महात्मा गांधी का आखिरी जवाब

अब आप पढ़ें कि ओसामा की बातों का महात्‍मा गांधी के पास क्‍या जवाब है। इस संवाद के रचयिता हैं दार्शनिक, राजनीतिक विश्‍लेषक लार्ड भिक्खु पारिख यह इस संवाद का आखिरी खत है। इसकी खत की तारीख काफी अहम है। यानी जिस दिन यह खत लिखा गया, वो बिना कुछ कहे काफी कुछ कह जाता है।

आतंक क्‍यों:ओसामा बिन लादेन-महात्‍मा गांधी संवाद 4
भूमिका- संसार में लाखों प्राणियों की तरह मैं भी 9/11 घटना से बहुत विक्षुब्ध हूँ और आतंकवाद की घोर निन्दा करता हूँ। आतंकवाद के विरुद्ध व्यापक युद्ध छेड़े जाने के बाद भी हिंसक घटनायें बढ़ती ही जा रही हैं, जैसा कि मैड्रिड में हुआ। बमबाज़ों को क्या प्रेरित करता है? वे अपने कारनामों के साथ कैसे जीवित रहते हैं? क्या हिंसा के इस चक्रवात का कोई विकल्प है? इसके बारे में सलाह देने के लिए अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से अच्छा और कौन हो सकता है? उनके और ओसामा बिन लादेन का काल्पनिक संवाद दो बातें करने का प्रयास करता है। बिना बिन लादेन के विक्षिप्त दृष्टिकोण को समझे उसका उन्मूलन संभव नहीं है। दूसरा उसके द्वारा ही उसका वैचारिक विकल्प ढूंढ़ा जा सकता है। मेरा बिन लादेन एक बुद्धिजीवी, लाक्षणिक पुरुष है, जो उग्र इस्लामी आतंकवाद का पक्षधर है। उसका वास्तविक बिन लादेन से कोई लेना देना नहीं है।
भिक्खु पारिख


प्रिय ओसामा
30 जनवरी 2004

तुमने निम्न चार धारणायें प्रपादित की हैं- पहली, अमरीकी विश्व पर आधिपत्य जमाने के लिए साम्राज्यवादी प्रयास में लगे हैं। दूसरी, मुस्लिम समाज को इस्लाम के वास्तविक सिद्धांतों के अनुसार परवर्तित कर देना चाहिये। तीसरी, अमरीकियों व उनके देशी सहयोगियों को समाज से निकाले बिना ऐसा संभव नहीं है। चौथी, केवल हिंसक आतंकवाद से ही यह हो सकता है।

जहां तक पहला सवाल है, तुम्हारी सोच समस्त अमरीकियों के बारे में सही नहीं है। उनमें से कुछ के बारे में तुम्हारी सोच सही है पर अन्यों के लिये नहीं। कई अमरीकियों ने उनके नाम पर की गई कार्यवाही पर चिंता प्रकट की है। उन्होंने इराक युद्ध का विरोध भी प्रकट किया है। सरकार को समर्थन करने वाले कुछ वर्ग ऐसा कर रहे हैं क्योंकि वे 9/11 की घटनाओं से डरे हुये हैं। उनका विश्वास था कि उनका देश विदेशी आक्रमण से सुरक्षित है। वह विश्वास टूट गया है और उनको भय है कि अभी और आक्रमण भी हो सकते हैं। बुश उनको सांत्वना देते हैं कि उसके विश्व आतंकवाद के विरुद्ध अभियान से ही उन्हें वांछित सुरक्षा मिल सकती है, इसीलिये वे उसका साथ देते हैं। जब तक तुम इसी प्रकार बात करते रहोगे जैसी कि कर रहे हो, वे डरते रहेंगे और बुश की नीति का समर्थन करते रहेंगे। यदि तुम शांति की भाषा बोलते और अमरीकी उन्नतिशील शक्तियों से सम्बन्धित रहते, तो तुम्हारी सफलता की अधिक संभावना थी।

जहां तक कि तुम्हारी दूसरी बात का प्रश्न है, मैं पूरी तरह से उसके विरुद्ध हूँ। मेरा पूर्व तथा वर्तमान का अनुभव मुझको विश्वस्त करता है कि धर्म और राज्य का गठबंधन दोनों को भ्रष्ट कर देता है। जनजीवन में धर्म का एक उचित स्थान अवश्य है। उसी से मनुष्य की आस्था व उद्देश्य संचालित होते हैं परन्तु यह कहना कि राज्य धर्म पर आधारित हो या वह धर्म को बाध्य करे या धर्म के सिद्धान्तों से संचालित हो, बिल्कुल भिन्न बात है। सरकारें बाह्य शक्ति पर निर्भर होती हैं, धर्म स्वतन्त्रता पर और दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। तुम्हारे साथ स्थिति और भी खराब हो जाती है क्योंकि तुम धर्म को अविचल, संकीर्ण और मताग्रही समझते हो न कि खुला हुआ, उदार व सहनशील। तुमको इस कारण एक संकुचित, धर्म प्रधान समाज की बाध्यता हो जाती है, जो व्यक्ति व समाज के हर मसले में दखल देती है। यह धर्म को नष्ट करने का तथा आतंकवादी राज्य स्थापित करने का निश्चयात्मक तरीक़ा है, जिसमें व्यक्ति एक आत्माविहीन कठपुतली बनकर जीवनयापन करता है। क्या तुमने ईरान से, व स्वयं के 'दो पवित्र मस्जिदों के देश'- जैसा तुम सऊदी अरेबिया को कहते हो- की दुर्दशा से कोई सीख नहीं ली? ये दोनों देश धर्म व राज्य को अलग रखने की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं।

तुम्हारा तीसरा बिन्दु केवल आंशिक रूप से सत्य है। तुमसे विचार विनिमय के बाद मैंने अमरीका की मुस्लिम राज्यों में दखलन्दाज़ी के इतिहास का गहराई से अध्ययन किया। मैं तुम्हारे विचार से आंशिक रूप से सहमत हूं कि तुम्हारे समाज में सार्थक बदलाव के बिना अमरीकी प्रभाव समाप्त नहीं हो सकता। किन्तु अमरीकियों को शारीरिक रूप से भगा देने मात्र से यह आवश्यक नहीं है कि उनके प्रभाव व जीवन मूल्य नष्ट हो जायेंगे। यदि तुम्हारे लोग उनके प्रति आकर्षित रहेंगे। तुम विचारों को विचारों से ही लड़ सकते हो। उसके लिये स्पष्ट रूप से विकसित विकल्प की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जब तक तुम्हारा समाज विभाजित व अन्यायपूर्ण रहेगा और सम्पूर्ण स्वतन्त्रता और समरसता से वंचित रहेगा, तब तक वह कमज़ोर रहते हुये विदेशी ताकतों के आधिपत्य व उनकी चालबाज़ियों से बच नहीं पायेगा। विदेशियों और उनके देशी प्रतिनिधियों पर आतंकवादी हमलों से तुम आहलादित भले ही हो जाओ या तुम्हारा दंभ आश्वासित हो जाये, किन्तु उससे कोई दूरगामी लाभ होने वाला नहीं है। तुमको सुधारवादी सक्रिय संगठन बनाना पड़ेगा जो जनता के बीच में काम करे और न्यायोचित तरीक़ों से विपक्ष का सामना करे, साथ ही समाज का सुधार कर सके। एक बार तुम्हारे समाज में संगठित पहचान बनाने की शक्ति पैदा हो जाये और स्वाधीनता की भावना उत्पन्न हो जाये तो अमरीका इस पर कभी हावी नहीं हो सकता। अन्त में, तुम अहिंसा को दरकिनार करके बहुत बड़ी भूल कर रहे हो।

अमरीका के दक्षिण राज्यों की बर्बरता को झेलते हुये मार्टिन लुथर किंग ने अहिंसक रास्ता अपनाते हुये काले अमरीकियों को मौलिक अधिकार दिलवाये और उनके अन्दर गर्व और आत्मसम्मान की भावना जागृत की। ईरान वासियों ने भी इसी प्रकार शाह के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। जितनी हत्या उसकी सेना ने निर्दोष आन्दोलनकारियों की, उतनी ही जल्दी उसका शासन समाप्त हो गया। बल्कि कुछ सैनिकों ने तो उसका साथ ही छोड़ दिया। तुम कहते हो कि मेरे देशवासियों ने भी हिंसा की और मैंने उसको स्वीकृत किया। मेरे देशवासियों में से कुछ ने हिंसा अवश्य की क्योंकि यातना उनकी बरदाश्त से बाहर हो गई थी। यद्यपि मैं उनकी हिंसा को समझ सकता हूं परन्तु मैं सदा उसकी निन्दा करता रहा। मैंने उसके प्रायश्चित स्वरूप भूख हड़ताल की और विदेशी शासकों से क्षमा याचना भी की। कुछ व्यक्तियों की छुटपुट हिंसा की अनदेखी करना एक चीज़ है, किन्तु हिंसा पर अपने संघर्ष को केन्द्रित करना बिल्कुल दूसरी चीज़ है।

तुम्हारा कथन, कि बलिदान के लिये गवाह होना आवश्यक है, सही है और इस संदर्भ में पत्रकारिता का महत्व है। पत्रकारों का एक वर्ग निश्चय ही सरकारों का पक्षधर होता है परन्तु समस्त पत्रकार नहीं। कोई कारण नहीं है कि तुम स्वयं अपनी पत्रकारिकता संस्था आरम्भ करो, जिसके माध्यम से तुम अपनी बात कह सको, जैसा मैंने किया था। अल जज़ीरा भी ऐसा ही कर रहा है। मिश्रित समाज में पत्रकारिता का इतना महत्व नहीं है जितना तुम बता रहे हो। वे अहिंसक विरोध की पूरी अनदेखी नहीं कर सकते क्योंकि उससे उनकी न्यायपरकता खत़रे में पड़ जायेगी। साधारण मनुष्य जानते हैं कि पत्रकार अक्सर पूर्वाग्रही होते हैं और वे इसका समुचित ध्यान रखते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो इंगलैंड जैसे देश में इराक युद्ध के विरोध में इतनी व्याख्या संभव नहीं होती। मैं तो कहूंगा कि तुम पत्रकारिता के महत्त्व को बढ़ाकर आंकने में अपने विरोधियों के जाल में फंस रहे हो। यदि तुम्हारा उद्देश्य न्यायसंगत है और तुम उसको शान्तिपूर्वक और मानवीय रूप से प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हो तो ध्यानाकर्षण अवश्यम्भावी है। मेरा अनुभव यही बताता है।

यदि तुम अहिंसा में विश्वास नहीं भी करते हो, तो भी तुमको समझना चाहिये कि अपने तरीक़ों से तुमने अपने लोगों को कितनी हानि पहुंचाई है। तुमने अपने धर्म की महत्ता को कम कर दिया है। लाखों आदमी इस्लाम को भावनात्मक रूप से हिंसा व आतंक से जोड़ने लगे हैं। तुमने इच्छाओं को विभाजित कर दिया है, अपने अनुयाइयों को दमन व क्रूरता के निशाने पर रख दिया है और कई सीधे साधे निर्दोष मुसलमानों का जीवन नष्ट कर दिया है। तुमने बुश सरकार को व्यापक हिंसा करने और वैश्विक रूप से वश में करने का औचित्य प्रदान कर दिया है। समय आ गया है कि तुम हत्या व विनाश की बचकानी प्रवृत्ति से उबर जाओ तथा मसीहाई की भावना त्यागकर विनम्र तथा उचित व्यवहार करो। मेरा धर्म मुझको किसी प्राणी के प्रति आशा त्याग देने की अनुमति नहीं देता, तुम्हारे प्रति भी नहीं।
तुम्हारा
मो. क. गांधी

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(अनुवाद: महेन्द्रनाथ शुक्ला, साभार: अकार 19)

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टिप्पणियाँ

Sanjeet Tripathi ने कहा…
बहुत सही!!

मैं इस श्रृंखला को अद्भुत की श्रेणी मे रखना चाहूंगा!!

शुक्रिया कि आपने इसे यहां उपलब्ध करवाया!
अभय तिवारी ने कहा…
गाँधी और ओसामा ठीक-ठीक यही जवाब देते या देंगे इस पर सवाल हो सकते हैं.. बावजूद उसके यह संवाद दिलचस्प है..
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
इस दिलचस्प संवाद के लिए एक बार फिर बधाई। मैं इसके प्रिंट निकाल कर दोस्तों को भी पढा रहा हूं। आशा है आप आगे भी ऐसे ज्वलंत मुददों पर विचारोत्तेजक सामग्री परोसते रहेंगे।
Manas Path ने कहा…
बहुत अच्छा पत्र. इसे और ज्यादा लोगो तक पहुंचाने की जरूरत है. पारिख जी के गांधी जैसे विचार पढ़ाने के लिए धन्यवाद
अतुल

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