मुसलमानों की ये आवाज़ मजबूत होगी अगर...

(एक)
मुल्‍क और मुसलमानों से जुड़े चंद सवाल
पर कई दोस्‍तों ने अपनी राय दी है। ये सवाल मेरे मन की उपज नहीं हैं और नहीं मेरे पास इनके जवाब हैं। हो सकता है कि इनमें से कई सवाल सिर्फ व्‍यवस्‍था के रवैये के आधार पर बने हों। हो सकता है कई सवाल आभासी हों। इन सवालों का मकसद सिर्फ इतना है कि हम जब आतंकवाद के बारे में बात करें तो हमारी सोच की दिशा एक खास समुदाय को कटघरे में खड़ा करने की न हो। उन्‍हें प्रताडित करने की न हो।‍ आतंकवाद और मुसलमान को पर्याय बनाने की कोशिश न हो। न ही आतंकी कार्रवाइयों को हिन्‍दू बनाम मुसलमान बनाने की कोशिश हो। तब ही शायद हम उन लोगों की पहचान कर पायेंगे, जो आतंक को अपना मज़हब बताते हैं... जिनके लिए बम विस्‍फोट करना, बेगुनाहों की हत्‍या करना पूजा है।
(दो)

ज्‍यादतर दोस्‍तों ने, पोस्‍ट में जो सवाल रखे गये, उन पर कुछ कहने के साथ ही कुछ और मुद्दे रखे हैं। उनसे दो अहम बातें उभरती हैं, एक) मुसलमानों के अंदर बदलाव की प्रक्रिया नहीं हो रही है या पता नहीं चल रहा है और दूसरा) जब मौका आता है तो मुसलमान चुप्‍पी लगा जाते हैं या वे अपने अंदर के कट्टरपंथियों के खिलाफ खड़े नहीं होते। हालांकि दूसरी वाली बात का जवाब मेरी पोस्‍ट में मौजूद है लेकिन प्रतिक्रिया देने की जल्‍दी में उसे हमारे दोस्‍तों ने या तो देखा ही नहीं या नजरअंदाज़ कर दिया। ख़ैर।

मुसलमानों के अंदर बदलाव की कोई प्रक्रिया नहीं है-
यह एक मिथक है। भ्रांति है। मैं अपनी बात उलटे तरीके से शुरू करता हूँ। दोस्‍तों, हम-आप जिसे आज सामान्‍य प्रक्रिया का हिस्‍सा मानते हैं, वो काफी असमान्‍य हालात में वजूद में आये। जैसे- जब राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठायी थी, तो उनका जबरदस्त विरोध हुआ था। जब बाल विवाह के खिलाफ कानून बन रहा था, तो इसके पक्ष में काफी कम लोग थे। यही नहीं आजादी के बाद जब हिन्दू निजी कानूनों को संहिताबद्ध यानी कोडिफाइड करने की शुरुआत हुई तो उसके विरोधियों की इतनी मज़बूत लॉबी थी कि जवाहरलाल नेहरू को भी झुकना पड़ा। यही नहीं बाबा साहब अम्बेडकर को कानून मंत्री के पद से इस्तीफा तक देना पड़ा था।

दोस्‍तों... आज सन् 2007 में हम सबको यह मामूली बात लग रही है और हम इन सब कामयाबियों को अपने खाते में डाल रहे हैं। ... यह सब इसलिए मुमकिन हो पाया कि जिस समुदाय से जुड़े ये सुधार थे, उस समुदाय में एक मज़बूत पढ़ा लिखा मध्‍यवर्ग तैयार हो चुका था, जो ऐसे मुहिम को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। वह समुदाय अपने ऊपर किसी तरह का बाहरी खतरा नहीं देख रहा था और सबसे बढ़कर तत्‍कालीन शासन व्‍यवस्‍था की हिमायत भी इनके साथ थी। विरोध और विरोध को बर्दाश्‍त करने या उससे निपटने की ताकत इस बात पर निर्भर करती है कि समुदाय किस माहौल में रह रहा है। यह सारी चीज़ें इतिहास की किताबों में पढ़ी जा सकती हैं। नेट पर तलाशी जा सकती हैं।

(तीन)

सवाल यह है कि आप एक सवाल के जवाब में एक और सवाल दाग़ कर पीछा नहीं छुड़ा सकते। इसलिए मुसलमान बदलना नहीं चाहते... अपने मज़हबी पेशवाओं के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाते, इस बात की हमें तथ्यों में तलाश करनी चाहिए। क्‍या वाकई में ऐसा है। ज्‍यादा तो नहीं पर कुछ बानगी देखिये-

आजादी के पहले तीस के दशक में इस देश में सबसे पहले मुस्लिम निजी कानून को संहिताबद्ध करने की शुरुआत हुई थी। मुसलमानों के निजी कानून को संहिताबद्ध करने की मुहिम, मज़हबी उलमा ने चलायी थी। यही नहीं मुल्‍क के कानून के तहत औरतों को तलाक लेने का हक सबसे पहले मुसलमान औरतों ने लिया था। शौहरों की ज्‍यादती के खिलाफ औरतों को तला‍क लेने का देश के कानून के तहत यह हक, मील का पत्‍थर है। और यह हक निजी कानून को संहिताबद्ध कर लिया गया था। यह इसलिए मुमकिन हो पाया कि उस वक्‍त मुसलमानों के बीच एक मज़बूत पढ़ा लिखा मध्‍यवर्ग मौजूद था और असुरक्षा का माहौल भी नहीं था।

हालांकि सन् 2007 में उठे सवालों से यह कह कर पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता था कि इतिहास में किसने कितने तीर मारे। क्‍योंकि तब आप पूछेंगे अब क्‍या हो गया। सन् 1947 में या उसके बाद इस मुल्‍क में क्‍या हुआ... यह किसी से छिपा नहीं है। बंटवारे की मार झेल रहा समुदाय जब सम्‍हला तो दंगों का दौर शुरू हो गया और सन् 1989 के बाद तो बस हिंसा ही हिंसा... और नौ/ग्‍यारह के बाद तो अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी मुसलमानों के लिए एक खराब माहौल बन गया।

(चार)

तो दोस्‍तों मुख्त़सर में, किसी भी समुदाय में आंतरिक बदलाव तभी मुमकिन है, जब उस समुदाय में एक मज़बूत पढ़ा-लिखा मध्‍यवर्ग मौजूद हो... जब उस समुदाय को, जिस समाज में वह रह रहा है, वहां का बाहरी माहौल उसे डराता न हो। जिस समुदाय को हर समय एक इम्तेहान से गुज़ारा जा रहा हो... उसे तो बस इम्‍तेहान के सवालों पर नज़र रहती है। डरा सहमा समाज या समुदाय, किसी भी बदलाव की कोशिश को अपने ऊपर खतरे की तरह देखता है।

ज़रा सोचें, गुजरात के नरोदा पाटिया में सरेआम लड़कियों से बलात्‍कार होता है, गर्भवती के पेट से गर्भ निकालकर उसका जश्‍न मनाया जाता है और पूरा समाज तमाशबीन रहता। उस समाज में आप हमले के शिकार समुदाय से किस तरह के बदलाव की उम्‍मीद करते हैं। और ऐसे माहौल में सबसे पहले नियंत्रण का शिकार औरतें होती हैं... हो रही हैं... उनकी गतिशीलता पर नियंत्रण होता है। समाज में बदलाव के लिए खतरे लेने और जूझने की ताकत कम हो जाती है। पांच साल हो गये ... आप गुजरात के बारे में पता कर लें कि वहां मुसलमान किस हाल में हैं (शाइनिंग गुजरात में मुसलमान कहां है)। इस जड़ता को ख़त्‍म करने के लिए ज़रूरी है कि समुदाय के बाहरी समाज में एक बेहतर माहौल का होना... एक ऐसे माहौल का होना जो उसे डराता न हो। जो उसके साथ इस आधार पर भेदभाव न करता हो कि वो किसी खास समुदाय में पैदा हुआ है।

(पांच)

इसके बावजूद यह भी सच है कि कोई भी समाज जड़ नहीं हो सकता। उसमें आंतरिक बदलाव की प्रक्रिया चलती ही रहती है। भले ही धीमी चाल से ही सही... भले ही हम उसे देखना न चाहें... फिर भी कोशिश चलती रहती है। चूंकि यह हम वही देखते, सुनते और यकीन करते हैं- जो हम देखना, सुनना या यकीन करना चाहते हैं। हम चूंकि एक समुदाय को बर्बर, जाहिल, दकियानूस, पिछड़ा देखना चाहेंगे तो वहां यही सब दिखाई देगा। पर बदलाव हो रहा है। इसकी कुछ बानगियां-

  • हक की लड़ाई/ निकाहनामा का जद्दोजहद/ लॉ बोर्ड के खिलाफ आवाज़
  1. http://pay.hindu.com/hindu/photoDetail.do?photoId=5164103
  2. http://www.thehinduimages.com/hindu/photoDetail.do?photoId=4795197
  3. http://www.hindu.com/mag/2005/05/15/stories/2005051500260300.htm
  4. http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/1101813.cms
  5. http://www.hindu.com/2005/05/07/stories/2005050706531200.htm
  6. http://www.aidwa.org/content/issues_of_concern/communalism.php
  • भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का गठन
  1. http://www.actionaidindia.org/Muslim_Women_Speak_Out.htm
  2. http://www.tribuneindia.com/2007/20070112/delhi.htm#4
  • निजी कानून से इतर वैकल्पिक कानून बनाने की मांग
  1. SC notice to govt on adoption
  • कॉल सेंटरों में रात में बेखौफ काम करतीं मुस्लिम लड़कियां
  1. Coffee Break at 11.30 P.M

यह सिर्फ बानगी है। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। हम इनके बारे में नहीं जानते, यह हमारी कमज़ोरी है। हमें खुद से सवाल करना चाहिए कि हम यह सब क्‍यों नहीं जानते।

पर इन सब कोशिशों को एक दंगा, एक धमाका सालों पीछे ढकेल देता है। ... जैसा गुजरात में हुआ... जैसा हाशिमपुरा या भागलपुर में हुआ था और जैसा हैदराबाद में होगा...। इसलिए अगर हम सब तहेदिल से न सिर्फ इस मुल्‍क के बल्कि मुल्‍क में रहने वालों के खैरख्‍वाह हैं तो हमें अपने आसपास का माहौल पुरअमन और बेखौफ़ बनाना होगा।

(टिप्‍पणी करने से पहले ऊपर दाहिने में की गयी गुज़ारिश को ज़रूर पढ़ लें।)

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टिप्पणियाँ

Dr Prabhat Tandon ने कहा…
मुस्लिम समज मे आ रहे धीरे मगर positively बदलाव को सुनकर अच्छा लगा । मुझे भी लगता है कि तमम मूर्खता पूर्ण फ़तवों के बावजूद आज का मुस्लिम इन पर अधिक ध्यान नही देते हाँ अलबत्ता मीडिया इस पर प्रपंच अधिक मचाता रहता है ।
ghughutibasuti ने कहा…
नासिर जी , आपका लेख अच्छा लगा । लिखते रहिये और जानकारी देते रहिये । जानकारी का न होना भी लोगों को एक दूसरे के विषय में भ्रम पालकर लोगों को एक दूसरे से अलग करता है ।
घुघूती बासूती
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
आपने बहुत जतन से और ईमानदारी के साथ यह लेख लिखा है। मैं आपके इस जज्बे को सलाम करता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि आपके इस लेख बल्कि इस ब्लाग के पीछे भी वही सवाल हैं, जिनका आपने इस पोस्ट में जिक्र किया है। भले ही हमें इस समाज से बहुत कुछ मिला है, पर बहुत कुछ हमें इसके लिए "पे" भी करना पडता है। मेरी समझ से यह सबके साथ होता है। किसी के साथ कम किसी के साथ ज्यादा। पर चूंकि हम अपने साथ होने वाली घटनाओं को ज्यादा गहराई से महसूस करते हैं, इसलिए वे हमें ज्यादा पिंच करती हैं। पर आप जिस धैर्य और ईमानदारी के साथ उनके जवाब देने की कोशिश की है, वह कूवत बहुत कम लोगों में होती है।
आप इसी शिददत के साथ लगे रहें, उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि आने वाला समय इससे बेहतर होगा।

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