इमाम-ए-हिन्द हैं राम
एक शख्स जिसे दुनिया इस्लामी चिंतक और दार्शनिक के रूप में जानती है। एक शख्स जिसे अपना हिन्दोस्तां, सारे जहां से अच्छा लगता था। वो शख्स एक ऐसे किरदार के बारे में कलम उठाता है जिसे दुनिया 'राम' के रूप में जानती है। इसमें उसका मज़हब या दीन का यकीन आड़े नहीं आता। उसने यह नज्म अपने को राष्ट्रवादी साबित करने के डर से भी नहीं लिखा। यह शख्स कोई और नहीं मोहम्मद इक़बाल हैं। जिन्होंने 'राम' नाम की महिमा का गान किया है। सबके अपने-अपने राम हैं, अगर यह कहा जाये तो शायद गलत न होगा। ...लेकिन 21 वीं शताब्दी में हिन्दुत्ववादी (हिन्दू मज़हब मानने वाले नहीं, बल्कि उसके नाम पर राजनीति करने वाले) राम की एक ही पहचान बनाने की जुगत में लगे हैं। उन्होंने यह भ्रम भी फैलाने का काम किया है कि राम का नाम उनकी ही वजह से बचा है और हिन्दू धर्म तो उनके बिना नेस्तनाबूत हो जायेगा। अपना भ्रम दूर करने के लिए हिन्दुत्ववादियों को 20 वीं सदी में लिखी इस नज्म को पर भी जरा गौर करना चाहिए। ख़ैर, वो गौर करें या नहीं, हम तो देखें ही इक़बाल की राम भक्ति। राम लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिन्द सब फ़लसफ़ी ह
टिप्पणियाँ
वाह!
शानदार बैनर चित्र।
कोई गल नहीं जी, अक्सर शाएर-कवियों की साइंस कमज़ोर होती है।
शुक्रिया। बैनर के फोटो के बारे में आपको यहां से जानकारी मिल सकती है-
http://dhaiakhar.blogspot.com/search/label/%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%80%20Wali
नासिरूद्दीन
चिपचिपे दूध से नहलाते हैं
आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।
शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या
घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलसियाँ भर के
औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर
पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो
इक पथराई सी मुस्कान लिए
बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।
जब धुआँ देता, लगातार पुजारी
घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर
इक जरा छींक ही दो तुम,
तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।
-संदीप राउजी