नंदीग्राम में बहुत हो चुका
किसी भी प्रगतिशील व्यक्ति के लिए, जिसने दशकों से पश्चिम बंगाल की वाम सरकार की हिमायत की हो, हाल की घटनाएं शर्मसार करने के लिए काफी है। तीन दशकों के शासन की जड़ किस दलदल पर तामीर की गई है, वो नंदीग्राम, रिजवानुर की हत्या और फिर अनाज के लिए हो रहे दंगों से साफ है। लेकिन हमारा विरोध उन लोगों के विरोध से बिल्कुल अलग है, जो गुजरात की हिंसा में तो राष्ट्रवाद देखते हैं और बंगाल में तानाशाही। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक अपूर्वानन्द लगातार नंदीग्राम की हिंसा पर लिख रहे हैं। उनकी यह टिप्पणी ढाई आखर के पाठकों के लिए-
नंदीग्राम में बहुत हो चुका
अपूर्वानन्द
जब दीपावली कि रात हम सब दिए जला रहे थे, बंगाल के नंदीग्राम में सीपीएम के हमलावर उनके घर जला रहे थे, जिन्हें वे अपना दुश्मन मानते हैं. कहा जा रह है कि सोनाचुरा पर कब्जे की पूरी तैयारी हो चुकी है और बडे़ हमले होने वाले हैं. राज्यपाल गोपाल कृष्ण गाँधी ने एक असाधारण कदम उठाते हुए 700 शब्दों का बयान जारी किया है जिसमें उन्होंने कहा कि नंदीग्राम पर नियंत्रण हासिल करने के लिए जो हिंसक अभियान सीपीएम ने चलाया है, वह पूरी तरह गैरकानूनी है और अस्वीकार्य है. राज्यपाल ने दुःख भरे स्वर में कहा है कि पूरे राज्य में दीपावली के उत्साह पर नंदीग्राम की घटनाओं ने पानी दाल दिया है. उन्होंने कहा कि उन्हें नंदीग्राम से कई जिम्मेदार लोगों के फ़ोन आ रहे हैं, जो बताते हैं कि कई झोंपडि़यां जला दी गयीं और लोगों को भागने पर मजबूर कर दिया गया. राज्यपाल ने वक्तव्य में कहा कि स्थिति का सबसे सही निरूपन गृह सचिव ने किया है, जिन्होंने नंदीग्राम को एक युद्ध क्षेत्र कि संज्ञा दी है.
गोपाल कृष्ण गाँधी ने राज्य के राजनितिक नेतृत्व पर अविश्वास सा जाहिर करते हुए सीधे प्रशासन को कहा नंदीग्राम के प्रवेश बिन्दुओं पर लोगों के द्वारा खडे किये गए अवरोधकों को तुरंत हटाने के लिए कदम उठाए जाएँ. उन्होने कहा कि कोई भी सरकार या सभ्य समाज इस तरह के युद्ध क्षेत्र को बने नहीं रहने दे सकता और उसे तुरंत कारगर कारवाई करनी ही पड़ेगी. उन्होंने मेधा पाटकर और उनके साथियों पर हुए हमले पर भी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि पिछली शाम मेधा पाटकर और उनके साथियों के साथ हुआ व्यवहार किसी भी सभ्य राजनीतिक आचरण के विरुद्ध था. यह दुहराना ज़रूरी होगा कि उन्हें उनकी कार से घसीट कर निकालने कि कोशिश कि गयी और उनके चहरे पर वार किया गया. क्या यह आपको 2002 में अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में आरएसएस और विहिप के गुंडों द्वारा मेधा के बाल खींच कर उन्हें ज़मीन पर पटक कर मारने वाले दृश्य की याद दिलाता है? यह भी याद कर लेना चाहिये कि उसी मेधा को, जिसके धरने पर वृंदा जा कर दिल्ली में बैठ चुकी हैं, बंगाल के सीपीएम नेताओं ने चेतावनी दी कि वे बाहरी हैं. इसलिए सिंगुर और नंदीग्राम के मामलों में दखल न दें. बंगाल सीपीएम के नेता बेनोय कोनार ने कहा था कि वे अगर बंगाल आएँगी तो उन्हें सीपीएम कि महिला कैडर उन्हें पिछवाड़ा दिखाएंगी. महिलाओं ने तो नहीं, पर पुरुषों ने ज़रूर यह काम किया.
राज्यपाल ने यह बयान सीपीएम के सांसदों के एक दल के उस वक्तव्य के बाद दिया है जिसमें उन्होंने राज्यपाल से कहा कि उनकी सहानुभूति दोनों तरफ के पीडितों के लिए होनी चाहिए. बंगाल के सीपीएम नेता बेनोय कोनार ने फौरन गोपलाकृष्ण गाँधी के बयान की निंदा की और कहा कि वे निष्पक्ष नहीं हैं. कोनार ने राज्यपाल पर अपने पद का अपमान करने का अरोप लगाया. कोनार ने कहा कि जब हमारे समर्थक भगाए जा रहे थे, तब उनका त्योहरी उत्साह क्यों नहीं ठंडा हुआ था.
क्या राज्यपाल पक्षपात कर रहे हैं? गोपाल कृष्ण गाँधी पर कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि वे किसी दल विशेष के आदमी हैं. लेकिन सीपीएम ने भी किसी हिचक के मार्च में भी उन पर हमला किया था जब उन्होंने 14 मार्च के पुलिस और सीपीएम के सम्मिलित आक्रमण कि नींद की थी. इस बार राज्यपाल ने स्पष्ट रुप से कहा है कि नंदीग्राम से 14 मार्च के बाद विस्थापित हुए सारे लोगों को, जिनमें शासक दल के समर्थक शामिल हैं, वापस गॉंवों में सुरक्षित पहुँचाने के लिए सारे उपाय किये जाने चाहिए. उन्होंने इस बात पर भी चिंता जाहिर कि कि माओवादी सक्रिय हो रहे हैं और साफ कहा कि किसी भी प्रकार कि हिंसक राजनीति को प्रश्रय नहीं दिया जाना चाहिए.
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक और हत्याओं कि खबर आ रही है. कल नंदीग्राम में भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति के जुलूस पर सीपीएम के लोगों ने गोली चलायी जिसमें लोग मारे गए हैं. सीपीएम को लोगों के मारे जाने का कोई अफसोस हो, इसका कोई प्रमाण नहीं दिखता. यह स्पष्ट है कि यह हमला पूरी योजना के बाद किया गया है. इस बार समय का चुनाव बहुत चतुराई से किया गया. त्योहार के समय लोग व्यस्त होंगे और टीवी चैनल भी पूरा ध्यान नहीं दे पायेंगे. इस लंबे पर्व के समय आक्रमण को कामयाबी तक पहुँचाने कि तैयारी थी. 'द स्टेट्समैन' अख़बार ने इस तैयारी का पूरा ब्योरा छापा जिसका सीपीएम ने खंडन नहीं किया.
यह भी साफ है कि यह हमला कोई स्थानीय निर्णय नहीं है. बेनोय कोनार कई बार कह चुके हैं कि कितनी भी हिंसा क्यों न करनी पड़े, नंदीग्राम को वापस सीपीएम के कब्जे में लाना ही होगा. इस बार भी कोनार ने कहा कि अब हम उस भाषा में बोल रहे है, जो हमारे विरोधियों कि समझ में आती है. वाम मोर्चे के अध्यक्ष बिमान बोस ने कहा कि जब हम पर बम फेंके जा रहे हों, तो हम रस्सगुला नहीं फेंकेंगे. सीपीएम के पितामह ज्योति बसु ने भी निरुपयता दर्शाते हुए कहा कि हमारे पास इसके अलावा कोई चार नहीं छोड़ा गया है. हिंसा एक वैध रास्ता है, यह सीपीएम कि सर्वोपरि इकाई पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात कि उस ललकार से भी साफ है जिसमें उन्होंने अपनी महिला कार्यकर्ताओं को खुले आम हिंसा करने को कहा. वे संसद भी हैं और खुले आम हिंसा का प्रचार संविधान के अनुसार दण्डनीय अपराध है, यह तो वे जानती ही होंगी. फिर भी अगर उन्होंने ऐसा किया तो कुछ सोच समझ कर ही .
ताज्जुब नहीं कि वृंदा के बयान के बाद नंदीग्राम के हमलों में तेज़ी आ गयी. हमने टीवी के परदों पर नकाबपोश लोगों को हथियार लिए हुए नंदीग्राम पर हमला करते हुए, घरों को जलाते हुए देखा. सीपीएम ने नंदीग्राम की नाकेबदी कर रखी है और पत्रकारों के वाहन को जाने की कोई इजाज़त नहीं है. इस वजह से यह बताना असंभव है कि कितने लोग मार डाले गए हैं.
लोग मारे जा रहे हैं, घर जलाये जा रहे हैं , लोग अपने घरों से भगाए जा रहे हैं. सीपीएम लेकिन खुश है कि नंदीग्राम पर उसका कब्जा फिर से हो रहा है. इस समय सीपीएम में अलग-अलग स्तर के नेता अलग-अलग बयान दे रहे हैं , जिससे ऐसा भ्रम पैदा हो गया है कि इनमें कौन सा असली सीपीएम का नज़रिया है, यह मालूम करना नामुमकिन है. यह समझना कठिन है कि किस आधार पर ज्योति बासु कह रहे थे कि नंदीग्राम में शांति कायम हो रही हैं. उन्होंने कहा कि हमारे और उनके लोगों को अपनी राजनीति चलाने की आजादी होनी चाहिए. क्या उनका यह मतलब था कि सीपीएम को बंदूक से राजनीति करने कि आदत है, और वह ऐसा ही करेगी.
मेधा पाटकर धरने पर बैठी हैं. उनके साथ अपर्ना सेन, महाश्वेता देवी भी है. यह बिल्कुल साफ है कि नंदीग्राम सीपीएम के लिए अस्तित्व का प्रशन है. वह इस खूनी हमले के जरिये बंगाल की जनता को यह च्रेतावनी दे रही है कि उससे मुक्ति कि कल्पना करना भी दुराशा मात्र है. यह वह जनता है जो पिछले कुछ समय से गांवों गांवों में खुद खुद उठ खड़ी हुई है. नंदीग्राम के सहारे उन्हें बताया जा रह है कि उनका जीना इसी तरह हराम कर दिया जाएगा, अगर उसने सीपीएम के आगे समर्पण नहीं किया. शायद माओवादियों को भी यह चेतावनी दी जा रही है कि वे बंगाल की दलदली जमीन में वैसे जमने कि उम्मीद न करें जैसा वे आंध्र प्रदेश या छत्तीसगढ़ में करते हैं.
नंदीग्राम पर वापस सीपीएम का कब्जा हो जाएगा. लेकिन अब यह स्पष्ट है कि बंगाल में ही नहीं, पूरे भारत में सीपीएम की नैतिक पराजय हो चकी है. सीपीएम किसी भी प्रकार कि हिंसा का , चाहे वह सांप्रदायिक हो या, राज्य समर्थित, प्रतिवाद करने का आधार गंवा चुकी है. फिल्मकार रितुपोर्नो घोष ने भी कोलकाता फिल्म समारोह का बहिष्कार करते हुए ठीक कहा कि जब कोई सरकार किसी पार्टी की प्रवक्ता हो जाये, लोकतंत्र की हत्या हो जाती है. बंगाल में नंदीग्राम के प्रसंग ने यह तथ्य उजागर कर दिया है कि वहां समाज पर एक हिंसक नियंत्रण है. इसे जनता का समर्थन नहीं प्राप्त है. जनता सीपीएम को कह रही है कि वह उसे बख्श दे. सीपीएम इस जनता को सबक सिखाने पर आमादा है. बिमान बोस ने प्रतिरोध दस्ते खडे़ करने का आह्वान किया है. प्रतिरोध किसके विरुद्ध? प्रतिक्रांतिकारी जनता के? क्या वह हमें ब्रेख्त कि कविता कि याद दिलाना चाहते हैं कि जब जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया हो, तो उसे भगा कर नयी जनता चुन लेनी चाहिये?
सीपीएम बंगाल में जनता को भगा कर रही है. अपर्ना सेन ने ठीक कह है कि वहां हस्तक्षेप राष्ट्रीय स्तर से करना ज़रूरी हो गया है. क्या गोर्की, मायाकोव्सकी, लुकाच, ब्रेख्त, ग्राम्शी के वारिस अपनी निस्तब्धता तोडेंगे? क्या वे अपने आपको इतिहास का आगे फिर शर्मसार तो नहीं करेंगे.
इस समय गोपाल कृष्ण गाँधी कि बात को ही दुहराना काफी है: बहुत हो चुका. अब शांति और सुरक्षा को हर कीमत पर फौरन बहल किया जान चाहिए, बिना और देर किये.
(नंदीग्राम पर और सामग्री के लिए देखें काफिला।)
टिप्पणियाँ
-- जयशंकर प्रसाद
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कम्युनिस्ट तानाशाही पसन्द होते हैं । बात सिर्फ़ सीपीएम की नहीं है। इमर्जेंसी में जब मौका सीपीआई के हाथ लगा था तो वह भी इन्दिरा गान्धी के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर तानाशाही में शामिल थी।
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में अब भारत में कम्युनिस्टों का आख़िरी दौर है।
नन्दीग्राम में जो-जो व्यक्ति माकपा का समर्थक पाया गया विरोधी bupc and trinmool congress के लोगों ने उन्हे बल पूर्वक गांव से बाहर निकाल कर एक ऐसे शिविर मे रहने को मजबूर कर दिया था, जहां का रहन सहन देखकर किसी रिफयूजी कैंप की याद हो आती है, गावं से बाहर निकाल दिये गये किसानो की जमीन जायदाद पर हथियारबंद लोगों ने कब्जा कर लिया जिन्हे शायद गुण्डा ही कहा जायेगा। पुलिस गांव को गुण्डों से मुक्त कराने के लिये अंदर् न घुस आये इसलिये पुलों को तोड डाला गया, 14 मार्च को जब पुलिस गांव को मुक्त कराने के लिये अंदर घुसी तो तूण्मूल समर्थक लोगो की भीड ने उस पर हमला कर दिया, एक बात है कि पुलिस वाले मार्क्सवादी नही होते हैं जो लोगों की भावनाए समझें, किसी भी पुलिस वाले को बस मारना ही आता है, जब भीड मे चुपे कुछ लोगों ने पुलिस पर गोलियां चलाई, जिन्हे सीपीएम ने माओवादी कहा, और अब शिवराज पाटिल और सीबीआई ने उसमे माओवादियो का हाथ होने की बात कही है, तो पुलिस ने भी गोलियां चलाईं जिससए छुपे हुए माओवादी तो नही मरे, हां 14 बेकसूर लोग जो सिर्फ भीड का हिस्सा भर थे, मारे गये। मुझे एक बात बताईये कि पुलिस गोलिबारी मे 14 लोगों का मारा जाना, और गुजरात मे मोदी के आदमियों के द्वारा चुन-चुन कर मुसलमानो को मार दिया जाना, दो एक जैसी घट्नाएं कैसे हैं। दूसरे जब कुछ दिन पहले बेघर गांव वालों ने जो सीपीएम समर्थक थे, अपने घरों को वापस कब्जे लेने के लिये हमला करा, और गुण्डों को मार भगाया, तो मीडिया सीपीएम काडर का हमला-हमला चिल्लाने क्यों लगा, आपके घर से कोई आपको बाहर निकाल दे और बेघ्ररों की तरह आपको अपने श्गह्र के फुट्पाथ पर या फ्लाईओवर के नीचे सर्दियों की सर्द रातें बिताने को मजबूर होना पडे तो आप क्या करोगे। क्यों नही सीपीआईएमेल(लिबरेशन) हमारे लोगों को शिविरो में उन सर्द रातों मे रोटी देने नही आयी, क्यों नही हमें ममता बनर्जी ने एक चादर दी, क्यों सब सरकार विरोधी हम 2500 बेघर गावं वालो को उनका घर दिलवाने के लिये वापस आये, क्या इसलिये कि हम सीपीएम का सम्मान कर्ते हैं, कि उसने हमे जंमींदारों से मुक्ति दिला, अपनी जमीन का मालिक बनाया और अब हमारी खातिर उद्योग भी लगाने जा रही थी, जिससे मेरे जैसे युवा जो विश्व्विद्यालयों मे नही पढ सकते अपना पेट पाल सकें, आखिर हम इंसानो से इतनी नफरत क्यूं,।
चलते-चलते तस्लीमा विवाद का भी जिक्र कर दू शायद कोई भूला भटका मुसाफिर इसे पढ ही ले:
जब तस्लीमा नसरीन के खिलाफ दंगे शुरू हुए, तो उन्हे कोलकाता छोड देना पडा, सीपीएम ने यह ठीक ही करा क्योंकि अगर वह फिर पुलिस बल का सहारा लेती और कट्टरपंथी ताकतों को दबा देती फिर मीडिया चिल्लाता "मुस्लमानो को मारा, मुसलमानो को मारा", शायद लोगों के दिमाग मे मौजूद तर्क कर्ने की क्षमता को मीडिया रूपी कीडा खा गया है।
आखिर मे यही दरख्वास्त है दोस्त आपसे कि 'दोनो पक्षों के लेखो को इस ब्लाग पर जगह दें, और यह लोगों को सोचने दें कि उन्हे किसे चुनना है' हमारा आपका कार्य तो सिर्फ जानकारी मुहैया कराना भर है।
एक जरूरी साईट: http://www.pragoti.org/pragoti/main.php