क्या रवीश पैसे के लिए सेक्यूलर हैं
बड़ा आसान होता है किसी की ईमानदारी और विचार पर सवाल खड़े करना। अपने विचार को सर्वश्रेष्ठ मानना भी बड़ा आसान होता है और सबसे आसान होता है कि किसी की धर्मनिरपेक्षता पर ताने कसना। इस तरह के विचार छिपाते-छिपाते काफी कुछ कह जाते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माहिर सहाफी रवीश कुमार ने काफी पहले (22 अगस्त 2007) 'चक दे इंडिया' पर एक टिप्पणी लिखी थी। वह टिप्पणी ढाई आखर ने पोस्ट की। जनाब अतुल जी ने कल चार नवम्बर को उस पोस्ट पर अपनी राय जाहिर की। उस टिप्पणी में उन्होंने रवीश कुमार पर ही कुछ सवाल उठा दिए। चूँकि पोस्ट को काफी दिन हो चुके हैं, इसलिए अतुल जी की राय और रवीश के जवाब को हम यहां अलग पोस्ट की तरह पेश कर रहे हैं।
जनाब अतुल जी ने लिखा है-
' विवाद कि जगह संवाद करने का रिक्वेस्ट बिल्कुल बढि़या है और कोशिश कि जायेगी। कबीर खान को लेकर फिल्म बनाना आसान है क्योंकि आजकल काफी फ़ैशनेबल सा हो गया है सेक्यूलर दिखना इन्क्लुडिंग रवीश जी. क्योंकि उसमें काफी नाम भी, पैसा भी है और सेफ्टी भी है. मगर हिम्मत तो हम तब माने जब रवीश अपने डेनमार्क के पत्रकार भाई जिन पे अटैक होता है या तसलीमा नसरीन पे देश के मंत्रिगण फिजिकल अटैक करते हैं. मगर ऐसा करना फाइनेंशियली एंड रिवार्डिंग नहीं है रवीश के लिए वो सेफ टौपिक चुनते है .. आख़िर क्यों ? डर है या नौकरी बचाने की फिक्र या लालच। वजह तो उन्हें ही पता होगा बट देखने वालों को तो उनके लेंस में दाग और कलम कि स्याही में मिलावट दिखेगा।'
रवीश कुमार का जवाब है-
अतुल
इतने हताश न हों... सेक्यूलर दिखने से पैसा मिलता है? क्या है यह? कौन देता है पैसा जरा बताइये... मैं सेक्यूलर हूँ... दिखने के लिए नहीं... उसकी जरूरत नहीं है... सेक्यूलर होना अच्छा काम है... जब आप अच्छा काम करेंगे तो नाम भी होगा... लेकिन बंधु... नाम के लिए हम सेक्यूलर नहीं होते... वह तबियत से ही हैं...
आप अपना होश खो चुके हैं... जब डेनमार्क के पत्रकार पर कट्टरपंथी मुल्लाओं ने फतवा दिया था तब भी विरोध किया था... और तस्लीमा पर हमला हुआ था... उसका भी... अब आप यह मत कहिएगा कि विरोध करने मैं हैदराबाद गया था या नहीं... तस्लीमा पर विरोध तो मेरे ब्लॉग पर जाकर पढ़ सकते हैं... किस घटना पर मैं लिखूं... या विरोध करूँ... यह मेरा अधिकार है... कई घटनाएं होती हैं जिन पर कुछ नहीं बोलता... लेकिन इसका मतलब नहीं कि हम सेक्यूलर नहीं.. जब लगता है कि इस पर बहस की जाए ताकि इसके बहाने उन छोटी-छोटी घटनाओं को भी बहस में लाया जा सके जो हम छोड़ देते हैं।
ये आपसे पता चला कि कबीर खान पर फिल्म बनाने से फिल्म हिट हुई या चर्चा में आई... आप अपने मन का दरवाजा खोलें... आपकी प्रतिक्रियाएं एक खास किस्म की राजनीतिक धारा से आती लग रही है... जिससे मैं इत्तेफाक नहीं रखता... और ये मैं पैसा या नाम कमाने के लिए नहीं करता...
रही बात नौकरी की फिक्र की तो वो तो करता हूँ... क्यों आप नहीं करते... और ये कहां लिखा है कि नौकरी करते हुए आप समाज और राजनीति पर अपनी राय नहीं रख सकते... क्या भारत के संविधान में आपने पढ़ा है कि किसी चीज पर प्रतिक्रिया देनी हो तो नौकरी छोड़ दीजिये और धरना पर ही बैठिये... अलग अलग मंचों पर और अलग अलग तरीके से विरोध या समर्थन होता रहता है...
आप अपने भीतर झांकिये... कि आपमें कि आपमें कितनी हिम्मत है।।
मैं इस मामले में बहुत डरपोक हूँ कि कहीं मैं साम्प्रदायिक हैवान न हो जाऊँ... मुझे इस बात से डर लगता है कि एक खास कौम या जाति से इतनी नफरत क्यों करते हैं... एक जवाब देता हूँ...
जिस हिन्दुस्तान के लोगों ने अस्सी फीसदी दलितों की आबादी के साथ सदियों तक हिंसा किया... उन्हें चलने के अलग रास्ते दिये ... वहां खुद से डरना चाहिए कि कहीं आप आप बाकि के 20 फीसदी जैसे हिंसक न हो जाएं... इसलिए हिम्मत से काम लीजिये... और सेक्यूलर बने रहिए...
रवीश
टिप्पणियाँ