हेब्रॉन, सिंघाड़ा और नगा चटनी...2
नगालैंड की हालत का जायज़ा लेकर लौटै पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के रिपोर्ट की पहली किस्त आपने पढ़ी। इस रिपोर्ट की दूसरी और आखिरी किस्त आपके सामने पेश है।
नगालैंड में सिमटता नगा संसार
(पिछली पोस्ट से जारी...)
लेकिन क्या एनएससीएन का कोई वैकल्पिक विकास मॉडल है? हमने जानना चाहा...। नहीं। साफ शब्दों में एनएससीएन के एक पदाधिकारी कहते हैं, 'हमारी भारत से अलग होने की कोई मंशा नहीं है। हम सिर्फ ये चाहते हैं कि नगाबहुल क्षेत्रों को नगालैंड में शामिल कर नगालिम का गठन हो और उसकी सुरक्षा व्यवस्था की बागडोर नगाओं के हाथों में हो। नगा ही अपनी किस्मत का फैसला सबसे बेहतर तरीके से कर सकते हैं। भारतीय सेनाएं नहीं।'
हम पन्नों में कुछ जवाब खोजने जाते हैं तो पता चलता है कि नगाओं के जीने की पारंपरिक शैली कमोबेश बस्तर के आदिवासियों जैसी ही रही है। यहां भी बस्तर के इलाकों जैसे 'मोरंग' हुआ करते थे और हरेक गांव अपने आप में एक स्वायत्त गणराज्य था। सबकी अपनी न्याय व्यवस्था थी और तमाम आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधित्व नगा होहो नामक एक संस्था करती थी जिसे नगा असेम्बली के नाम से भी जाना जाता है। नगा होहो आज भी अस्तित्व में है लेकिन मुख्यधारा में नहीं। यहां का सारा संघर्ष
दरअसल एक ऐसे कठोर सैध्दांतिक आधार पर टिका हुआ है जिसके बारे में आम नगा को समझा पाना मुश्किल जान पड़ता है। शायद इसीलिए आम नगाओं के बीच में इन संगठनों का काम भी कम है।
दूसरे, जिस तरीके से आजादी के बाद यहां भारतीय सेना और एजेंसियों की भूमिका रही, उसने बड़े पैमाने पर मूल नगाओं को उनकी जमीनों और प्रतिष्ठानों से बेदखल कर दिया। एक बार को नगा समाज में जींस-टॉप पहली लड़कियों को देख कर हम गच्चा खा सकते हैं, लेकिन आदिवासी समाज में इस किस्म के पश्चिमीकरण का सबसे बड़ा और इकलौता कारण यहां के समाज में चर्च की भूमिका भी है। अमेरिकी बैपटिस्ट चर्च और कैथोलिक चर्च का प्रभाव यहां अंग्रेजों के समय से ही रहा है, इसलिए जीवन शैली भी वैसी बन गई है। इसके अलावा जब नगालैंड का गठन हुआ तो भारतीय पूंजी की भारी आमद से यहां के समाज में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया जो आकंठ भ्रष्टाचार में लिप्त हो चुका था। बाकी जो बचे वे या तो बेरोजगार हो गए अथवा भूमिगत संगठनों के साथ चले गए।
इन तमाम कारकों ने यहां भारत विरोधी भावना को भड़काने में काफी मदद की। दीमापुर में फोटो स्टूडियो चलाने वाले छपरा के बबलू कहते हैं, 'अब धंधे की मजबूरी है कि स्थानीय लोगों से मिल कर ही रहना पड़ता है। इसीलिए आप देखेंगे कि अगर किसी भारतीय को गाहे-बगाहे ये नगा मारते-पीटते भी हैं तो हम चुप ही रहते हैं।'
इसका ये अर्थ नहीं कि यहां भारतीय और नगा के बीच कोई शत्रुतापूर्ण विभाजन है। दीमापुर में अपने बचपन में रहे मेरे एक मित्र बताते हैं कि उन्होंने नगाओं और बिहारियों को एक साथ मिल कर भजन गाते भी सुना है। हाजीपुर के चिंटू यहां कपड़े की दुकान चलाते हैं। उन्हें नगा बोली बहुत अच्छे से आती है और वे सपरिवार अपने घर लौटते वक्त बहुत खुश हैं। कहते हैं, 'हमें यहां कोई दिक्कत नहीं। अब तो बिहार में जाकर धंधा करने से हम यही बस जाना बेहतर समझते हैं।' उनके पुरखे 1942 में यहां आए थे और यहीं के होकर रह गए।
लेकिन इन्हीं तमाम बयानों और घटनाओं से वे सवाल उठने भी जायज हैं जो एनएससीएन के लोग उठाते रहे हैं। वे कहते हैं कि नगाओं को शरणार्थी की हालत में अपने ही राज्य में रहना पड़ रहा है। 'क्या इसीलिए आप भारतीयों से रंगदारी टैक्स और फिरौती वसूलते हैं'- हमने पूछा। इसका जवाब मानवाधिकार संगठन एनपीएमएचआर के महासचिव डॉ. एन. वेणु देते हैं, 'नगा समाज के भीतर एकजुटता की भावना बहुत तगड़ी है। यहां प्रत्येक परिवार अपनी कमाई में से कुछ हिस्सा संगठन को देता है। यह बात बेबुनियाद है कि फिरौती वसूली जाती है।' इस बात की पुष्टि नगा मदर्स असोसिएशन की अध्यक्ष खिशेली चिशी भी करती हैं, 'हरेक परिवार हमें अगर कुछ राशि नियमित दे तो पैसे की दिक्कत आने का सवाल ही नहीं उठता। हम सामुदायिक धन से ही काम करते हैं। हमारे पास और कोई साधन नहीं।'
'और बर्मा से नशीली दवाओं का व्यापार? क्या यह भी गलत है...?'
'हां', मुइवा खुद कहते हैं, 'कई ऐसे संगठन हैं जो भारत सरकार के एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं। हमसे टूट कर अलग हुआ खपलांग गुट इस तरह के काम कर सकता है, हम नहीं।' वह बताते हैं, 'आपको पता होना चाहिए कि जब नौवीं नगा इंडियन रिज़र्व बटालियन भारतीय सेना ने गठित की, तो उसमें 300 नगाओं को बगैर किसी साक्षात्कार या परीक्षण के सीधे भर्ती कर लिया गया। क्यों? पता है? क्योंकि ये लोग खपलांग गुट के कार्यकर्ता थे। बात 1999-2000 की है जब उन्हें भारतीय सेना की वर्दी में अपनी मातृभाषा बोलने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया। वे खपलांग गुट के थे, इसके बावजूद हम उन्हें अपनी बोली से महरूम किए जाने के विरोध में हैं क्योंकि वे नगा ही हैं।' इसी टुकड़ी को दो साल के अनुबंध पर छत्तीसगढ़ में तैनात किया गया है जिसकी अवधि अब खत्म हो रही है।
कुछ जवाबों से संतुष्ट होकर और कुछ सवाल मन में लिए लौट आए हम अपने पड़ाव पर शहर दीमापुर में। अगले दिन हमें छत्तीसगढ़ में मारे गए नगा जवानों के परिवारों से मिलना था जिसकी व्यवस्था नगा मदर्स असोसिएशन ने की थी। सुबह आंख खुलते ही क्या देखते हैं कि हमारे होटल को नगालैंड पुलिस और सीआरपीएफ ने घेर कर रखा है। करीब सौ-एक पुरुष और महिला सिपाही अफसरों के साथ तैनात थे। पता लगा कि सरकारी सहायता पर जी रहे मृतक जवानों के परिवारों को हमसे मिलने पर रोक लगा दी गई थी। जब नगा मदर्स की अध्यक्षा और महासचिव हमसे मिलने होटल पहुंची तो उन्हें रोक कर दरयाफ्त की गई कि कहीं वे उन्हीं परिवारों की महिलाएं तो नहीं हैं। भारत सरकार की इस नीति का अर्थ क्या लगाया जाए? पता चला कि ये आदेश दिल्ली से गए थे।
खैर, 'डेमोक्रेसी ह्युमिलिएटेड' के नाम से एक प्रेस रिलीज इसी मसले पर वहां के नागरिक समाज संगठनों ने तुरंत जारी की और इस कदम की भर्त्सना की। अगर जनता और पत्रकार आपस में नहीं मिलेंगे तो चीजें सामने कैसे आएंगी? आखिर हम कितना जानते ही हैं नगाओं के बारे में? डॉ. वेणु कहते हैं, 'दरअसल, भारत सरकार चाहती ही नहीं कि नगालैंड के भीतर की स्थितियों के बारे में भारत के लोगों को किसी भी माध्यम से जानकारी मिल सके।' आखिर ऐसी क्या मजबूरी है? क्या इसी जमीन पर पिछले 10 वर्षों से वार्ता जारी है? यदि ऐसा है, तो फिर थोड़ा रुक कर एक बार को सोचना होगा कि कौन गलत है और कौन सही?
उस फौजी धरती से हम भारी मन लौट रहे थे....मन में कुछ बचा था तो वे स्मृतियां थीं हेब्रॉन के बूटों की, सद्गुरु जलपान में खाए सिंघाड़े-छोले की और उस विश्व प्रसिध्द नगा चटनी की..... जिसका तीखा स्वाद शायद सब कुछ सहने वाली नगा जनता ही सह सकती है। रसोइया मोजेज़ कहता है, 'इस चटनी को पचाना इंडिया के बस की बात नहीं।'
(साभार: इंडिया न्यूज़, 17 अगस्त, 2007)
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