दो बदन प्‍यार की आग में जल गये

अभय जी की टिप्‍पणी के बाद मुझे लगा कि कहीं मेरी याददाश्‍त तो धोखा नहीं खा रही है। आखिरकार मैं कल इस नज्‍़म को तलाशने में कामयाब रहा। यह नज्‍़म क्रांतिकारी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन की है।
मख़दूम ने जहां क्रांति के गीत लिखे वहीं उन्‍होंने मोहब्‍बत के गीत भी उसी जज्‍़बे से गाया। मख़दूम उन इंकलाबी शायरों में हैं, जो बार बार याद दिलाते हैं कि एक इंकलाबी शख्सियत के लिए एक इंसानी जज्‍़बे से भरपूर दिल की भी ज़रूरत होती है। इसके बिना क्रांतिकारी की कल्‍पना अधूरी है। मख़दूम आज़ादी की लड़ाई के सिपाही रहे और बाद में कम्‍युनिस्‍टों की कतार में शामिल होकर तेलंगाना विद्रोह की शमा भी जलाई।

उनके चंद मशहूर अशआर हैं-
न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे
खुदा भी मुस्‍कुरा देता था जब हम प्यार करते थे
यही खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी।
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हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो।
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इक नयी दुनिया, नया आदम बनाया जायेगा।
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सुर्ख़ परचम और ऊंचा हो, बग़ावत जि़दाबाद।

ढाई आखर के पाठकों के लिए पेश है उनकी मशहूर नज्‍़म। जिसे पूरा पेश करने की प्रेरणा अभय जी ने दी। हम अगली पोस्‍ट में मख़दूम की कुछ और नज्‍़मों को देंगे।

चारागर
इक चम्‍बेली के मंडवे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन
प्‍यार की आग में जल गये
प्‍यार हर्फे़ वफ़ा
प्यार उनका खु़दा
प्‍यार उनकी चिता
दो बदन
ओस में भीगते, चांदनी में नहाते हुए
जैसे दो ताज़ा रू ताज़ा दम फूल पिछले पहर
ठंडी ठंडी सबक रौ चमन की हवा
सर्फे़ मातम हुई
काली काली लटों से लिपट गर्म रुख़सार पर
एक पल के लिए रुक गयी

हमने देखा उन्‍हें
दिन में और रात में
नूरो जुल्‍मात में
मस्जिदों के मिनारों ने देखा उन्‍हें
मन्दिरों के किवाड़ों ने देखा उन्‍हें
मयकदे की दरारों ने देखा उन्‍हें

अज़ अज़ल ता अबद
ये बता चारागर
तेरी ज़न्‍बील में
नुस्‍ख़-ए- कीमियाए मुहब्‍बत भी है
कुछ इलाज व मदावा-ए-उल्‍फ़त भी है।

इक चम्‍बेली के मंडवे तले
मयकदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर
दो बदन।

(चारागर- वैद्य/हकीम, हर्फे़ वफ़ा - निष्‍ठा का अक्षर, रू-आत्‍मा, ताज़ा दम फूल-ताज़ा खिले हुए फूल, सबक रौ- मंद गति से चलने वाली, अज़ अज़ल ता अबद- दुनिया के पहले दिन दिन से दुनिया के अंतिम दिन तक, ज़न्‍बील- झोली में, नुस्‍ख़-ए- कीमियाए मुहब्‍बत- प्रेम के उपचार का नुस्‍खा)
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टिप्पणियाँ

अभय तिवारी ने कहा…
आप बेकार परेशान हुए नासिर.. मैंने तो लिखा भी था कि मेरी स्मृति भरोसे लायक नहीं है.. मैं तो उसका रोना रोते ही रहता हूँ.. बोधि भाई से इसी बात की तो ईर्ष्या है.. खैर.. अच्छी बात ये हुई कि एक बढ़िया नज़्म यहाँ शाया हो गई.. शुक्रिया..
ढाईआखर ने कहा…
अभय जी, आपकी शंका मेरी परेशानी से ज्‍यादा अहम थी। मख़दूम वैसे भी साहिर की तुलना में कम जाने जाते हैं। इसलिए मैंने इसे यहां पोस्‍ट किया। ये इसीलिए भी ज़रूरी था कि ये समझा जाये कि इंकलाबी शायर, सिर्फ जिंदाबाद वाले नहीं होते। वे भी इंसानी जज्‍़बों से भरपूर होते हैं। अगर वो 'जंग है जंगे आज़ादी' लिखते हैं तो उतनी ही शिद्दत से प्‍यार के बोल भी गाते हैं।
Neeraj Rohilla ने कहा…
नसीरूद्दीनजी,
आपने इतनी सुन्दर नज्म पढाकर हमारी सुबह का इस्तकबाल किया, हम आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं ।

लीजिये अब इसी खूबसूरत नज्म को दो खूबसूरत अंदाजों में सुनिये ।
http://antardhwani.blogspot.com/2007/08/blog-post_18.html

साभार,
ढाईआखर ने कहा…
नीरज जी,
आपने तो कमाल कर दिया। आपने अद्भुत काम किया, वो भी इतने कम वक्त में। मुझे नज्म पोस्ट किये ज्यादा से ज्यादा घंटा भर हो रहा होगा कि आपने दोनों गीतों को सजीव पेश कर दिया। वाकई मज़ा आ गया। मैं पहला वाला तलाश रहा था, लेकिन मिला नहीं। पहले वाले के आडियो की स्पीड में मुझे थोड़ी दिक्कत लग रही है। यह डाउनलोड कैसे होगा।
Neeraj Rohilla ने कहा…
नसीरूद्दीनजी,
आडियो स्पीड वाली समस्या अब हल हो गयी है, आप अपना ईमेल बतायें मैं इसकी mp3 फ़ाईल आपको ईमेल कर दूँगा ।

साभार,
ढाईआखर ने कहा…
नीरज जी,
इस बार तो गीत का पूरा आनन्द मिला। शुक्रिया। आपको एक दो दिन में मख़दूम की कुछ और नज्में ढाई आखर पर पढ़ने को मिलेंगी।
Udan Tashtari ने कहा…
अभी नीरज भाई के चिट्ठे से सुन कर चले आ रहे. बहुत आभार कि आपकी वजह से वो पोस्ट आई.

हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो।


--कमाल का शेर है, पेश करने का आभार.
अनूप शुक्ल ने कहा…
बहुत अच्छी लगा। यह शेर बहुत पसंद आया।
हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो।
Yunus Khan ने कहा…
मख़दूम और मौलाना हसरत मोहानी दोनों मेरी याददाश्त के मुताबिक क्रांतिकारी थे । दोनों ने वतनपरस्ती की शायरी भी की और दोनों ने इश्किया शायरी भी की । मखदूम की ये रचना ना केवल शायरी की बल्कि फिल्म संगीत की भी एक अनमोल रचना है । इसी तरह हसरत मोहानी ने एक तरफ चुपके चुपके रात दिन लिखा है दूसरी तरफ जहां तक मुझे पता है वो जंगे आज़ादी में जेल भी गए । आपको हैरत होनी स्वाभाविक थी क्यों कि दोनों शायरों के दोनों रूप ठीक से जगज़ाहिर नहीं हो सके हैं । इक़बाल कुरैशी ने इस गाने को फिल्म् चाचाचा के लिए स्वरबद्ध किया था । विविध भारती में उनसे मुलाकात का मौका मिला था । कुछ बरस बात जब हमने उनके घर फोन किया किसी जरूरी काम से तो पता चला कि डेढ़ बरस हुए उनका इंतकाल हो गया । फिल्मीक दुनिया के कुछ संगीतकार कितनी खामोशी से चले जाते हैं । जमाने को पता ही नहीं चलता ।
ढाईआखर ने कहा…
यूनुस भाई, आपने एकदम दुरुस्त फरमाया है कि दोनों शायर इंकलाबी थे। दोनों ने आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। मौलाना हसरत मोहानी काफी दिनों तक जेल में रहे। यह भी कहा जाता है कि पूर्ण स्वराज का पहला प्रस्ताव मौलाना ने ही पेश किया था। फिल्म चा चा चा में इस्तेमाल मख़दूम के गीत को भाई नीरज ने यहां http://antardhwani.blogspot.com/2007/08/blog-post_18.html
यहां पोस्ट किया है। हां, यह बहुत दुखद है कि कई बड़े कलाकार गुमनामी के अंधेरे में खो जाते हैं और उनके नहीं रहने के बाद हमारे पास सिवाय अफसोस जताने के कुछ नहीं बचता।
उड़न तशतरी जी और अनूप जी, पोस्ट पसंद करने के लिए आपका शुक्रिया।
Sagar Chand Nahar ने कहा…
नसीर जी
आपसे पहले अभय जी का जिनकी टिप्प्णी आपके लेख के माध्यम से ठेठ नीरज जी तक पहुंची और हमें सुन्दर रचना पढ़ने और सुनने को मिली।
अब आपका और नीरज भाइ दोनों का धन्यवाद। :)
॥दस्तक॥
Manish Kumar ने कहा…
शुक्रिया इस प्रस्तुति के लिए! गीत तो सुना था पर इसके लफ़्जों पर आज ही अच्छी तरह ध्यान गया।
आपकी याद आती रही रात भर.... मखदूम साहब की एक और मशहूर ग़ज़ल है जिससे प्रभावित होकर फ़ैज साहब ने भी इसी मुखड़े से एक और ग़ज़ल लिख डाली।

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