यह किसकी लड़ाई है दोस्तो

नन्‍दीग्राम में जो कुछ हुआ, उसने बड़ी तादाद में देश के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष लोगों को काफी परेशान कर दिया है। आत्‍ममंथन भी चल रहा है। कई लोगों के लिए यह आंख खोलने वाला है तो कई इसे सबक के रूप में ले रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उभर रहा है कि जिस तरह गुजरात की साम्‍प्रदायिक हिंसा को वहां का मुखिया जायज ठहराता रहा, क्‍या ठीक उसी तरह नन्‍दीग्राम की हिंसा को वहां का मुखिया जायज नहीं ठहरा रहा। बलात्‍कार, हिंसा, लूट, आगजनी और अब वसूली... यह क्‍या है। आज के नवभारत टाइम्‍स में दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक अपूर्वानन्‍द का एक लेख प्रकाशित हुआ है। ढाई आखर के पाठकों के लिए यह लेख, नवभारत टाइम्‍स से साभार पेश है-

यह किसकी लड़ाई है दोस्‍तो

अपूर्वानंद
बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नंदीग्राम पर कब्जे के लिए शासक दल के हिंसक अभियान पर जो बयान दिया, उसने सन 2002 में गोधरा के बाद गुजरात में भड़के दंगों का औचित्य ठहराने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान की याद दिला दी। 'उन्हें उन्हीं की जुबान में जवाब दिया गया है' और 'हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है' में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। गुजरात के मुख्यमंत्री पर यह आरोप लगा कि उन्होंने अपने आप को सारे गुजरातियों का नहीं, बल्कि एक संप्रदाय विशेष का मुख्यमंत्री मान लिया है। बंगाल के मुख्यमंत्री से भी यह सवाल किया गया है कि वे सारे बंगाल के मुख्यमंत्री हैं या सिर्फ शासक दल सीपीएम के?
वैसे गुजरात और बंगाल के बीच तुलना मुख्यमंत्री के बयान के पहले से की जाने लगी थी। हमारे समाज में ऐसे लोग बचे हुए हैं, जिनकी आत्मा पर हिंसा निशान छोड़ जाती है, जो विचारधारा के सहारे किसी हिंसा का समर्थन करने की मजबूरी महसूस नहीं करते। ऐसे लोग 2002 में गुजरात को दौड़ पड़े और 2007 की शुरुआत में नंदीग्राम भी गए। देखा गया कि दोनों ही राज्यों में शासक दल के हथियारबंद कार्यकर्ताओं को खुली छूट ही नहीं, संरक्षण भी दिया गया। अगर 2002 में यह आरोप लगाया गया (जो हाल में एक खोजी रिपोर्ट से साबित भी हुआ) कि पुलिस के संरक्षण में संप्रदाय विशेष पर हमला हुआ, तो 2007 में नंदीग्राम में पुलिस के साथ शासक दल के लोगों ने भी गोलियां चलाईं। इसके सबूत भी मौजूद हैं। लेकिन यह तुलना यहां आकर खत्म नहीं हो जाती।
इस बात पर गौर कीजिए कि सन 2002 में हिंसा के पहले दिन से लेकर आखिरी दिन तक पत्रकार और दूसरे लोग अपने जोखिम पर कहीं भी जा सकते थे। लेकिन नंदीग्राम में यह नामुमकिन था। छह रोज तक शासक दल के हथियारबंद गिरोहों ने नंदीग्राम की इतनी जबर्दस्त नाकेबंदी कर दी कि कोई अंदर नहीं जा सकता था। इस हिंसा में कितने लोग मारे गए, कितनों का अपहरण हुआ, कितनों पर बलात्कार- यह बताना नामुमकिन हो गया है। अनगिनत लोग उजड़ गए हैं, उन्हें कैम्पों में रहना पड़ रहा है, उनकी आजीविका खत्म हो चुकी है। इसके ब्यौरे अब धीरे-धीरे मीडिया में आ रहे हैं। सन 2002 की हिंसा के बाद अपने गांवों से विस्थापित हुए मुसलमानों को हमलावरों की ओर से गांव लौट आने को कहा जा रहा है, बशर्ते वे उनके खिलाफ रिपोर्ट वापस ले लें। नंदीग्राम से भगा दिए गए ग्रामवासियों को भी शासक दल वापस आने को कह रहा है। आश्वासन दिया जा रहा है कि अगर वे उसकी बात मानकर रहेंगे तो उन्हें शांति से रहने दिया जाएगा। वे अपने घरों में रह सकते हैं, लेकिन सीपीएम के समर्थक बनकर। इसी को अमन-चैन बहाल होने का नाम दिया जा रहा है।
गुजरात में दंगों के समय ऐसे कई जिला और पुलिस अफसर मौजूद थे, जिन्होंने संविधान की रक्षा के लिए राज्य सरकार के गैरजरूरी निर्देशों को को मानने से इनकार कर दिया। ऐसे बहादुर लोगों की वजह से सरकार पर लगाम लगी और उसके कारनामे उजागर हुए। लेकिन बंगाल में ऐसे अधिकारी खोजने पर भी नहीं मिलते। तीन दशकों के शासन में राज्य की सारी प्रक्रियाओं और उन्हें संचालित करने वाले तंत्र पर शासक दल का निर्बाध नियंत्रण कायम कर लिया गया है। राशन की दुकानों से लेकर पंचायतें शासक दल के लिए पैसे और ताकत का जरिया बन कर रह गई हैं। बंगाल में रहने वाले बताते हैं कि लोगों की निजी जिंदगी के फैसलों में भी शासक दल का दखल रहता है। यह असामान्य स्थिति है और स्टालिन के जमाने के सोवियत संघ की याद दिलाती है। प्राथमिक स्तर से उच्चतर शिक्षा तक के सारे निर्णय शासक दल के अनुसार लिए जाते हैं।
शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थानों की ही नहीं, व्यक्तियों की स्वायत्तता के भी प्रति अनादर बंगाल के स्वभाव का अंग बन चुका है। ऐसी स्थिति में आश्चर्य नहीं कि बंगाल की राजनीति की प्रकृति मूलत: हिंसक है। शासक दल का आचरण विरोधी दलों को भी अनुकूलित करता है। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की हिंसा को समझने में हाल की घटनाओं ने मदद की है। अगर वह गुंडों और लफंगों का सहारा लेती है, जैसा कि शासक दल का आरोप है, तो ठीक यही बात उसके बारे में भी कही जाती है। हिंसा की संस्कृति बंगाल की राजनीति पर इस कदर छा गई है कि इससे कोई नहीं बचा। वहां राजनीति प्राचीन युद्धों में बदल गई है और इलाकों पर कब्जे के लिए ऐसे लड़ा जा रहे है, जैसे जागीरदार लड़ा करते थे। इस जंग में लोकतंत्र की भावना कहां बची रह जाती है?
गुजरात के जनसंहार और नंदीग्राम की हिंसा का विरोध करने वालों को इसलिए एक बार ठहरकर राजनीतिक कार्रवाइयों और राजनीति की भाषा में हिंसा के प्रति अपना रवैया स्पष्ट करने के बारे में विचार करना होगा। बंगाल में शासक दल के अलोकतांत्रिक व्यवहार का विरोध करने के लिए क्या हिंसा जायज है? क्या उन्हें हिंसा का अधिकार है जो उत्पीड़ितों की ओर से एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए संघर्ष करना चाहते हैं? क्या यह उचित है कि घात लगाकर पुलिस और सेना के गश्ती दल को बम और गोलियों से उड़ा दिया जाए? उसी प्रकार हम अपने आंदोलन और राजनीतिक प्रचार में जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, क्या उसकी हिंसक प्रवृत्ति पर कभी ध्यान दिया गया है? हम फिर से उसी पुराने बूढ़े की धीमी, फुसफुसाती हुई आवाज को सुनने की कोशिश करें, जिसने कहा था कि साध्य कितना ही पवित्र हो, साधन की हिंसा उसे दूषित बना देती है। मानव सभ्यता के विकास में आज तक जो सर्वोच्च मूल्य विकसित किया गया है, वह है जीवन मात्र के प्रति आदर और सम्मान। एक सभ्य समाज अपनी न्याय और दंड प्रक्रियाओं में भी जीवन को अनुल्लंघनीय मानकर चलता है। इसलिए लक्ष्य कितना ही महान क्यों न हो, हिंसा उसे हासिल करने का वैध साधन नहीं हो सकती।
गुजरात के मुख्यमंत्री गर्व से कहते हैं- सन 2002 के बाद गुजरात में पूरी शांति है। बंगाल के मुख्यमंत्री ने कहा है कि नंदीग्राम में नया सूरज उग चुका है और उसकी गरमाहट जल्द ही सब महसूस करेंगे। इन दोनों दावों की विडंबना क्या हम से छुपी हुई है?

टिप्पणियाँ

darshan ने कहा…
आपका ब्लॉग मोहल्ला के माध्यम से देखा,बहुत ही अच्छा लगा, खासकर मोदी के साथ तुलना और सबसे अच्छी बात लगी की बहुत से लेखकों के विचारो को आपने नेट पर डाला है.नंदीग्राम पर कवरेज की बात ही जुदा है.

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