हेब्रॉन, सिंघाड़ा और नगा चटनी...
हम अपने देश के लोगों की कितनी फिक्र करते हैं...यह बात उस वक्त उजागर हो जाती है जब पूर्वोत्तर के राज्यों में रहने वाले लोगों और उनके संघर्ष का मसला आता है... हालांकि जब देश की अखंडता की बात आती है तो हमें एक छोर से दूसरे छोर का हिन्दुस्तान याद आता है ...चौहद्दी और विशालता याद आती है... पर वहां के लोग नहीं ... हम बात करने जा रहे हैं पूर्वोत्तर के एक राज्य की... नगालैंड ... जी हां, हिन्दुस्तान का नगालैंड ... कोई भी देश या राज्य वहां रहने वाले लोगों से बनता हैं ... क्या हम नगालैंड के लोगों की जद्दोजहद के बारे में जानते हैं ... उनकी जिंदगी के बारे में जानते हैं... अभिषेक श्रीवास्तव नौजवान पत्रकार हैं... अभी हाल ही में नगालैंड की यात्रा से लौटे हैं और जो देखा है वो बयान कर रहे हैं- |
नगालैंड में सिमटता नगा संसार
संगीता कलर लैब...सद्गुरु जलपान गृह...चौरसिया पान शॉप...ये नाम आपको किस भौगोलिकता का अहसास कराते हैं? ज़ाहिर तौर पर पूर्वांचल के किसी शहर की सड़कों पर सजी दुकानों की गंध इनसे आती है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इन दुकानों तक पहुंचने के लिए आपको इनर लाइन परमिट की ज़रूरत पड़ती है। इसी भारत के भीतर यह एक ऐसा भूखंड है जिसके बारे में यदि भारतीय सत्ता और जनता की मानसिकता से अवगत होना है, तो उन पर्चों को पढ़ें जो कुछ महीनों पहले छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाकों में हेलीकॉप्टर से गिरवाए गए थे। इनमें लिखा था कि नगाओं में मायावी ताकत होती है। वे पल भर के लिए चिड़िया का भेस धर कर किसी पेड़ की डाल पर भी बैठ सकते हैं। वे कुत्ते खाते हैं। वे इंसानों को खाते हैं। हम इतना ही जानते हैं नगाओं के बारे में...और मैं, दीमापुर की सड़कों की बात कर रहा हूं जहां से नगा गायब हैं।
नगालैंड की राजधानी कोहिमा में पान की दुकान चलाने वाले एक असमिया से जब मैंने पूछा कि आखिर नगा कहां चले गए, तो उसने कहा, 'साहब, सब दिल्ली और मुंबई भाग जाते हैं। पहले जब मैं 1993 में यहां आया था तो धंधा काफी तेज था।' वह हंसते हुए कहता है, 'मैंने एक जोड़ी जूता डबल दाम में बेच दिया था। उन्हें पता ही नहीं था कि एक पैर के जूते का दाम नहीं होता। अब तो सब पढ़-लिख रहे हैं। हम लोगों का धंधा चौपट हो रहा है।' लेकिन सचाई यह है कि आज भी अगर आप दीमापुर या कोहिमा की सड़कों पर निकल जाएं तो नगाओं को देखने के लिए आंखें चौड़ी करनी पड़ती हैं। भोजपुरी, मैथिली, असमिया, बांग्ला....सारी भाषाएं वहां मौजूद हैं और आश्चर्य यह कि इन सभी भाषा-भाषियों को नगालैंड की स्थानीय बोली भी जम कर आती है। धंधा जो करना है!
इसके अलावा अगर कुछ और दिखता है तो वे हैं असम राइफल्स की टुकड़ियां। ब्रह्मपुत्र मेल दीमापुर उतरने वाले सीआरपीएफ और बीएसएफ के जवानों से पटी पड़ी है। जवानों से बात करने पर पता चलता है कि यहां कानून-व्यवस्था की समस्या बहुत तगड़ी है। नगा लोग शाम के झुटपुटे में लूट लेते हैं। हम भी रात में ही नगालैंड की धरती पर उतरे....लेकिन हमने रास्ते में जितनी भी बातें सुनीं थीं....उन्हें उस तरीके से महसूस नहीं किया शायद।
इसीलिए हम चल दिए नगाओं को देखने- और भीतर। कहते हैं कि यहां दीमापुर शहर से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर नगाओं की समानांतर सरकार शुरू हो जाती है जिसे गवर्नमेन्ट ऑफ द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ नगालिम (जीपीआरएन) कहते हैं। नगालिम- मतलब नगाओं की धरती। राष्ट्रीयता के संघर्ष से जुड़े लोग इसी नाम से उस क्षेत्र को पुकारते हैं जिसे हम ग्रेटर नगालैंड कहते हैं। दीमापुर से बहने वाली धनसिरी नदी पार करते ही खेत शुरू हो जाते हैं। यह कमोबेश मैदानी इलाका है। दोनों तरफ खेत और नगा मकान। हम जितना भीतर घुसते जाते हैं, उतनी ही करीब आती जाती हैं पटकाई की पहाड़ियां। इन्हीं पहाड़ियों के पार बर्मा शुरू होता है। और इन्हीं पहाड़ियों के किसी हिस्से में है नगाओं की समानांतर सरकार जिसके मुखिया इसाक-मुइवा हैं। पिछले पचास सालों के नगा राष्ट्रीयता आंदोलन के इतिहास में एनएससीएन(आईएम) अब तक उभरा सबसे बड़ा समूह है। हमें बताया जाता है कि हमारे आसपास का सारा इलाका उन्हीं के प्रभाव क्षेत्र में आता है। ये अपने आपको 'गवर्नमेंट इन एक्जाइल' की संज्ञा देते हैं।
कुछ देर बाद हम उनके सिविल हेडक्वार्टर में होते हैं। यही उनकी सत्ता का केंद्र है जहां तमाम मंत्रालयों के दफ्तर हैं और सुरक्षा के लिए चप्पे-चप्पे पर कमांडो तैनात हैं। आधुनिक तकनीकों से हमारी जांच करने के बाद हमें भीतर घुसने दिया जाता है- विशाल सिंहद्वार जो त्रिकोण की आकृति में पारंपरिक नगा शैली से बनाया गया है और जिसमें नीले रंग की बहुतायत है। सामने जीपीआरएन का झंडा है- नीले रंग का जिस पर लाल और पीले रंग की दो पट्टियां तिर्यक बनाती हैं और ऊपरी हिस्से में एक सफेद सितारा चमक रहा है। यहां से पटकाई की पर्वत श्रृंखला सुरम्य दिखती है। दीमापुर बहुत पीछे छूट चुका है। मुख्य द्वार के भीतर हमें अपनी दोनों ओर मंत्रालयों के दफ्तर दिखाई देते हैं- गृह मंत्रालय, युध्द में शहीद हुए जवानों के कल्याण के लिए मंत्रालय आदि। सामने मुख्यालय का दफ्तर है जिसका द्वारा कुछ इस शैली में बनाया गया है जैसे लगता है कि कोई विशालकाय प्राणी अपने दोनों हाथों को नमस्ते की आकृति में आगे को फैलाए हुए है।
आम तौर पर इस स्थान पर नगा सेना की सिर्फ एक बटालियन ही तैनात रहती है। बाकी बटालियनें अपने-अपने कार्य क्षेत्र में तैनात हैं। सरकारी एजेंसियों के मुताबिक इस सेना की संख्या पांच से दस हजार के बीच है लेकिन एनएससीएन के मुताबिक यह संख्या 20 से 30 हजार है। 1997 से सरकार के साथ चल रही शांति प्रक्रिया के दौरान इन्होंने अपनी सेना को बनाए रखा है। कई पुराने जनरल थे जो अब मर-खप गए, लेकिन हमें यहां 12-14 साल की महिला कमांडो भी दिखाई देती हैं। वह चाय लेकर आती है। उसकी वर्दी कमांडो जैसी है जिस पर 'इंडियन आर्मी' लिखा हुआ है। इसके क्या निहितार्थ हैं? क्या ऐसा जान-बूझ कर किया गया है अथवा ये वाकई भारतीय सेना की वर्दी है?
किसी दूसरे स्थान पर नगा सरकार का जनरल हेडक्वार्टर और आर्मी हेडक्वार्टर है जहां जवानों को प्रशिक्षण दिया जाता है। वह करीब ही है, लेकिन गाड़ी से पहुंचना दुर्गम। हमने पूछा कि यहां बिजली-पानी की क्या व्यवस्था है? 'सरकारी कनेक्शन है....यहां तक सरकार ने बिजली दी है....मोबाइल भी काम करता है....सरकारी नेटवर्क है।' दिमाग में अचानक एक बात कौंधती है कि सरकारी संपत्ति का उपयोग कर के आप सरकार के खिलाफ एक सेना बनाए हुए हैं। यह कहां तक नैतिक है? (जारी...)
(साभार: इंडिया न्यूज़, 17 अगस्त, 2007)
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घुघूती बासूती