ये सूरत बदलनी चाहिए
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
शर्त लेकिन थी कि यह बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर में, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
जिन्हें दुष्यंत कुमार के बारे में जानकारी न हो, वो उन्हें गाली नहीं देंगे बल्कि गूगल सर्च पर जाकर तलाश करने की कोशिश करेंगे। नहीं मिले तो किसी भी किताब की अच्छी दुकान में उनका संग्रह आसानी से मिल जायेगा।
टिप्पणियाँ
ऎसी भी सीने में क्या आग
कि हम खुद ही जलते रहें
चलो तुम गजलें सुनाओ
हम चन्द शेर कहें
मैं चाहूंगा कि आप अपने ब्लोग पर दुष्यंत कुमार की रचनाएं लिखते रहें तो हमें मज़ा आयेगा। मेरे तरफ से बधाई
दीपक भारत दीप
दुष्यंत कुमार जी को परिचय की आवश्यकता नहीं…।
बधाई!!!