तसलीमा की ताजा कविताएँ-2 (Latest Poems of Taslmia Nasreen-2)

taslima

 

(3)

नो मेन्स लैंड

अपना देश ही अगर तुम्हें न दे देश,

तो दुनिया का कौन-सा देश है, जो तुम्हें देगा देश, बोलो।

म-फिरकर सभी देश काफी कुछ ऐसे ही होते हैं,

हुक्मरानों के चरित्र भी ऐसे ही।

तकलीफ देने पर आयें, तो ऐसे ही देते हैं तकलीफ।

इसी तरह उल्लास से चुभोएँगे सूइयाँ

तुम्हारी कलाई के सामने, पत्थर-चेहरा लिए बैठे,

मन ही मन नाच रहे होंगे।

नाम-धाम में भले हो फर्क

अँधेरे में भी पहचान लोगे उन्हें,

सुनकर चीत्कार, खुसफुस, चलने-फिरने की आहट,

तुम समझ जाओगे कौन हैं वे लोग।

हवा जिस तरह, उनके लिए, उधर ही दौड़ पड़ने का समय।

हवा भी तुम्हे बता देगी, कौन हैं वे लोग।

हुक्मरान आखिर तो होते हैं हुक्मरान।

चाहे तुम कितनी भी तसल्ली दो अपने को,

किसी शासक की जायदाद नहीं- देश।

देश होता है आम-जन का , जो देश को प्यार करते हैं,

देश होता है उनका।

चाहे तुम जितना भी किसी को समझाओ- यह देश तुम्हारा है,

इसे तुमने रचा-गढ़ा है, अपने अन्तस में,

अपनी मेहनत और सपनों की तूली में आँका है इसका मानचित्र।

अगर शासक ही तुम्हे दुरदुराकर खदेड़ दें, कहाँ जाओगे तुम?

कौन-सा देश खड़ा मिलेगा, खोले दरवाजा?

किसको देने को पनाह?

कौन-सा देश, किस मुँह से देगा तुम्हें-देश, बोलो।

(4)

अब तुम कोई नहीं हो,

शायद इंसान भी नहीं हो।

वैसे भी अब क्या है तुम्हारे पास खोने को?

अब दुनिया को खींच लाओ बाहर, कहो-

तुम्हें वहीं खड़े होने की जगह दे, वहीं दे शरण,

जहाँ खत्म होती है देश की सरहद,

जहाँ की माटी किसी की भी नहीं होती,

फिर भी जितनी-सी माटी मौजूद,

वह अवांछित माटी ही, उतनी-सी जमीन,

चलो, आज से तुम्हारी हो।

(5)

भारतवर्ष

भारतवर्ष सिर्फ भारतवर्ष नहीं है।

मेरे जन्म के पहले से ही,

भारतवर्ष मेरा इतिहास।

बगावत और विद्वेष की छुरी से द्विखंडित,

भयावह टूट-फूट अन्तस में सँजोये,

दमफूली साँसों की दौड़। अनिश्चित संभावनाओं की ओर, मेरा इतिहास।

रक्ताक्त इतिहास। मौत का इतिहास।

इस भारतवर्ष ने मुझे दी है, भाषा,

समृद्ध किया है संस्कृति से,

शक्तिमान सपनों में।

इन दिनों यही भारतवर्ष अगर चाहे, तो छीन सकता है,

मेरे जीवन से, मेरा इतिहास।

मेरे सपनों का स्वदेश।

लेकिन नि:स्व कर देने की चाह पर,

भला मैं क्यों होने लगी नि:स्व?

भारतवर्ष ने जो जन्म दिया है महात्माओं को।

उन विराट आत्माओं के हाथ

आज, मेरे थके-हारे कन्धे पर,

इस असहाय, अनाथ और अवांछित कन्धे पर।

देश से भी यादा विराट हैं ये हाथ,

देश-काल के पार ये हाथ,

दुनियाभर की निर्ममता से,

मुझे बड़ी ममता से सुरक्षा देते हैं-

मदनजित, महाश्वेता, मुचकुन्द-

इन दिनों मैं उन्हें ही पुकारती हूँ- देश।

आज उनका ही, हृदय-प्रदेश, मेरा सच्चा स्वदेश।

(बांग्‍ला से हिन्‍दी किया है, कृपाशंकर चौबे ने।)

टिप्पणियाँ

ghughutibasuti ने कहा…
बहुत सुन्दर, बहुत हृदय विदारक कविताएँ हैं । परन्तु तसलीमा जी को क्या समाज में जीने का कायदा समझ नहीं आता है ? यहाँ जीने की एक कीमत चुकानी होती है । आपको अन्य लोगों का लगभग लगभग प्रतिबिम्ब भर बन जीने का अधिकार है । यदि इस प्रतिबिम्ब से कुछ अलग अपना व्यक्तित्व बनाओगी तो यह सब तो सहना ही होगा ।
यदि समाज में आदर चाहती हो तो अन्य का प्रतिबिम्ब बनकर रहो । यदि स्वतंत्र विचार,स्वतंत्र स्व चाहती हो तो स्वयं की भूमि ढूँढनी होगी । यदि यह सब इतना ही सरल होता तो समाज में हजारों नहीं तो सैकड़ों तसलिमाएँ तो लिख ही रही होतीं ।
घुघूती बासूती
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
तस्लीमा जी की कविताएं कटु सत्य का उदघाटन करने वाली हैं। पर यह बात भी सत्य ही है कि हमें अपने प्रत्येक काम के बदले में उसकी कोई न कोई कीमत चुकानी ही पडती है।

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