तसलीमा को भारत की नागरिकता मिले
बंगाल की प्रगतिशील और वाममोर्चा सरकार ने जिस तरह तसलीमा को राज्य से बाहर किया, उससे उसका धर्मनिरपेक्ष मुखौटा सबके सामने आ गया है। 'हिन्दुस्तान' में इसी टिप्पणी के साथ आज प्रख्यात साहित्यकार और आंदोलनों की अगुवा महाश्वेता देवी की टिप्पणी छपी है। हिन्दुस्तान से साभार ढाई आखर के पाठकों के लिए पेश है महाश्वेता देवी के विचार -
तसलीमा को भारत की नागरिकता मिले
बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन का वीसा रद्द करने और नंदीग्राम के सवाल को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय का एक संगठन कोलकाता में बुधवार को सड़क पर उतरा था। मुझे नहीं समझ में आता कि सड़क पर उतरे लोग नंदीग्राम को लेकर सरकार की भूमिका के प्रति अपना प्रतिवाद जता रहे थे या तसलीमा के भारत में रहने के प्रति अपनी आपत्ति जता रहे थे। मुझे लगता है कि धार्मिक कट्टरता का विरोध करने की जो कीमत 13 वर्षों से निर्वासित रहकर तसलीमा नसरीन ने चुकाई है, वह विरल है और इसीलिए मैं तसलीमा नसरीन के इस संग्राम को सलाम करती हूं। मैं चाहती हूं कि उन्हें भारत सरकार नागरिकता दे। वे एक लेखिका हैं। वे एक स्त्री हैं। मैं भी एक लेखिका और स्त्री हूं, इस नाते भी और मनुष्य होने के नाते भी तसलीमा के साथ हूं और रहूंगी। जब कभी तसलीमा पर कट्टरपंथियों ने हमला किया, हमारा सिर शर्म से झुक गया। पश्चिम बंगाल वाममोर्चा के अध्यक्ष विमान बसु ने जब कहा कि तसलीमा को कोलकाता से बाहर चले जाना चाहिए, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या विमान बसु भूल गए कि कोलकाता किसी को भगाता नहीं, गले लगाता है। मुश्किल में पड़े लोगों को गले लगाता है। मैं उस कोलकाता को जानती हूं, जिसने गुजरात दंगों के भुक्तभोगी कुतुबुद्दीन को गले लगाया था। मुझे लगता है कि विमान बसु-विनय कोंगार जितना कम बोलें, इस राज्य के नागरिकों का उतना ही भला होगा।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मुख और मुखौटे का अंतर स्पष्ट हो गया। कट्टरपंथियों के दबाव में आकर (और राज्य के 27 प्रतिशत मुसलिम वोटों को देखते हुए) बंगाल की प्रगतिशील और वाममोर्चा सरकार ने जिस तरह तसलीमा को राज्य से बाहर किया, उससे उसका धर्मनिरपेक्ष मुखौटा सबके सामने आ गया है। जहां तक मेरा सवाल है तो तसलीमा के संघर्ष की सहयात्री होना मैं गर्व की बात मानती हूं। तसलीमा की किताब ‘द्विखंडित’ पर जब बंगाल में प्रतिबंध लगा, तो उसके खिलाफ मैंने लिखा था। मुझे लगता है कि यदि किताब पर प्रतिबंध नहीं लगा होता तो कट्ट्रपंथियों को तसलीमा के विरोध की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उस पार भी ‘लज्जा’ पर रोक लगी, उसके बाद ही कट्ट्पंथियों की हिम्मत बढ़ी। सबसे खतरनाक होता है-कट्टरपंथ को सरकारी संरक्षण। सिर्फ कट्टरपंथियों के दबाव में या तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए किताब पर प्रतिबंध लगाने को कोई प्रगतिशील लेखक सही नहीं करार दे सकता। मेरी राय में कोई भी सरकार किसी किताब को प्रतिबंधित नहीं कर सकती। किताब पुस्तक विक्रेताओं के पास पहुंचनी ही चाहिए। पाठक यदि चाहेंगे, तो पढ़ेंगे, नहीं चाहेंगे, तो नहीं पढ़ेंगे। पाठक ही किसी किताब पर अच्छे या खराब का फैसला दे सकते हैं। अंतिम न्यायाधीश पाठक ही होता है। सरकार का फैसला इस मामले में नहीं चल सकता। यदि तसलीमा के लिखे विचारों से किसी की असहमति है, तो लिख कर ही उसका विरोध किया जाना चाहिए। मैं पूछना चाहती हूं कि ऑल इंडिया माइनॉरिटी फोरम ने किस अधिकार से तसलीमा को देश निकालने की मांग करते हुए कोलकाता में उपद्रव मचाया? मैं सुनील गंगोपाध्याय की इस राय से पूरी तरह एकमत हूं कि माइनारिटी फोरम ने जो आराजकता फैलाई, वह अक्षम्य है। कोलकाता में उस अराजकता पर काबू पाने के लिए सेना बुलानी पड़ी। इससे ज्यादा लज्जा की बात क्या होगी? माइनॉरिटी फोरम के तथाकथित आंदोलन का दूसरा मुद्दा था- नंदीग्राम का। नंदीग्राम की लड़ाई में कैसे एक सांप्रदायिक फोरम पहुंच गया, मैं अवाक हूं। नंदीग्राम की लड़ाई एक धर्मनिरपेक्ष लड़ाई है और इसमें कोई सांप्रदायिक रंग डालना आंदोलन को कमजोर करना है। उन मोर्चों को भी समझना चाहिए कि उनके कुछ उपद्रव कर देने भर से बंगाल के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और स्वरूप को कलुषित नहीं किया जा सकता। नंदीग्राम की लड़ाई कैसे लड़ी जाती है, यह देखने के लिए 14 नवंबर के जुलूस की वीडियो फुटेज देखिए। बुद्धिजीवियों के उस जुलूस में एक लाख लोग शरीक थे। पूरा जुलूस अनुशासित था। मौन था। नंदीग्राम को जब मृत्यु उपत्यका बनाया जाता है, तो स्वत:स्फूर्त ढंग से लोग सड़कों पर उतर कर प्रतिवद करते हैं। विरोध का वही तरीका लोकतांत्रिक तरीका है। माइनॉरिटी फोरम ने जो हिंसा की, उस तरह कोई आंदोलन नहीं चलता।
आंदोलन कैसे होता है, नंदीग्राम के संग्रामी से पूछिए। वहां हिंसा में जो लोग मरे, उनकी याद में जगह-जगह शहीद अस्पताल बने हैं। माकपा कैडरों के नंदीग्राम पर पुनर्दखल किए जाने के बाद नंदीग्राम के आम लोगों पर अत्याचार जरूर बढ़ा है। लेकिन उस अत्याचार का प्रतिवाद भी लोकतांत्रिक तरीके से होना चाहिए। प्रतिवाद हो रहा है।
तसलीमा को भारत की नागरिकता मिले
बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन का वीसा रद्द करने और नंदीग्राम के सवाल को लेकर अल्पसंख्यक समुदाय का एक संगठन कोलकाता में बुधवार को सड़क पर उतरा था। मुझे नहीं समझ में आता कि सड़क पर उतरे लोग नंदीग्राम को लेकर सरकार की भूमिका के प्रति अपना प्रतिवाद जता रहे थे या तसलीमा के भारत में रहने के प्रति अपनी आपत्ति जता रहे थे। मुझे लगता है कि धार्मिक कट्टरता का विरोध करने की जो कीमत 13 वर्षों से निर्वासित रहकर तसलीमा नसरीन ने चुकाई है, वह विरल है और इसीलिए मैं तसलीमा नसरीन के इस संग्राम को सलाम करती हूं। मैं चाहती हूं कि उन्हें भारत सरकार नागरिकता दे। वे एक लेखिका हैं। वे एक स्त्री हैं। मैं भी एक लेखिका और स्त्री हूं, इस नाते भी और मनुष्य होने के नाते भी तसलीमा के साथ हूं और रहूंगी। जब कभी तसलीमा पर कट्टरपंथियों ने हमला किया, हमारा सिर शर्म से झुक गया। पश्चिम बंगाल वाममोर्चा के अध्यक्ष विमान बसु ने जब कहा कि तसलीमा को कोलकाता से बाहर चले जाना चाहिए, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या विमान बसु भूल गए कि कोलकाता किसी को भगाता नहीं, गले लगाता है। मुश्किल में पड़े लोगों को गले लगाता है। मैं उस कोलकाता को जानती हूं, जिसने गुजरात दंगों के भुक्तभोगी कुतुबुद्दीन को गले लगाया था। मुझे लगता है कि विमान बसु-विनय कोंगार जितना कम बोलें, इस राज्य के नागरिकों का उतना ही भला होगा।
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मुख और मुखौटे का अंतर स्पष्ट हो गया। कट्टरपंथियों के दबाव में आकर (और राज्य के 27 प्रतिशत मुसलिम वोटों को देखते हुए) बंगाल की प्रगतिशील और वाममोर्चा सरकार ने जिस तरह तसलीमा को राज्य से बाहर किया, उससे उसका धर्मनिरपेक्ष मुखौटा सबके सामने आ गया है। जहां तक मेरा सवाल है तो तसलीमा के संघर्ष की सहयात्री होना मैं गर्व की बात मानती हूं। तसलीमा की किताब ‘द्विखंडित’ पर जब बंगाल में प्रतिबंध लगा, तो उसके खिलाफ मैंने लिखा था। मुझे लगता है कि यदि किताब पर प्रतिबंध नहीं लगा होता तो कट्ट्रपंथियों को तसलीमा के विरोध की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उस पार भी ‘लज्जा’ पर रोक लगी, उसके बाद ही कट्ट्पंथियों की हिम्मत बढ़ी। सबसे खतरनाक होता है-कट्टरपंथ को सरकारी संरक्षण। सिर्फ कट्टरपंथियों के दबाव में या तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए किताब पर प्रतिबंध लगाने को कोई प्रगतिशील लेखक सही नहीं करार दे सकता। मेरी राय में कोई भी सरकार किसी किताब को प्रतिबंधित नहीं कर सकती। किताब पुस्तक विक्रेताओं के पास पहुंचनी ही चाहिए। पाठक यदि चाहेंगे, तो पढ़ेंगे, नहीं चाहेंगे, तो नहीं पढ़ेंगे। पाठक ही किसी किताब पर अच्छे या खराब का फैसला दे सकते हैं। अंतिम न्यायाधीश पाठक ही होता है। सरकार का फैसला इस मामले में नहीं चल सकता। यदि तसलीमा के लिखे विचारों से किसी की असहमति है, तो लिख कर ही उसका विरोध किया जाना चाहिए। मैं पूछना चाहती हूं कि ऑल इंडिया माइनॉरिटी फोरम ने किस अधिकार से तसलीमा को देश निकालने की मांग करते हुए कोलकाता में उपद्रव मचाया? मैं सुनील गंगोपाध्याय की इस राय से पूरी तरह एकमत हूं कि माइनारिटी फोरम ने जो आराजकता फैलाई, वह अक्षम्य है। कोलकाता में उस अराजकता पर काबू पाने के लिए सेना बुलानी पड़ी। इससे ज्यादा लज्जा की बात क्या होगी? माइनॉरिटी फोरम के तथाकथित आंदोलन का दूसरा मुद्दा था- नंदीग्राम का। नंदीग्राम की लड़ाई में कैसे एक सांप्रदायिक फोरम पहुंच गया, मैं अवाक हूं। नंदीग्राम की लड़ाई एक धर्मनिरपेक्ष लड़ाई है और इसमें कोई सांप्रदायिक रंग डालना आंदोलन को कमजोर करना है। उन मोर्चों को भी समझना चाहिए कि उनके कुछ उपद्रव कर देने भर से बंगाल के धर्मनिरपेक्ष चरित्र और स्वरूप को कलुषित नहीं किया जा सकता। नंदीग्राम की लड़ाई कैसे लड़ी जाती है, यह देखने के लिए 14 नवंबर के जुलूस की वीडियो फुटेज देखिए। बुद्धिजीवियों के उस जुलूस में एक लाख लोग शरीक थे। पूरा जुलूस अनुशासित था। मौन था। नंदीग्राम को जब मृत्यु उपत्यका बनाया जाता है, तो स्वत:स्फूर्त ढंग से लोग सड़कों पर उतर कर प्रतिवद करते हैं। विरोध का वही तरीका लोकतांत्रिक तरीका है। माइनॉरिटी फोरम ने जो हिंसा की, उस तरह कोई आंदोलन नहीं चलता।
आंदोलन कैसे होता है, नंदीग्राम के संग्रामी से पूछिए। वहां हिंसा में जो लोग मरे, उनकी याद में जगह-जगह शहीद अस्पताल बने हैं। माकपा कैडरों के नंदीग्राम पर पुनर्दखल किए जाने के बाद नंदीग्राम के आम लोगों पर अत्याचार जरूर बढ़ा है। लेकिन उस अत्याचार का प्रतिवाद भी लोकतांत्रिक तरीके से होना चाहिए। प्रतिवाद हो रहा है।
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घुघूती बासूती