तस्लीमा को भारत की नागरिकता दी जाये
तस्लीमा नसरीन पर हैदराबाद में हुए हमले के विरोध में अब लेखक-कलाकार और संस्कृति कर्मी सड़क पर आ गये हैं। लखनऊ में कल सोमवार को शहर के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और स्वयंसेवी संगठनों ने इस हमले के खिलाफ हजरत गंज चौराहे पर गांधी प्रतिमा के सामने धरना देकर अपना विरोध जताया। (ऊपर का फोटो इसी धरने का है।) इस विरोध प्रदर्शन में साझी दुनिया, भारतीय जननाट्य संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, नीपा रंगमंडली, आली जैसे संगठन और रूपरेखा वर्मा, राकेश, वीएन राय, शकील सिद्दीकी, दीवाकर, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, अजय सिंह, मृदुला भारद्वाज, प्रदीप कपूर, रिशा सईद, मनोज पाण्डेय, केबी सिंह, जूली समेत बड़ी संख्या में शहर के नागरिक शामिल थे। इन लोगों ने इस मौके पर हमले की भर्त्सना करते हुए एक प्रस्ताव भी पारित किया जिसके कुछ हिस्से आप भी पढ़ें-
'... हमारा मानना है कि सहमति और असहमति का अधिकार लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है। आस्था और विश्वास के नाम पर हर मज़हब की कट्टरता, रूढि़वादिता, पुनरुत्थानवादी और हिंसा से दूसरे मज़हबों के कट्टरपंथ को ही बढ़ावा मिलता है। हमारा स्पष्ट मत है कि जो हिन्दू साम्प्रदायिक संगठन तस्लीमा पर हुए हमले के विरोध का स्वांग कर रहे हैं, वे अपने अंधविश्वासों और रूढि़यों पर बहसों के दौरान वही कट्टरपंथी जामा पहनकर हमलावर होते हैं, जिसे तस्लीमा के विरोधियों ने पहन रखा है। हमारा स्पष्ट मत है कि मजहबी कट्टरपन फिरकापरस्ती की जड़ है जिससे वैचारिक स्तर पर लड़ाई आज की सबसे बड़ी जरूरत है। अभिव्यक्ति की आज़ादी, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के हम सभी पक्षधर तस्लीमा नसरीन के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए उसकी सुरक्षा तथा हमलावर कट्टरपंथियों को कड़ी सजा देने की मांग करते हैं। हम मांग करते हैं कि तस्लीमा नसरीन को भारत की नागरिकता दे दी जाये, जिसकी वह मांग करती रही हैं।'
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- कौन कह रहा है कि विरोध नहीं हुआ
- तस्लीमा नसरीन का इंटरव्यू और तस्लीमा, हम शर्मिंदा हैं
- ये डरे हुए लोग हैं
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टिप्पणियाँ
घुघूती बासूती
केवल एक नाम लेने के लिए क्षमा कीजिये ।
घुघूती बासूती
'मैंने सब पढ़ा... कौन कह रहा है कि विरोध नहीं हुआ... तस्लीमा नसरीन का इंटरव्यू... और तस्लीमा, हम शर्मिंदा हैं... ये डरे हुए लोग हैं... आख़िर में तस्लीमा को भारत की नागरिकता दी जाए। मैं इस मांग से सहमत हूं... घुघुती जी की बात जितना समझा, उससे सहमत होना मेरे लिए मुश्किल है। हम तो रोज़ ही भारत सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ खड़े हैं। दरअसल तसलीमा का मुद्दा सिर्फ उसका मुद्दा नहीं है- ये भारतीय राजनीति की अपनी पेंच का मुद्दा भी है। मुझे सूचना मिली है कि पुराने हैदराबाद के इलाके में कांग्रेस की पैठ है। अगले साल नगरपालिका का महत्वाकांक्षी चुनाव होना है। एमआईएम कांग्रेस को पसोपेश में डालते हुए मज़हबी मुद्दे के साथ वहां पैठ बनाना चाहती है इसलिए तसलीमा के मुद्दे पर तमाम देशव्यापी विरोधों के बावजूद उसके तेवर कड़े हैं। कांग्रेस चुप है और क्या बोला जाए, उस पर मनन कर रही है। सीपीएम ने कोलकाता में तसलीमा की एक किताब को बैन किया है, लेकिन हैदराबाद में हमले वाले मुद्दे पर मुखर है, क्योंकि वो भी पुराने हैदराबाद में एमआईएम के खिलाफ के वोटों की जमाबंदी चाहती है। बहरहाल, ब्लॉग का इस्तेमाल आपने दिखा दिया है। इन तमाम तरह की राजनीति के बीच प्रतिरोध की सच्ची-ईमानदार तस्वीर दिखा कर। आपको बधाई।'
अविनाश
आपने वाजिब सवाल उठाया है। भावनाएं, हकीकत में तब्दील हो या होने लायक हों, जरूरी नहीं। चूंकि यह सामूहिक प्रस्ताव है, इसलिए इसे सिर्फ मेरी राय न मानिये। आपके सवाल का जवाब आसान नहीं है, फिर भी कोशिश कर रहा हूं। जहां तक तस्लीमा को नागरकिता देने का सवाल है, वो इसलिए कि एक शख्स अपने मुल्क में इसलिए नहीं रह सकता है कि उसे अपने विचारों की वजह से जान से मार दिया जायेगा। अपनी माटी से अलग रहने पर मजबूर करने से बड़ी तकलीफदेह चीज़ मेरी नज़र में कुछ नहीं है। आप खुशी-खुशी चाहे जहां रह लें, पर यह हो कि आप जहां पैदा हुए, पले बढ़े वहां अब इसलिए नहीं जा सकते कि कुछ लोग ऐसा नहीं चाहते। ये गलत है। नब्बे पार एमएफ हुसैन सिर्फ इसलिए हिन्दुस्तान से भागे-भागे चल रहे हैं कि यहां उनके खिलाफ माहौल बनाया गया है और कुछ लोग उन्हें जीवित नहीं देखना चाहते। खतरों के साये में ऐसे लोग क्या करेंगे। कहां जायेंगे। हो सकता है कि तस्लीमा जो लिखती हों, उससे हम असहमत हों। नाराज़ हो। नफरत करते हों पर इसी से किसी को उसे दर बदर करने और उसका वजूद मिटाने का हक नहीं मिल सकता... ऐसा हो रहा है तो यह मानवाधिकार का उल्लंघन है।
हिन्दुस्तान का बंगाल कम से कम तस्लीमा को अपनी जमीन से नज़दीक तो रखता है। वहां उसे अपनी जबान, अपने पहनावे, अपने जैसे चेहरे वाले लोग, एक ही खान-पान वाली संस्कृति, वही रवीन्द्र संगीत और नजरुल गीती मिलती है जो स्वीट्जरलैंड में मुमकिन नहीं .... क्या हम किसी को इतना सुकून भी नहीं दे सकते।
पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया में ऐसा हो तो ताज्जुब नहीं होता पर हिन्दुस्तान में ऐसा हो तो ताज्जुब की बात है। असल में ऐसी घटनाएं हमारे लोकतांत्रिक, उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष होने और अभिव्यक्ति की आज़ादी की कसौटी हैं। क्या हम साठ साल के होने के बावजूद असहमतियों के साथ जीना नहीं सीख पाये। और घुघुती जी, जो लोग लीक से अलग हट कर चलते हैं, उन्हें विष पीना पड़ता है। मीरा ने पितृसत्तात्मक मूल्यों के खिलाफ चलना तय किया, तो उसके साथ भी हमारा समाज बेरहम था। समाज का बड़ा तबका आज भी मीरा जैसों को जीने नहीं देता। इसलिए यह जरूरी है कि जो लोग ऐसी बातों को गलत मानते हैं, वे आवाज़ उठायें और असहमतियों को स्पेस देना सीखें। वरना जैसा कि आपने इशारा किया है, यहां क्या, कहीं भी रहना मुश्किल हो जायेगा।
आपकी बात का मैं कितना सुसंगत जवाब दे पाया, नहीं मालूम। पर संवाद हम जारी रखेंगे।
नासिरूद्दीन
घुघूती बासूती