असहमति से संवाद वाया घुघूती बासूती जी
कुछ दिनों पहले हुए एक विवाद के दौरान मैंने कहा था कि ब्लागिंग की सबसे बड़ी चीज़, जो मुझे खास लगती है, वह है उसका लोकतांत्रिक होना। यानी हम एक पोस्ट करते हैं और कई लोग उस पर अपनी राय देते हैं। कुछ सिर्फ तारीफ होती है तो कुछ वास्तविक आलोचनाएं। तारीफ से हर कोई डील कर लेता है लेकिन आलोचनाओं से आप कैसे डील करते हैं, यह सबसे अहम है। सहमति के साथ होना बड़ा आसान है, पर असहमति से सहमत होना बड़ा मुश्किल। असहमतियों से संवाद कायम करना ही लोकतंत्र की रूह है। दूसरों की असहमति को हम अपने संवाद में कितना स्पेस देते हैं, यह इस बात का पैमाना है कि हम ख़ुद कितने लोकतांत्रिक हैं, कितने उदार, कितने सहिष्णु।
पिछले दिनों तस्लीमा पर मैंने एक पोस्ट की जिस पर घुघूती बासुती जी के कुछ जेन्यून सवाल थे। पहले मैंने उस सवाल को मटियाना चाहा। तब तक घुघूती जी की एक और टिप्पणी आ गयी। फिर अविनाश की टिप्पणी। तब मुझे लगा कि इनकी बात का जवाब न देना, गलत होगा। मेरे लिए उस सवाल का जवाब देना आसान नहीं था। फिर भी मैंने कोशिश की। ... और घुघूती जी का बड़प्पन देखिये, उन्होंने अपनी असहमति को एक संवाद में बदल दिया। यानी अगर आप अपने अहम को थोड़ा पीछे रखें और ज्ञान के बोझ को अडि़यलपन के रूप में सामने न लायें तो असहमति के साथ संवाद मुमकिन है।
आप भी देखें वह संवाद।
घुघूती जी ने कहा- |
आपकी बात से मन तो सहमत है किन्तु मस्तिष्क यह पूछता है किस आधार पर उन्हें (तस्लीमा को) नागरिकता दी जाएगी ? क्योंकि अपनी पुस्तकों में उन्होंने बांगलादेश में हुए अन्याय की आवाज उठाई है , मन्दिरों के तोड़े जाने की बात कही है । स्त्रियों पर होते अत्याचार की बात उठाई है ? कल यदि कोई भारत सरकार के विरुद्ध बोले, स्त्रियों के विरुद्ध बोले, हिन्दु धर्म के विरुद्ध बोले तब क्या करोगे? मैं तसलीमा जी से बहुत सी बातों में सहमत हूँ किन्तु उन्हें नागरिकता देने से पहले यह सब भी सोच लेना चाहिये । |
घुघूती जी ने दोबारा कुछ कहा। कुछ चीज़ें साफ कीं। |
यहाँ पर कृपया हिन्दु ही नहीं संसार के सब धर्मों का नाम गिनें और भारत सरकार ही नहीं संसार की अन्य सरकारों को भी गिनें । कल यदि कोई भारत सरकार,अन्य सरकारों के विरुद्ध बोले, स्त्रियों के विरुद्ध बोले, हिन्दु ,सिख, क्रिसचियन,बौद्ध, और भी न जाने कितने धर्मों के विरुद्ध बोले तब क्या करोगे? घुघूती बासूती |
अविनाश की राय थी- |
मैंने सब पढ़ा... कौन कह रहा है कि विरोध नहीं हुआ... तस्लीमा नसरीन का इंटरव्यू... और तस्लीमा, हम शर्मिंदा हैं... ये डरे हुए लोग हैं... आख़िर में तस्लीमा को भारत की नागरिकता दी जाए। मैं इस मांग से सहमत हूं... घुघुती जी की बात जितना समझा, उससे सहमत होना मेरे लिए मुश्किल है। हम तो रोज़ ही भारत सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ खड़े हैं। दरअसल तसलीमा का मुद्दा सिर्फ उसका मुद्दा नहीं है- ये भारतीय राजनीति की अपनी पेंच का मुद्दा भी है। मुझे सूचना मिली है कि पुराने हैदराबाद के इलाके में कांग्रेस की पैठ है। अगले साल नगरपालिका का महत्वाकांक्षी चुनाव होना है। एमआईएम कांग्रेस को पसोपेश में डालते हुए मज़हबी मुद्दे के साथ वहां पैठ बनाना चाहती है इसलिए तसलीमा के मुद्दे पर तमाम देशव्यापी विरोधों के बावजूद उसके तेवर कड़े हैं। कांग्रेस चुप है और क्या बोला जाए, उस पर मनन कर रही है। सीपीएम ने कोलकाता में तसलीमा की एक किताब को बैन किया है, लेकिन हैदराबाद में हमले वाले मुद्दे पर मुखर है, क्योंकि वो भी पुराने हैदराबाद में एमआईएम के खिलाफ के वोटों की जमाबंदी चाहती है। बहरहाल, ब्लॉग का इस्तेमाल आपने दिखा दिया है। इन तमाम तरह की राजनीति के बीच प्रतिरोध की सच्ची-ईमानदार तस्वीर दिखा कर। आपको बधाई।' |
फिर मैंने कुछ कहने की कोशिश की |
घुघूती बासुती जी, नब्बे पार एमएफ हुसैन सिर्फ इसलिए हिन्दुस्तान से भागे-भागे चल रहे हैं कि यहां उनके खिलाफ माहौल बनाया गया है और कुछ लोग उन्हें जीवित नहीं देखना चाहते। खतरों के साये में ऐसे लोग क्या करेंगे। कहां जायेंगे। हो सकता है कि तस्लीमा जो लिखती हों, उससे हम असहमत हों। नाराज़ हो। नफरत करते हों पर इसी से किसी को उसे दर बदर करने और उसका वजूद मिटाने का हक नहीं मिल सकता... ऐसा हो रहा है तो यह मानवाधिकार का उल्लंघन है। हिन्दुस्तान का बंगाल कम से कम तस्लीमा को अपनी जमीन से नज़दीक तो रखता है। वहां उसे अपनी जबान, अपने पहनावे, अपने जैसे चेहरे वाले लोग, एक ही खान-पान वाली संस्कृति, वही रवीन्द्र संगीत और नजरुल गीती मिलती है जो स्वीट्जरलैंड में मुमकिन नहीं .... क्या हम किसी को इतना सुकून भी नहीं दे सकते। |
अब फिर घुघूती जी अपनी बात लेकर आयीं- |
नासिरुद्दीन जी , मुझे आपका जावाब उचित लगा और अविनाश जी का भी। मैं तो केवल एक शंका निवारण करवाना चाहती थी । क्योंकि हम में से ऐसे बहुत हैं जो रंग बदल लेते हैं , एक की बुराई बताना तो हमें वैचारिक स्वतंत्रता लगता है पर जब कोई हमारी बुराई करे तो हम सह नहीं सकते।मैं स्वीकार भी करती हूँ कि अकसर मेरी भी पहली प्रतिक्रिया कुछ ऐसी हो सकती है । इन बातों से बाहर निकलने में लगातार कोशिश व समय लगता है । मुझे खुशी है अगली पीढ़ी को हम जैसी ना बनाने के लिए हममें से बहुत ने यत्न किया है ओर सफल भी हुए हैं। |
इस तरह से असहमति से संवाद करने की एक कोशिश हुई। मेरे लिये यह बड़ी बात है। क्या आपको नहीं लगता है कि असहमति से संवाद बहुत जरूरी है।
टिप्पणियाँ
ब्लॉगिंग में असहमति की गुजाइश भले ही कुछ अन्य माध्यमों से अधिक है पर शायद स्थिति कुछ और उदार होनी चाहिए
घुघूती बासूती
Aapne jo samvad kiya usmein kisi ne bhi is prakar ke prash nahi uthaye ki Avinash ki ya aapki jaati kya hai ya pesha kya hai? Lekin kai blogger jab doosron ke blog par tippani karte hain to us blogger ki jaati dharm peshe ke baare mein pahle baat karte hain aur apne vichar baad mein rakhte hain. Aise mein samvad kahan se hoga vivaad hi hoga.
@घुघूती जी, धन्यवाद आपको भी।
@ असहमत जी, जो लोग संवाद नहीं करना चाहते, या संवाद के नाम पर बिलो द बेल्ट वार करते हैं, उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना ज्यादा अच्छा है। असल में जो लोग तथ्यों पर आधारित बातों का तार्किकता के साथ जवाब नहीं दे सकते हैं, वहीं जाति, धर्म का वार करते हैं। जैसे-आपने गुजरात पर आपने इसलिए लिखा कि आपका नाम नासिरूद्दीन है। ऐसे लोगों को इनके हाल पर छोड़ देना बेहतर है।
अगर मैं गुजरात में हुए नरसंहार पर कुछ लिखूं और कोई कहने लगे कि आपने गुजरात पर इस तरह इसलिए लिखा कि आपका नाम नासिरूद्दीन है। ... तो ऐसे लोगों को इनके हाल पर छोड़ देना ही बेहतर है।
तकलीफ के लिए माफी।
तार्किकता बहस को ऊंचाई देती है,पर अनियंत्रित 'पैशन' या भावनाओं का उबाल कई बार बहस की तार्किकता को हाशिये पर ठेल देता है . यहां ऐसा नहीं हुआ . बधाई!