एक कवि का गुजरात वियोग

मेरी पोस्ट एक 'गुजराती' की तलाश के बाद कई दोस्तों की राय थी कि वली गुजराती/दक्खिनी की कुछ रचनाओं को भी ढाई आखर पर पेश करना चाहिए था। उनके सुझाव पर वली की कुछ रचनाएँ आपके सामने पेश हैं। जिन कठिन अल्फ़ाज़ के मायने मिले, उन्हें ब्रैकेट में दिया गया है। वली की जिंदगी में दिल्ली जाना एक अहम घटना है। लेकिन दिल्ली जाना, उन जगहों से बिछुड़ना भी था, जिनसे वली बेपनाह मुहब्बत करते थे। तभी तो गुजरात छूटने की तकलीफ एक पूरी नज्म़ के रूप में सामने आयी। मज़ार ढहाते वक्त गुजरात गौरव का ठेका लेने वालों को वली की गुजराती की इस बेपनाह मुहब्बत का भी खयाल नहीं आया!

(1)
गुजरात वियोग
गुजरातके फिराके सों है खा़र-खा़र दिल।
बेताब है सूनेमन आतिलबहार दिल।।
(फिराक: वियोग, खा़र-खा़र : काँटा-काँटा, बेताब: अधीर, सूनेमन: शून्य, आतिलबहार: आग बरसता)

मरहम नहीं है इसके जखम़का जहाँमने।
शम्शेरे-हिज्र सों जो हुआ है फिगा़र दिल।।
(शम्शेरे-हिज्र: वियोग के खड्ग, फिगा़र: घायल)

अव्वल सों था ज़ईफ़ यह पाबस्ता सोज़ में।
ज्यों बात है अग्निके उपर बेकरार दिल।।
(ज़ईफ़: निर्बल, पाबस्ता: पादनिगड़ित, सोज़: जलन)

इस सैरके नशे सों अवल तर दिमाग था।
आखिऱकुँ इस फिराक़ में खींचा खुमार दिल।।
(खुमार:मदालसता)

मेरे सुनेमें आके चमन देख इश्क का।
है जोशे-खँ सों तनमें मेरे लालाजार दिल।।
(जोशे-खँ: खून के उबाल)

हासिल किया हूँ जगमें सराया शिकस्तगो।
देखा है मुझ शकीबे हों सुब्हेबहार दिल।।
(हासिल: प्राप्त, सराया: सिर से पैर तक, शिकस्तगी: परास्तता, शकीबे: सन्तोष, सुब्हेबहार: वसंत की सुबह)

हिजरत सों दोस्ताँके हुआ जी मेरा गुजर।
इश्रत के पैरहन कुँ दिया तार-तार दिल।।
(इशरत: प्रमोद, पैरहन: परिधान)

हर आशना की याद की गर्मीसों तनमने।
हरदममें बेक़रार है मिस्ले-शरार दिल।।
(आशना: मित्र, तनमने: शरीर में, बेक़रार: अधीर, मिस्ले-शरार: अंगारे की तरह)

सब आशिक़ाँ हजूर अछे पाक सुर्खऱू।
अपना अपस लहूसों किया है फ़िगार दिल।।
(आशिक़ाँ: प्रेमी, सुर्खऱू: भाग्यशाली)

हासिल हुआ है मुजकूँ समर मुज शिकस्त सों।
पाया है चाक-चाक़ हो शकले-अनार दिल।।
(समर: फल, मुज शिकस्त: मेरी हार, चाक-चाक़: टुकड़े-टुकड़े, शकले-अनार: अनार-जैसी)

अफसोस है तमाम कि आखिऱकुँ दोस्ताँ।
इस मैक़दे सों उसके चला सुध बिसार दिल।।
(आखिऱकुँ: अंत में, मैक़दे: मद्यशाला)

लेकिन हजार शुक्र वली हक़के फैज़ सों।
फिर उसके देखनेका है उम्मेदवार दिल।।
(फ़ैज़: सत्य/भगवान की दया)
इस नज्म का अंग्रेजी अनुवाद यहां पढ़ें

(२)
बेवफ़ाई न कर खुदा सूँ डर।
जग हँसाई न कर खुदा सूँ डर।।

है जुदाई में ज़िंदगी मुश्किल।
आ जुदाई न कर खुदा सूँ डर।।

आरसी देखकर न हो मगऱूर।
खुदनुमाई न कर खुदा सूँ डर।।

(३)
सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।

हजारों लाख खू़वाँ में सजन मेरा चले यूँ कर।
सितारों में चले ज्यों माहताब आहिस्ता आहिस्ता।।

सलोने साँवरे पीतम तेरे मोती की झलकाँ ने।
किया अवदे-पुरैय्या को खऱाब आहिस्ता आहिस्ता।।
(गुल: गुलाब का फूल, खू़वाँ: प्रेमिकाओं, माहताब: चाँद, अवदे-पुरैय्या: तारों का समूह)

(4)
टुक 'वली' को सनम गले से लगा।
तुझको बन्दापरवरी की क़सम।।

(5)
तुझ लब की सिफ़त लाल बदख्श़ाँ सूँ कहूँगा।
जादू है तेरे नैन ग़जाला सूँ कहूँगा।।

दी हक़ ने तुझे बादशाही हुस्न-नगर की।
यह किश्वरे ईराँ में सुलेमाँ सूँ कहूँगा।।

ज़ख्मी किया है मुझे तेरी पलकों की अनी ने।
ज़ख्म तेरा खंज़रे भालाँ सूँ कहूँगा।।

बेसब्र न हो ऐ 'वली'! इस दर्द सूँ हरगाह।
जल्दी सूँ तेरे दर्द की दरमाँ सूँ कहूंगा।।

(यह सभी रचनाएँ पहल पुस्तिका से साभार ली गयी है।)
यह भी पढें-
1. एक 'गुजराती' की तलाश
2. फिराक़ ए गुजरात Dead Poet's Society

टिप्पणियाँ

Farid Khan ने कहा…
बहुत ख़ूब
इसकी कमी थी पिछले पोस्ट में जो अब पूरी हो गई...

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकलता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।

जहां तक मुझे याद इसमें शब्द निकलता की जगह शायद ’निकसता’ है...आप पता कर लें.

वैसे मेरा सबसे पसंदीदा शेर है-
तुझ लब की सिफ़त लाल बदख्श़ाँ से कहूँगा।
जादू है तेरे नैन ग़जाला से कहूँगा।।

इसमें भी ’से’ की जगह ’सूं’ है...

यहां मेरा मकसद ग़लतियां गिनाना नहीं है...आपने जो किया है वह अत्यंत सराहनीय है.
ढाईआखर ने कहा…
फरीद
आपने कुछ गलतियों की आेर ध्यान दिलाया, इसका मायने है कि आपने इस पोस्ट को ध्यान से पढ़ा है। इसके लिए शुक्रिया!
मैंने कोशिश की थी कि गलती न हो। जहां तक "निकसता" या "निकलता" की बात है, तो दो जगहों पर अलग अलग चीज मिली। यानी एक जगह निकसता है तो एक जगह निकलता है। आपकी टिप्पणी के बाद मैं इसे निकसता कर दे रहा हूं। "से" पर तो मुझे यूं ही संदेह हो रहा था चूंकि यह वली की शब्दावली में फिट नहीं हो पा रहा था। इसे भी सुधार दे रहा हूं।
यदि आपके पास वली की कुछ नज्म हो तो उसे भेजें ताकि उसे ढाई आखर के पाठकों तक पहुंचाया जा सके।
नासिरूद्दीन
Farid Khan ने कहा…
तुझ लब की सिफ़त लाल बदख्श़ाँ सूँ कहूँगा।
जादू है तेरे नैन ग़जाला से कहूँगा।।

दी हक़ ने तुझे बादशाही हुस्न-नगर की।
यह किश्वरे ईराँ में सुलेमाँ से कहूँगा।।

ज़ख्मी किया है मुझे तेरी पलकों की अनी ने।
ज़ख्म तेरा खंज़रे भालाँ से कहूँगा।।

बेसब्र न हो ऐ 'वली'! इस दर्द से हरगाह।
जल्दी से तेरे दर्द की दरमाँ से कहूंगा।।


दर-असल इस पूरी ग़ज़ल में ही ’से’ की जगह ’सूं’ है.
Unknown ने कहा…
अति सुंदर और मनोहर शब्दांकित कीए है आपने. धन्यवाद.

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