ये सूरत बदलनी चाहिए

मैंने सुना है, अपने बड़ों के मुँह से कि आपातकाल के दौर में वे सब दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों और शेरों को पोस्टर की शक्ल में, रात के अंधेरे में, पुलिस से बचते हुए विश्‍वविद्यालय की दीवारों पर चिपकाते थे। बाद के दिनों में अपने दोस्तों को नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन के पहले दुष्यंत कुमार के शेर कई बार दुहराते सुना, गाते सुना। ताज्जुब यह है कि तीन दशक से भी ज्‍यादा पुरानी इन रचनाओं को आज के वक्‍त में भी ठीक वैसे ही महसूस किया जा सकता है, जैसे तीन दशक पहले। 'ढाई आखर' के पाठकों के लिए दुष्यंत कुमार की एक मशहूर ग़ज़ल:

हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि यह बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर में, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

जिन्हें दुष्यंत कुमार के बारे में जानकारी न हो, वो उन्हें गाली नहीं देंगे बल्कि गूगल सर्च पर जाकर तलाश करने की कोशिश करेंगे। नहीं मिले तो किसी भी किताब की अच्छी दुकान में उनका संग्रह आसानी से मिल जायेगा।

टिप्पणियाँ

बहुत बढ़िया ! मेरे मन में भी यह बात आयी और उसे प्रस्तुत कर रहा हूँ ,आप शब्द कम भाव पर ध्यान अधिक दें।

ऎसी भी सीने में क्या आग
कि हम खुद ही जलते रहें
चलो तुम गजलें सुनाओ
हम चन्द शेर कहें
मैं चाहूंगा कि आप अपने ब्लोग पर दुष्यंत कुमार की रचनाएं लिखते रहें तो हमें मज़ा आयेगा। मेरे तरफ से बधाई
दीपक भारत दीप
Divine India ने कहा…
बहुत जानदार प्रस्तुति…
दुष्यंत कुमार जी को परिचय की आवश्यकता नहीं…।
बधाई!!!
रवि रतलामी ने कहा…
हिन्दी क्लिक कमेंट बहुत बढ़िया है. अच्छा काम किया है आपने. साधुवाद. :)

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