ओसामा का ख़त महात्मा गांधी के नाम

आतंक क्‍यों:ओसामा बिन लादेन-महात्‍मा गांधी संवाद 1

(नोट- इंग्‍लैंड में बसे भारतीय मूल के विचारक, दार्शनिक लार्ड भिक्खु पारिख राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर, लेबर पार्टी के हाउस आफ लार्ड के सदस्य तथा गांधी पर लिखी तीन पुस्तकों के लेखक हैं। अपने बेबाक विचारों के लिए प्रसिद्ध भिक्‍खु पारिख ने कई ज्‍वलंत विषयों पर अपनी कलम चलाई है। गुजरात में सन् 2002 में हुई हिंसा हो या फिर प्रवासी हिन्‍दुस्‍तानियों की बात, उनकी राय हमेशा अहम रही है।

यहां पेश उनकी रचना अंग्रेजी में सन् 2004 में प्रोस्‍पेक्‍ट में प्रकाशित हुई। हिन्‍दी में इसे गिरिराज किशोर के सम्‍पादन में निकलने वाली पत्रिका अकार के ताज़ा अंक में प्रकाशित किया गया है। अनुवाद महेन्‍द्रनाथ शुक्‍ला का है। ढाई आखर को इसके इस्‍तेमाल की इजाजत देने के लिए हम गिरिराज किशोर और प्रियंवद के आभारी हैं।)

भूमिका
संसार में लाखों प्राणियों की तरह मैं भी 9/11 घटना से बहुत विक्षुब्ध हूँ और आतंकवाद की घोर निन्दा करता हूँ। आतंकवाद के विरुद्ध व्यापक युद्ध छेड़े जाने के बाद भी हिंसक घटनायें बढ़ती ही जा रही हैं, जैसा कि मैड्रिड में हुआ। बमबाज़ों को क्या प्रेरित करता है
?
वे अपने कारनामों के साथ कैसे जीवित रहते हैं? क्या हिंसा के इस चक्रवात का कोई विकल्प है? इसके बारे में सलाह देने के लिए अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से अच्छा और कौन हो सकता है? उनके और ओसामा बिन लादेन का काल्पनिक संवाद दो बातें करने का प्रयास करता है। बिना बिन लादेन के विक्षिप्त दृष्टिकोण को समझे उसका उन्मूलन संभव नहीं है। दूसरा उसके द्वारा ही उसका वैचारिक विकल्प ढूंढ़ा जा सकता है। मेरा बिन लादेन एक बुद्धिजीवी, लाक्षणिक पुरुष है, जो उग्र इस्लामी आतंकवाद का पक्षधर है। उसका वास्तविक बिन लादेन से कोई लेना देना नहीं है।

भिक्खु पारिख


2-अक्टूबर-2003

प्रिय महात्मा गांधी

जिस दिन से मेरे अनुयाइयों ने कीन्या के अमरीकी दूतावास, यमन में यूसस कोल (Uss Cole) और तदोपरांत न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर तथा वाशिंगटन डीसी के पेन्टागन पर आक्रमण किया, तब से मैं और मेरे साथी संसार की सभ्यता के शत्रु घोषित कर दिए गए जिनका जंगली पशुओं की तरह शिकार किया जा सकता है, जिन्हें प्रताड़ित किया व मारा जा सकता है। मुझे अमरीकियों की इस प्रतिक्रिया पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ परन्तु मेरे कुछ समानधर्मी मुसलमानों की इसी प्रकार की प्रतिकूल प्रतिक्रिया पर आश्चर्य अवश्य हुआ। मेरा फ़र्ज़ बनता है कि मैं उनको उनकी इस प्रतिक्रिया के बारे में समझाऊं कि हमने ऐसा क्यों किया, और क्यों हम उनकी निन्दाओं से अविचलित हैं और क्यों अवसर मिलने पर हमें फिर वैसा ही करना चाहिए। कोई भी राजनीतिक घटना उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के बिना समझी नहीं जा सकती। इसीलिये मैं संक्षिप्त इतिहास से आरम्भ करता हूं।

इस्लाम एक विशाल धर्म है जो अन्य दो अब्राह्मीय (Abrahmic) धर्मों का समकक्षीय है। वह उन दोनों को सच्चा तथा उचित धर्म मानता है। उनके पैगम़्बरों का सम्मान करता है और उनके प्रति सहनशील रहता है। इतिहास के अनुसार इस्लाम बाद में आया फिर भी अपने मूलभूत धार्मिक विश्वासों व आस्थाओं के कारण शीघ्र ही विश्व के विभिन्न भागों में रहने वाले लाखों मनुष्यों को वह मान्य हो गया। उसने अपने अनुयाइयों को इतना प्रेरित व उत्साहित कर दिया कि उनकी सेनाओं ने प्रतिकूल परिस्थितियां होते हुये भी विजय प्राप्त कीं और उसको विश्व में दूसरे नम्बर का शक्तिशाली धर्म बना दिया।

ईसाई, जो लम्बे समय से उससे ईर्ष्याग्रस्त थे और उसके प्रतिद्वन्द्वी थे, उन्होंने उसको नीचा दिखाने के लिये उसके पैगम्बरों का व उसकी आस्थाओं का मज़ाक बनाने का प्रयास किया। उन्होंने युद्ध भी छेड़े परन्तु इस्लाम ने इन सबसे पार पा लिया और कई बड़े साम्राज्यों की स्थापना की। विशाल ऑटोमन साम्राज्य उसका अन्तिम गढ़ था।

आधुनिकीकरण के चलते इंगलैंड, फ्रांस तथा अन्य यूरोपीय देश औद्योगिक हो गये। पूंजीवाद व साम्राज्यवाद के लिये आवश्यक धन व लाभ जुटाने के लिये उन्होंने विश्व के विभिन्न भागों पर अधिकार करना आरंभ कर दिया और विजित उपनिवेशों को अपने ही सांचे में ढालने का प्रयास किया। कई इस्लामिक देश, जो अपने मौलिक धर्म से विमुख होकर भ्रष्टाचार में डूबे हुये थे, उनके आसान शिकार बन गये। बेहतर सैन्य शक्ति से सुसज्जित ब्रिटिश व फ्रांसीसियों ने ऑटोमन साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर दिया और इसको अप्राकृतिक राजनीतिक प्रदेशों में विभाजित करके भ्रष्ट राजाओं के अधिकार में दे दिया। उनको दुर्बल व विभाजित रखा ताकि ब्रिटिश व फ्रांसीसी की शक्ति सर्वभौम रहे।

1939-45 के विश्व युद्ध के उपरांत उन्होंने फिलस्तीनियों को उनकी मातृभूमि से वंचित करके उसका एक बड़ा भाग यहूदियों को दे दिया। इस तरह से इसराईल के रूप में उन्होंने लम्बे समय के लिये एक अन्यायपूर्ण घाव दे दिया। मुस्लिम समाज के बीच में सदा से यहूदी समुदाय रहते चले आ रहे थे। यूरोपीय लोगों के मुकाबिले मुस्लिम उनको कहीं अधिक सुरक्षा प्रदान करते थे। परन्तु यहूदियों को अपना देश देना, वह भी फिलस्तीनियों को वंचित करके, तथा अरब संसार के बीच में, एक अन्यायपूर्ण व भड़काऊ कदम था।

1950 के दशक में शक्तिविहीन यूरोपीय देशों के स्थान पर अमरीकियों ने उसी नीति का अनुसरण किया। पश्चिमी संसार को सोवियत रूस से सुरक्षा देने की आड़ में उसने छोटे-छोटे कठपुतली राज्य स्थापित कर दिये, विशेषकर मध्य पूर्व के मुस्लिम प्रदेशों में जहां के तेल भंडारों के ऊपर उसकी समृद्धता निर्भर थी। इसराईल के प्रति तो वे यूरोपीय देशों से भी अधिक दयावान थे। अपनी विदेशी सहायता का अधिकांश भाग वे उसकी सैनिक व्यवस्था को सुधारने तथा उसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को प्रोत्साहित करने में व्यय करते थे। सोवियत संघ के विघटन से उनकी सार्वभौमिकता की भावना और अधिक बढ़ गई और उन पर रहा सहा अंकुश भी जाता रहा। आज अमरीका समस्त संसार को अपने ढांचे में ढालना चाहता है। वह हर समाज को धर्म विमुख पूंजीवादी, उदारवादी व उपभोक्तावादी बना देना चाहता है। उसके सैनिक 120 देशों में स्थित हैं और उनके द्वारा वह उन देशों से अपनी इच्छानुसार काम करवा लेता है। वह समस्त अन्तर्राष्ट्रीय बड़ी आर्थिक व राजनीतिक संस्थाओं पर अधिकार जमाकर उनसे अपने हितों को साध लेता है। यदि उसमें सफल न हो पाये तो उनको घूस व धमकाने से प्रभावित करने की चेष्टा करता है, और यदि वह भी असफल हुआ तो अन्तर्राष्ट्रीय नियमों व मूल्यों की अनदेखी करके उन पर एकतरफा कार्यवाही कर देता है। कोई सरकार उससे बच नहीं सकती।

यदि आधुनिक रिपब्लिकन सरकार यह साम्राज्यवादी हरकतें पूरी बेशरमी से कर रही है तो पिछली क्लिन्टन सरकार भी कोई विशेष बेहतर नहीं थी। वे भी वही नीतियां अपनाते थे यद्यपि वे बजाय सैनिक बल के, आर्थिक व राजनीतिक तरीक़ों पर अधिक निर्भर थे।

यद्यपि अमरीकी साम्राज्य के विरुद्ध विश्व के हर भाग में युद्ध होना चाहिये, किन्तु मैं मुस्लिम प्रदेशों की स्वाधीनता के बारे में विशेषकर उत्सुक हूं- इसलिये नहीं कि`मैं भी मुसलमान हूं परन्तु इसलिये कि वे अमरीकी साम्राज्य की सबसे कमज़ोर कड़ी हैं और वहां की मेरी सफलता औरों को प्रोत्साहित कर सकती है। मेरे उद्देश्य चार हैं- पहला, मुस्लिम समाज से अमरीकियों को बाहर निकाल फेंकना, दूसरा, इसराईल को यहूदी राज्य की हैसियत से समाप्त करके स्वतन्त्र फिलस्तीन बनाना, जहां यहूदी समुदाय सुरक्षित अल्पसंख्यक की तरह रह सके, तीसरा, मुस्लिम समाज से अमरीकी पिछलग्गुओं को निकालना ताकि वे राज्य वास्तविक इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार रह सकें; अन्त में, उम्माओं (umma) को मिला कर पुराने मुस्लिम देश जैसे फिलिस्तीन, बुखारा, लेबनान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, चाड इरिट्रिया, सोमालिया, फिलीपीन्स, बर्मा, दक्षिण यमन, ताशकन्द और अन्दालूसिया में मुस्लिम राज्य स्थापित करना ताकि इस्लाम पुरानी सभ्यता के शिखर पर पहुंच सके।

इन सब उद्देश्यों को पूरा करना केवल हिंसा के द्वारा ही संभव है क्योंकि वही भाषा अमरीकियों के समझ में आती है। हमारी हिंसा आतंकवाद पर ही आधारित हो सकती है क्योंकि साधन विहीन मुसलमान खुले संग्राम में अमरीकियों का मुकाबला नहीं कर सकते। यद्यपि हमारा आतंकवाद ''अमरीकी सैनिक व आर्थिक शक्तियों’’ के विरुद्ध ही है, फिर भी नागरिकों को शत प्रतिशत बचाना संभव नहीं है। अमरीका स्वयं भी युद्ध में हमारे नागरिकों को अछूता नहीं रखता; अमरीकी प्रेरित अभियान में लगभग 5 लाख इराक़ी बच्चे मारे गये थे। अमरीकी नागरिक अपनी मर्जी से सरकार चुनते हैं और इसकी कार्यशैली का समर्थन करते हैं (कम से कम सामूहिक रूप से विरोध प्रकट नहीं करते हैं) और इस प्रकार से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से इसका समर्थन करते हैं और इसके जिम्मेदार हैं।

मैं केवल दो बातें और कहना चाहूंगा। पहली, कि हमारा आतंकवाद केवल प्रतिक्रिया-स्वरूप है। हम केवल अमरीकी आतंकवादी हिंसा का ही उत्तर दे रहे हैं। अमरीकी लोग हमारा धन व तेल लूट रहे हैं, हमारे धर्म पर हमला बोल रहे हैं और हमारे आत्मसम्मान को ठोकर मारकर अपने वैश्विक शतरंज की चालों का मोहरा बना रहे हैं। वे हमको आतंकवादी बनाने की धृष्टता करते हैं जबकि हम केवल अपनी सुरक्षा ही कर रहे हैं।

दूसरी यह, कि मैं सराहनीय और निन्दनीय आतंकवाद में अन्तर मानता हूं। क्रूरता, थोपी हुई दासता, भ्रष्ट राज व दगाबाजी से मुक्ति प्राप्त करने के लिये की हुई हिंसा को मैं सराहनीय मानता हूं, उन सबको थोपने के लिये की गयी हिंसा को निन्दनीय। मेरे अनुयायी कायरों की तरह हिंसा नहीं करते और न उनसे कोई स्वार्थी लाभ उठाने की चेष्टा करते है।। वे जीवन के साधारण सुख-पेशा, परिवार, यहां तक कि जीवन भी गवां देते हैं और अपने बलिदान से यह दिखा देते हैं कि वे उत्कृष्ट आदर्शों से प्रेरित हैं। हमारा आतंकवाद नैतिक व धार्मिक है, न कि अपराधिक, जैसा कि पश्चिमी आलोचक कहते रहते हैं। हमारी अर्न्तात्मा बिल्कुल निर्दोष है और मैं अपने मुस्लिम सहयोगियों से कहता हूं कि अमरीकियों तथा उनके सहगोगियों को मारना-चाहे वे सैनिक हों या असैनिक, हर मुसलमान का कर्त्तव्य है।

आपका
ओसामा

महात्‍मा गांधी का जवाब अगली पोस्‍ट में पढ़ें

(अकार के लिए सम्‍पर्क करें- प्रियंवद, 15/269, सिविल लाइंस, कानपुर;208001, फोन- 0512- 2305561)

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टिप्पणियाँ

Dr Prabhat Tandon ने कहा…
अगले भाग की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी ।

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