क्या ओसामा को महात्मा गांधी की बात पसंद आयी
आतंक क्यों:ओसामा बिन लादेन-महात्मा गांधी संवाद 3
भूमिका- संसार में लाखों प्राणियों की तरह मैं भी 9/11 घटना से बहुत विक्षुब्ध
भिक्खु पारिख
प्रिय महात्मा गांधी,
1 जनवरी 2004
मैं स्वीकार करता हूं कि मुझको अब से पहले आपका लेखन पढ़ने की, आपकी जीवनशैली समझने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई थी। आप मुस्लिम देशों में उतने जाने नहीं जाते जितने पश्चिमी देशों में। मैंने केवल यही सुन रखा था कि आप एक हिन्दू नेता थे, जिनको मुसलमान लोगों की निष्ठा प्राप्त नहीं थी और जिन्होंने अंग्रेज़ों का विरोध शांति प्रिय एवं स्त्रियोचित तरीक़ों से किया था। परन्तु आपके कथन की कुछ बातों के बाद मुझमें आप के जीवन व लेखन को प्रतिबिम्बित करने वाली बातों को पढ़ने की इच्छा जाग्रत हुई। यद्यपि मैं वस्तुस्थिति को अब कुछ दूसरे ढंग से देखता हूं, फिर भी मैं अपने विचारों को बदलने के लिये तैयार नहीं हूं।
आप अपने भारत के अनुभवों को गल़त तरीके से समझ रहे हैं और अन्य नीतियों की तरह, उनको ऐसे समाज पर लादना चाहते हैं जिन पर वे लागू नहीं होते हैं। आपके देश पर स्वयं अंग्रेजी सेनाओं ने कब्ज़ा नहीं किया था, इसलिये उनको देसी सहायता
इसलिये आपको अपने स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश जनता के कुछ सहानुभूतिपूर्ण समर्थन का लाभ मिलता रहा। जब आप भारत के राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हुये तब तक ब्रिटिश
जिन ऐतिहासिक सन्दर्भों में मुझे कार्य करना है वे बिल्कुल भिन्न हैं। इस समय केवल एक शक्ति हावी है जो विश्व भर में सक्रिय है। शीतयुद्ध में विजित होने के बाद तो वह अत्यधिक आहलादित है और समझती है कि वह जैसा चाहे वैसा कर सकती है। उसकी अर्थव्यवस्था केवल लाभ पर आधारित है और इसलिये वह सारे विश्व को अमरीकी उत्पादन का बाज़ार बना देना चाहती है। उसकी राजनीतिक व्यवस्था धन तथा प्रभावशील स्वार्थी वर्गों के अधिकार में है। इस देश में अन्य किसी धनवान देश से अधिक बंदी हैं, अधिक गरीब हैं। इस देश ने अन्य किसी देश के मुकाबले युद्ध - छिपे हुये, आमने सामने या परोक्ष रूप से, लड़े हैं। फिर भी वह समझता है कि उसकी अमरीकी सरकार विश्व में सबसे अच्छी है। बिना किसी असुविधा के वह सोचता है कि उसका अधिकार, वरन् कर्त्तव्य है कि अपनी अर्थव्यवस्था अन्य देशों पर थोप दे। किसी एक देश के अन्दर शक्ति, स्वार्थ, नैतिक दंभ, राष्ट्रीय स्वार्थ, और देवदूती भावना के अद्भुत सम्मिश्रण से विश्व में एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा हो गई है। श्रीमंत गांधी, आपकी विचारधारा एक ऐसे समय की है जो समाप्त हो चुका है और उसका कोई महत्व इस अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाले लोगों के लिये नहीं है।
विश्व शांति, स्थिरता और न्याय की खातिर अमरीकियों को रोकना आवश्यक है। इसके लिये केवल सैन्य बल ही काफी नहीं है बल्कि उत्कृष्ट व्यक्तिगत व सामाजिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसके द्वारा मनुष्य को आत्मिक प्रेरणा व आदर्श प्राप्त हो सके। यूरोप ऐसा करने में असमर्थ है क्योंकि वह भी उसी पश्चिमी सभ्यता का अंश है और अमरीकी साम्राज्य की लूट में भागीदारी के लिए बहुत उत्सुक है। केवल इस्लाम ही उसका विकल्प है। उसके पास ही वास्तविक उत्तम समाज का दिव्य दर्शन है और उसको पाने की इच्छाशक्ति है। इसी के पास यथेष्ट धन, जनशक्ति और मिश्रित समुदायों पर राज करने का लम्बा ऐतिहासिक अनुभव है। अतएव यह आवश्यक है कि इस्लामिक देश एक जुट हो जायें, परमाणु अस्त्रों से सुसज्जित हो जायें, अपने तेल संसाधनों पर अधिकार कर लें और सरकार को एक बेहतर दिशा में ले जायें। आप इसको साम्राज्यवाद कहते हैं। मैं आपके भय को समझ सकता हूं लेकिन मैं आपको आश्वस्त कर देना चाहता हूं कि हम अपनी विचारधारा दूसरों पर थोपना नहीं चाहते और न उनके समाज को संचालित करना चाहते हैं। हम पुराने मुस्लिम देशों में इस्लामिक सभ्यता फिर से लाना चाहते हैं। हमें दृढ़
आप आधुनिकता को नहीं मानते, मैं मानता हूं। विश्व का आधुनिकीकरण अब बना रहने वाला ही है। बहुत कुछ उसके पक्ष में है और उससे बाहर रहने वाला सदा अशक्त रहेगा। मैं आधुनिकता का विकल्प नहीं चाहता, जैसा कि आप चाहते हैं। मैं परमार्जित आधुनिकता चाहता हूं, एक ऐसा समाज जो आधुनिक तकनीक से लाभान्वित होकर इस्लाम की सेवा कर सके। मैं परमाणु अस्त्र, आधुनिक राज्य व्यवस्था, औद्योगीकरण
आपकी विचारधार के विपरीत, मैं हिंसा को पारम्परिक रूप से अनुचित नहीं समझता हूं। मैं उसको उसके उद्देश्यों तथा उन उद्देश्यों को प्राप्त करने की सामर्थ्य के अनुसार आंकता हूं। आपके अहिंसात्मक आन्दोलन के साथ आतंकवाद भी अलग से चलता रहता था जिसके कारण अंग्रेज कमज़ोर पड़ते थे और भयभीत भी होते थे। अत: स्वाधीनता का श्रेय उसको भी उतना ही दिया जाना चाहिये जितना आपकी अहिंसा को। संघर्ष की सफलता के लिये उसके हर मार्ग के लिये उपयुक्त वातावरण आवश्यक है।
अहिंसात्मक संघर्ष के लिये भद्र विपक्ष, विरोध करने की सुविधा और बहुत कुछ निरपेक्ष
यदि आपको इसका और प्रमाण चाहिये तो अमरीकियों और अंग्रेजों के इराक़ के विरुद्ध युद्ध को न्यायोचित ठहराने के प्रयासों पर नज़र डालें। उन्होंने बहुत गंभीरतापूर्वक घोषणा की थी कि उनके पास पक्के प्रमाण हैं कि इराक़ के पास व्यापक जन-संहार के अस्त्र हैं। परन्तु अभी तक वे इन अस्त्रों को दिखा नहीं सके। जब हैन्स ब्लिक्स ने उनको सावधान करने का प्रयास किया तो उन्होंने उसी की निन्दा की। ब्रिटिश तथा अमरीकी गुप्तचरों की चौकस सूचनाओं को राजनेताओं ने जानबूझ कर तोड़ मरोड़ कर गुप्तचरों से भी अधिक बेईमानी का प्रदर्शन किया। हमको अभी तक यह पक्की सूचना नहीं दी गई कि युद्ध में कितने इराकी असैनिक नागरिकों की हत्या हो चुकी है। जहां तक सैनिकों की हत्या का प्रश्न है किसी को इसकी चिन्ता ही नहीं है मानो इराक़ी सैनिकों के जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है। अमरीकी सैनिकों द्वारा इराक़ी जनता पर की हुई रोज़ाना की क्रूरता का कोई समाचार ही हमें नहीं मिलता। अभी भी किसी अमरीकी सैनिक पर इसके लिये कोई मुकदमा नहीं चला, सज़ा की तो बात ही छोड़ दें। इस वातावरण में अहिंसक विरोध की सफलता की कोई संभावना नहीं है। विश्व को सूचना ही नहीं मिलेगी कि हमारे ऊपर क्या क्रूरतायें व हमारा क्या अपमान हो रहा है। इसलिए उसका हमारे पक्ष में प्रभाव डालने का प्रश्न ही नहीं है। श्रीमंत गांधी, जब आपसे मार्टिन ब्यूबर ने पूछा कि हिटलर के कैम्पों में सताये हुये यहूदियों को आप क्या सलाह देंगे तो आपके पास कोई उत्तर नहीं था। जैसाकि उसने कहा, जहां कोई प्रत्यक्षकर्मी ही नहीं है, वहां शहादत का क्या स्थान है? वह केवल बेमतलब जीवन खोना है।
हिन्दू धर्म के मुकाबले इस्लाम धर्म हिंसा के बारे में अधिक लचीला है। वह उसको किन्हीं दशाओं में अनुमोदित, यहां तक कि आदेशित भी करता है। स्वयं पैगम्बर ने हिंसा अपनाई थी। उनके अनुयाइयों ने, तथा अन्य मुस्लिम धार्मिक व राजनीतिक नेताओं ने इसका प्रयोग किया। यदि मैं अहिंसा का प्रत्यक्ष समर्थन भी करूं तो हमारे मुस्लिम
हिंसा के द्वारा ही हमने अफ़गानिस्तान को रूस से छुटकारा दिलाया। अमरीका ने यह समझा और आवश्यकतानुसार हमारी सहायता की। इसी कारण वे अब डरे हुये हैं कि हम उनके विरुद्ध वही मार्ग अपनायेंगे। जैसाकि मैं कई स्थानों पर कह चुका हूं, रूस के विरुद्ध हमारा संग्राम एक 'धार्मिक अनुभव था' और हमारी विचारधारा के लिये एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उससे हमको बहुत आत्मविश्वास मिला, हमारा राजनीतिक क्षितिज विस्तृत हुआ, हमारे अन्तर्देशीय संघटन बनाने में सहायक हुआ, और हमको एक संकुचित पारम्परिक अरबी देशभक्ति के स्थान पर विस्तृत इस्लामिक एकता का दृष्टिकोण प्राप्त हुआ। हम आपके मार्ग के बजाय अपना आज़माया हुआ सफल मार्ग अपनायेंगे। आप कहते हैं कि हम अपने विपक्षियों के निचले धरातल के बराबर न झुकें और ऊंचे सिद्धांतों पर ही टिके रहें। क्यों ? यदि दूसरे हम पर वार करते हैं तो हम क्यों न पलट वार करें? यदि वे मुझको या हमारे लोगों को नुकसान पहुंचायेंगे तो हम भी उनको पहुंचायेंगे। हम अपने विपक्षियों को बचाकर अपनी मुसीबतें क्यों बढ़ायें? मैं पैगम्बर मुहम्मद का अनुयाई हूं न कि जीसस क्राइस्ट का।
आपका
ओसामा
अगर आपने पहले के संवाद नहीं पढ़ें हैं तो नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें-
Technorati Tags: नासिरूद्दीन, लार्ड भिक्खु पारिख, आतंकवाद और इस्लाम, गांधी, Lord Bhikhu Parekh, Nasiruddin,Gandhi,Terrorism and Islam, Osama
टिप्पणियाँ
आशा है यह संवाद पाठकों की चेतना को झझकोरेगा और उन्हें इन तमाम बिन्दुओं पर नए सिरे से सोचने पर विवश करेगा।
यह श्रृंखला बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर कर रही है!