन)
टिप्पणियाँ
घुघूती बासूती
"हाशिये के लोगों की दस्तक हमेशा हो हल्ला के साथ हो, यह जरूरी नहीं है। यह शोषित जातियों और वंचितों वर्गों की दस्तक है।"
शोषितों-वंचित सभी लोग एक बराबर हों मायावती एसा कर पायें तो हमारी नजर में वो दुर्गा। कबीरा तो फिर बोलेगा कि
"राम तेरी माया दुंद मचावै,
शोषक, शोषित वंचित कौ आपस को फक़्रक मिटावै"