सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा (Saare Jahan Se Achha Hindostan Hamara)
'जन गण मन' और 'वंदे मातरम' के बीच राष्ट्रीय गीत या गान का विवाद गाहे ब गाहे चलता रहता है। पिछले दिनों हिन्दी ब्लॉग की दुनिया में भी यह विवाद उठा था। मेरे ज़हन में अक्सर यह सवाल उठता है कि इस विवाद में 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' का नाम क्यों नहीं सुनाई देता। क्या कभी किसी ने यह सवाल नहीं उठाता कि यह तराना, कौमी तराना क्यों नहीं बना। क्या इसमें देशभक्ति की कमी थी। क्या इसमें लय ताल छंद कमजोर थे। क्या इसमें वह सलाहियत नहीं थी, जो इसके आगे 'राष्ट्रीय' गीत या गान लगवा सके। मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूँ, इसलिए मेरे पास इनके जवाब नहीं है। महज जिज्ञासु सवाल हैं। मैं कोई विवाद नहीं पैदा करना चाह रहा और न ही मेरी बेजा विवादों में दिलचस्पी है। न ही इस बात का अब कोई मतलब है।
लेकिन यह बात आज क्यों फिर जहन में आई। आज सुबह उर्दू राष्ट्रीय सहारा में एक विज्ञापन छपा। इसके मुताबिक दस अगस्त यानी आज 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' की सालगिरह है। कैसे।
पता चला कि पंजाब के क्रांतिकारी लाला हरदयाल छात्र जीवन में यंग मैन क्रिश्चिएन क्लब के सदस्य थे। किसी बात पर उनकी क्लब के सेक्रेटरी से बकझक हो गई। उन्होंने यंग मैन इंडिया एसोसिएशन बना डाली। इकबाल को इसका उद्घाटन करने के लिए न्योता दिया। उद्घाटन के दिन यानी 10 अगस्त 1904 को इकबाल ने तकरीर करने के बजाय एक नज्म पढी 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा'। इकबाल उस वक्त 23 साल के थे और लाहौर के गर्वनमेंट कॉलेज में पढ़ा रहे थे। इकबाल ने यह नज्म मूलत: बच्चों के लिए लिखी थी लेकिन आजादी की जद्दोजहद में इस नज्म ने काफी शोहरत पाई।
एक और बात सारे जहाँ को खास बनाती है। इस गीत की जो धुन आज हमारे कान सुनने को आदी हो चुके हैं, वह धुन भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा IPTA) के बैनर तले बनी थी। धुन उस शख्स ने तैयार की जिसे दुनिया पंडित रविशंकर के नाम से जानती है।
तो आइए सवालों के साथ 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' का सालगिरह मनाएँ। पढि़ए और सुनिए यह नज्म
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी यह गुलिस्ताँ हमारा
गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें दिल हो जहाँ हमारा
परबत वह सबसे ऊँचा हमसाया आस्माँ का
वह संतरी हमारा, वह पासबाँ हमारा
गोदी में खेलती हैं, इसकी हजारो नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से रश्के जिना हमारा
ए आबे रूदे गंगा। वह दिन है याद तुझको
उतरा तेरे कनारे जब कारवाँ हमारा
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा
यूनान व मिस्र व रूमा सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकि नाम व निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमाँ हमारा
इक़बाल, कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्दे निहां हामरा
टिप्पणियाँ
'सारे जहां से अच्छा हिंदुस्ता हमारा'
ज्ञान बढाने के लिए धन्यवाद
http://nitishraj30.blogspot.com
http://poemofsoul.blogspot.com
वन्दे मातरम की राजनीति में "सारे जहाँ" को पीछे छोड दिया गया है और यह दोनों ही नज़्में सांप्रदायिकता की शिकार हो गईं हैं ।