तस्लीमा नसरीन का इंटरव्यू
हैदराबाद में बांग्लादेशी नारीवादी साहित्यकार तस्लीमा नसरीन पर हुए हमले से वे सारे लोग आक्रोशित और शर्मिंदा हैं जिन्हें इस देश की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति, अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र पर नाज़ है। तस्लीमा पर हमले ने इन सबको झकझोर कर रख दिया है। ख़ुद तस्लीमा भी इसे अब तक का सबसे घातक हमला मानती हैं। हिन्दुस्तान के रविवार के अंक में वरिष्ठ पत्रकार कृपाशंकर चौबे द्वारा लिया गया तस्लीमा का इंटरव्यू छपा है। ढाई आखर के पाठकों के लिए यह साक्षात्कार हम हिन्दुस्तान से साभार दे रहे हैं। तस्लीमा पर हमले से जुड़ी मेरी त्वरित टिप्पणी मोहल्ला में अविनाश ने पोस्ट की थी, संदर्भ के लिए उस टिप्पणी को भी इस साक्षात्कार के अंत में दे रहा हूं।
आशंका है किसी दिन यूं ही मार डाली जाऊंगी
कृपाशंकर चौबे
क्या हैदराबाद में हुआ हमला पिछले हमलों से भिन्न और खतरनाक था?
सही लिखने के लिए मुझ पर पहले भी हमले हुए हैं। बांग्लादेश में जानलेवा हमला हुआ था। मैं 13 वर्षों से निर्वासन में हूं। चूंकि बांग्लादेश का दरवाजा मेरे लिए बंद है, इसलिए बार-बार मैंने कहा है कि मैं भारत में रहना चाहती हूं। निर्वासन में रहते हुए भी कई फतवे दिए गए। मेरे सिर पर इनाम घोषित किया गया। इसी वर्ष मार्च में ऑल इंडिया इब्तेहाद काउंसिल ने मेरे सिर पर पांच लाख रुपए का इनाम घोषित किया। पर हैदराबाद का हमला इन सबसे अलग था। प्रेस क्लब में आधे घंटे तक मौत मेरे सिर पर घूमती रही। महसूस होता रहा कि कट्टरपंथी मेरे खून के प्यासे हैं, उनसे बचना मुश्किल है और आशंका है कि मैं कट्टरपंथियों के हाथों इसी तरह मार डाली जाऊंगी।
इस माहौल में आप लेखकीय आजादी और फर्ज को कैसे बचाएंगी?
हैदराबाद हमले से गहरा आघात जरूर पहुंचा, किंतु मैं विचलित नहीं हूं। हमलों से मेरी आवाज नहीं दबाई जा सकती। जो मेरी आवाज दबाना चाहते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि अतीत में भी हमले कर या सिर पर इनाम घोषित कर मुझे दबाया नहीं जा सका। मैं भारतीय लोकतंत्र में विश्वास करने वाले व्यक्ति के रूप में मैं इस देश में निरापद रहना चाहती हूं। मैं मानवतावाद में ही विश्वास करती हूं।
कुछ लोग कहते हैं कि आप उत्तेजना फैलाती हैं?
मेरे लिखने-बोलने के कारण कभी उत्तेजना नहीं फै ली। न उस पार, न इस पार। उस पार भी कट्टरपंथियों को हमला करने का साहस तब हुआ, जब वहां की सरकार ने कट्टरपंथी दबाव में पहले ‘लज्जा’ और बाद में मेरी आत्मकथा के सभी खंड प्रतिबंधित किए। सरकारी प्रशय के बाद ही कट्टरपंथी मेरे सिर पर इनाम घोषित करने लगे। उनके कारण उत्तेजना फैली। आप ही बताएं कि धर्मांधता, कट्टरता और स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध बोलना या लिखना गलत है? मैं मानवाधिकार की बात करती हूं तो क्या गलत है? और इससे उत्तेजना फैलती है?
आपका लेखन ज्यादा आक्रामक हुआ है या समाज ज्यादा कट्टर हो रहा है?
जिन कट्टरपंथियों ने मुझ पर हमला किया, वे मुट्ठीभर थे। अभी भी मुझे इस देश के बहुसंख्यक लोगों का समर्थन हासिल है हैदराबाद की घटना की चौतरफा निंदा हुई। वहां भी हमलावरों से ज्यादा रक्षा करनेवाले थे। वहां मुझे जो प्यार मिला, उसे लगा कि अपने ही लोगों के बीच हूं।
उस पार और इस पार की कट्टरता में क्या भेद है?
भारत में धर्मनिरपेक्षता है, यहां अभिव्यक्ति की स्वाधीनता है, लोकतंत्र है और यहां कट्टरपंथ को सरकार प्रशय नहीं देती जबकि उस पार सरकार ने प्रशय दिया, एक बार सिर झुकाया, तो जाहिर है हमेशा सिर झुकाना पड़ेगा।
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मोहल्ला में पोस्ट मेरी टिप्पणी
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तस्लीमा, हम शर्मिंदा हैं
नासिरुद्दीन
लोग हिन्दुस्तान आते हैं अहिंसा का पाठ पढ़ने। लोग हिन्दुस्तान आते हैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखने। हिन्दुस्तान की ओर देखते हैं कि यहां बहुलता है। विचारों की आज़ादी है। मज़हबी आज़ादी है। बांग्लादेश की विवादास्पद नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन भी इसी उम्मीद से हिन्दुस्तान में निर्वासित जीवन जी रही हैं।
पर गुरूवार को हैदराबाद में जो हुआ, वो शर्मसार करने वाला है। तस्लीमा के लिए नहीं, हिन्दुस्तानियों के लिए। उन हिन्दुस्तानियों के लिए जिन्हें इस देश की धर्मनिरपेक्ष चरित्र, बहुलतावादी समाज, सांस्कृतिक विभिन्नता पर गर्व है। गुरूवार को तस्लीमा के नये उपन्यास 'शोध' के तेलुगू संस्करण का हैदराबाद के प्रेस क्लब में लोकार्पण समारोह था। समारोह के दौरान मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के कुछ सदस्य वहां घुस आये। उन्होंने तस्लीमा पर वहां रखे फूलों के गुलदस्ते फेंके, उसके बैग से उसे ही मारा, कुर्सियां फेंकनी शुरू की। वे लगातार उसे कोस रहे थे। और आश्चर्य की बात है कि इन हमलावरों का नेतृत्व एआईएमआईएम के तीन विधायक अफसर खान, अहमद पाशा और मौजूम खान कर रहे थे। इनका आरोप है कि तस्लीमा ने इस्लाम का अपमान किया है। हालांकि डरी सहमी तस्लीमा कार्यक्रम की जगह से सुरक्षित निकाल ली गयी। बाद में उन्होंने इस सबके बावजूद कहा कि उन्हें हिन्दुस्तान के लोगों पर पूरा भरोसा है।
बहरहाल, जिस तरह आंध्र प्रदेश की पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए तीन विधायकों समेत एआईएमआईएम के कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया है, यह एक अच्छा संकेत है। काश ऐसी ही कड़ी कार्रवाई हर हुड़दंगियों के साथ सभी सरकारें करें तो ऐसे तालिबानियों के हौसले पस्त होंगे। पर अभी तक ऐसा हुआ नहीं है। देखना है कि सरकारें सीख लेती हैं या नहीं। ज़्यादातर तालीबानी तो सरकारों की छत्रछाया में ही पल बढ़ रहे हैं फिर कार्रवाई कौन करे।
तस्लीमा अपने लेखन को लेकर शुरू से चर्चा में रही हैं। उन पर इस्लाम विरोधी नावेल, लेख लिखने और काम करने का इलजाम है। कुछ दिनों पहले तस्लीमा का लखनऊ आने का कार्यक्रम था तो यहां के भी कुछ संगठनों ने तस्लीमा का विरोध करने का एलान कर डाला था। कुछ तंजीमों ने तस्लीमा का वीसा खत्म करने की भी मांग की है। इन सबके बावजूद आज तक कभी इस तरह हमले का शिकार नहीं हुई थीं।
यह हमला भी उसी तरह तालीबानी है जिस तरह एमएफ हुसैन, बड़ौदा विश्वविद्यालय के शिक्षक शिवजी पण्णिकर पर होने वाले हमले तालीबानी थे। भले ही ऊपरी रूप में दोनों के नाम और मुद्दे अलग अलग लगें, चारित्रिक रूप में दोनों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। क्यों। क्योंकि दोनों असहमति की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं है।
असहमति का हक सबको है। दो व्यक्ति कभी भी शत-प्रतिशत एक दूसरे से सहमत नहीं होते। तस्लीमा से असहमत होने का भी सबको हक है। पर तस्लीमा एक लेखिका हैं। नारीवादी लेखिका। एक लेखिका और संस्कृतिकर्मी से असहमति जताने के क्या तरीके होंगे। क्यों नहीं इस्लाम के ठेकेदार तस्लीमा का जवाब उसी रूप में लेकर आते हैं, जिस माध्यम का इस्तेमाल कर वे अपने विचार रख रही हैं। पर यह इन सब की संस्कृति का हिस्सा नहीं है। इन्हें तो आवाज़ बंद करने का तरीका आता है। लेकिन न तो यह पूरे मजहबी समुदाय की आवाज़ है और न ही यह पूरे हिन्दुस्तान का स्वर। हमें नहीं मालूम की तस्लीमा पर इससे पहले ऐसा हमला कहां हुआ पर यह हमला शर्मनाक है। इस हमले से हिन्दुसतान की छवि पर उसी तरह असर पड़ेगा जैसा हुसैन या दूसरे कलाकारों पर हमले से पड़ रहा है। इसलिए जो भी हिन्दुस्तान के धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी, सांस्कृतिक विभिन्नता पर फख़्र करते हैं, उन्हें कम से तस्लीमा पर हमले से जरूर शर्मिंदगी होगी।
इस टिप्पणी पर दोस्तों की राय यहां देखें
आशंका है किसी दिन यूं ही मार डाली जाऊंगी
कृपाशंकर चौबे
क्या हैदराबाद में हुआ हमला पिछले हमलों से भिन्न और खतरनाक था?
सही लिखने के लिए मुझ पर पहले भी हमले हुए हैं। बांग्लादेश में जानलेवा हमला हुआ था। मैं 13 वर्षों से निर्वासन में हूं। चूंकि बांग्लादेश का दरवाजा मेरे लिए बंद है, इसलिए बार-बार मैंने कहा है कि मैं भारत में रहना चाहती हूं। निर्वासन में रहते हुए भी कई फतवे दिए गए। मेरे सिर पर इनाम घोषित किया गया। इसी वर्ष मार्च में ऑल इंडिया इब्तेहाद काउंसिल ने मेरे सिर पर पांच लाख रुपए का इनाम घोषित किया। पर हैदराबाद का हमला इन सबसे अलग था। प्रेस क्लब में आधे घंटे तक मौत मेरे सिर पर घूमती रही। महसूस होता रहा कि कट्टरपंथी मेरे खून के प्यासे हैं, उनसे बचना मुश्किल है और आशंका है कि मैं कट्टरपंथियों के हाथों इसी तरह मार डाली जाऊंगी।
इस माहौल में आप लेखकीय आजादी और फर्ज को कैसे बचाएंगी?
हैदराबाद हमले से गहरा आघात जरूर पहुंचा, किंतु मैं विचलित नहीं हूं। हमलों से मेरी आवाज नहीं दबाई जा सकती। जो मेरी आवाज दबाना चाहते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि अतीत में भी हमले कर या सिर पर इनाम घोषित कर मुझे दबाया नहीं जा सका। मैं भारतीय लोकतंत्र में विश्वास करने वाले व्यक्ति के रूप में मैं इस देश में निरापद रहना चाहती हूं। मैं मानवतावाद में ही विश्वास करती हूं।
कुछ लोग कहते हैं कि आप उत्तेजना फैलाती हैं?
मेरे लिखने-बोलने के कारण कभी उत्तेजना नहीं फै ली। न उस पार, न इस पार। उस पार भी कट्टरपंथियों को हमला करने का साहस तब हुआ, जब वहां की सरकार ने कट्टरपंथी दबाव में पहले ‘लज्जा’ और बाद में मेरी आत्मकथा के सभी खंड प्रतिबंधित किए। सरकारी प्रशय के बाद ही कट्टरपंथी मेरे सिर पर इनाम घोषित करने लगे। उनके कारण उत्तेजना फैली। आप ही बताएं कि धर्मांधता, कट्टरता और स्त्री उत्पीड़न के विरुद्ध बोलना या लिखना गलत है? मैं मानवाधिकार की बात करती हूं तो क्या गलत है? और इससे उत्तेजना फैलती है?
आपका लेखन ज्यादा आक्रामक हुआ है या समाज ज्यादा कट्टर हो रहा है?
जिन कट्टरपंथियों ने मुझ पर हमला किया, वे मुट्ठीभर थे। अभी भी मुझे इस देश के बहुसंख्यक लोगों का समर्थन हासिल है हैदराबाद की घटना की चौतरफा निंदा हुई। वहां भी हमलावरों से ज्यादा रक्षा करनेवाले थे। वहां मुझे जो प्यार मिला, उसे लगा कि अपने ही लोगों के बीच हूं।
उस पार और इस पार की कट्टरता में क्या भेद है?
भारत में धर्मनिरपेक्षता है, यहां अभिव्यक्ति की स्वाधीनता है, लोकतंत्र है और यहां कट्टरपंथ को सरकार प्रशय नहीं देती जबकि उस पार सरकार ने प्रशय दिया, एक बार सिर झुकाया, तो जाहिर है हमेशा सिर झुकाना पड़ेगा।
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मोहल्ला में पोस्ट मेरी टिप्पणी
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तस्लीमा, हम शर्मिंदा हैं
नासिरुद्दीन
लोग हिन्दुस्तान आते हैं अहिंसा का पाठ पढ़ने। लोग हिन्दुस्तान आते हैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देखने। हिन्दुस्तान की ओर देखते हैं कि यहां बहुलता है। विचारों की आज़ादी है। मज़हबी आज़ादी है। बांग्लादेश की विवादास्पद नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन भी इसी उम्मीद से हिन्दुस्तान में निर्वासित जीवन जी रही हैं।
पर गुरूवार को हैदराबाद में जो हुआ, वो शर्मसार करने वाला है। तस्लीमा के लिए नहीं, हिन्दुस्तानियों के लिए। उन हिन्दुस्तानियों के लिए जिन्हें इस देश की धर्मनिरपेक्ष चरित्र, बहुलतावादी समाज, सांस्कृतिक विभिन्नता पर गर्व है। गुरूवार को तस्लीमा के नये उपन्यास 'शोध' के तेलुगू संस्करण का हैदराबाद के प्रेस क्लब में लोकार्पण समारोह था। समारोह के दौरान मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के कुछ सदस्य वहां घुस आये। उन्होंने तस्लीमा पर वहां रखे फूलों के गुलदस्ते फेंके, उसके बैग से उसे ही मारा, कुर्सियां फेंकनी शुरू की। वे लगातार उसे कोस रहे थे। और आश्चर्य की बात है कि इन हमलावरों का नेतृत्व एआईएमआईएम के तीन विधायक अफसर खान, अहमद पाशा और मौजूम खान कर रहे थे। इनका आरोप है कि तस्लीमा ने इस्लाम का अपमान किया है। हालांकि डरी सहमी तस्लीमा कार्यक्रम की जगह से सुरक्षित निकाल ली गयी। बाद में उन्होंने इस सबके बावजूद कहा कि उन्हें हिन्दुस्तान के लोगों पर पूरा भरोसा है।
बहरहाल, जिस तरह आंध्र प्रदेश की पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए तीन विधायकों समेत एआईएमआईएम के कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया है, यह एक अच्छा संकेत है। काश ऐसी ही कड़ी कार्रवाई हर हुड़दंगियों के साथ सभी सरकारें करें तो ऐसे तालिबानियों के हौसले पस्त होंगे। पर अभी तक ऐसा हुआ नहीं है। देखना है कि सरकारें सीख लेती हैं या नहीं। ज़्यादातर तालीबानी तो सरकारों की छत्रछाया में ही पल बढ़ रहे हैं फिर कार्रवाई कौन करे।
तस्लीमा अपने लेखन को लेकर शुरू से चर्चा में रही हैं। उन पर इस्लाम विरोधी नावेल, लेख लिखने और काम करने का इलजाम है। कुछ दिनों पहले तस्लीमा का लखनऊ आने का कार्यक्रम था तो यहां के भी कुछ संगठनों ने तस्लीमा का विरोध करने का एलान कर डाला था। कुछ तंजीमों ने तस्लीमा का वीसा खत्म करने की भी मांग की है। इन सबके बावजूद आज तक कभी इस तरह हमले का शिकार नहीं हुई थीं।
यह हमला भी उसी तरह तालीबानी है जिस तरह एमएफ हुसैन, बड़ौदा विश्वविद्यालय के शिक्षक शिवजी पण्णिकर पर होने वाले हमले तालीबानी थे। भले ही ऊपरी रूप में दोनों के नाम और मुद्दे अलग अलग लगें, चारित्रिक रूप में दोनों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। क्यों। क्योंकि दोनों असहमति की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं है।
असहमति का हक सबको है। दो व्यक्ति कभी भी शत-प्रतिशत एक दूसरे से सहमत नहीं होते। तस्लीमा से असहमत होने का भी सबको हक है। पर तस्लीमा एक लेखिका हैं। नारीवादी लेखिका। एक लेखिका और संस्कृतिकर्मी से असहमति जताने के क्या तरीके होंगे। क्यों नहीं इस्लाम के ठेकेदार तस्लीमा का जवाब उसी रूप में लेकर आते हैं, जिस माध्यम का इस्तेमाल कर वे अपने विचार रख रही हैं। पर यह इन सब की संस्कृति का हिस्सा नहीं है। इन्हें तो आवाज़ बंद करने का तरीका आता है। लेकिन न तो यह पूरे मजहबी समुदाय की आवाज़ है और न ही यह पूरे हिन्दुस्तान का स्वर। हमें नहीं मालूम की तस्लीमा पर इससे पहले ऐसा हमला कहां हुआ पर यह हमला शर्मनाक है। इस हमले से हिन्दुसतान की छवि पर उसी तरह असर पड़ेगा जैसा हुसैन या दूसरे कलाकारों पर हमले से पड़ रहा है। इसलिए जो भी हिन्दुस्तान के धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी, सांस्कृतिक विभिन्नता पर फख़्र करते हैं, उन्हें कम से तस्लीमा पर हमले से जरूर शर्मिंदगी होगी।
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टिप्पणियाँ
ज़रूरत इस बात की है कि ऐसे माहोल मे प्रगतिशील सोच वाले लोग खुलकर अपनी आवाज़ मुखर करे । अगर मुस्लिम औरते तसलीमा के पक्ष मे आगे आये तो धर्म के इन ठेकेदारों को मुह्तोड़ जवाब दिया जा सकता है । साथ ही इसका ज़्यादा प्रभाव पर सकता है. दरअसल ये लोग बहुत डरे हुए है जो किसी लेखक या एक्टिविस्ट पर इस तरह चोट पहुचाने की कोशिश करते है । इनका डर ही है जो इन्हें ऐसे हमले करने को उकसाता है । इन डरे हुए लोगो से क्यों घबराया जाय । इन्हें जो करना है ये करेंगे, लेकिन इन्हें ये भी अहसास दिलाना ज़रूरी है कि तसलीमा अकेली नही है । हिंदुस्तान की हज़ारो औरते उनके हक मे बोलने को तैयार है ।