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तीस साल बाद स्याह यादें

(अभी सन 84 के दंगों को लेकर काफी हंगामा बरपा था। जिस पार्टी को जो आसान और सुविधाजनक लगा, उसने 84 के दंगा और पीडि़तों का अपने तरीके से इस्तेमाल किया। लेकिन इस मुल्क ने सत्तर और अस्सी के दशक में कुछ और भयानक दंगे देखे हैं, उन्‍हें कोई याद नहीं रखना चाहता। उसके लिए कोई हो हल्ला भी नहीं मचता। ऐसा ही एक दंगा था, जमशेदपुर का। मैंने भी दंगा पीडि़तों को पहली बार इसी दंगे के जरिए जाना था। समाचार वेबसाइट टूसर्किल्स डॉट नेट के सम्पादक काशिफ उल हुदा उस वक्त पाँच साल के थे और दंगे में बाल-बाल बच गए थे। उस दंगे के तीस साल बाद यह बच्‍चा अपने बचपन के उन काली स्‍याह यादों को ताजा कर रहा है। इसलिए नहीं कि आप सियापा करें। इसलिए कि ऐसी यादें कितनी खौफनाक होती हैं और उनका असर ताउम्र होता है। तो क्या हम अपनी आने वाली पीढ़ी को भी ऐसी ही खौफनाक यादें देकर जाना चाहते हैं। यह टिप्‍पणी मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई है। इसे हिन्दी में सिटिजन न्यूज सर्विस ने तैयार किया है। मैंने उस हिन्दी अनुवाद में थोड़ा संशोधन, थोड़ा सम्पादन किया है।- नासिरूद्दीन ) 1979 के जमशेदपुर के दंगों की याद काशिफ-उल-हुदा 1979 क...

लौटना मार्क्‍स का (Lautna Marx Ka)

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इधर एक शोर बरपा है। दाढ़ी खुजलाते, बाल झटकते, बोलते-बोलते टेढ़े होते बदन, हमेशा तनाव से खींचे रहने वाले चेहरों पर चमक दिख रही है। कार्ल मार्क्‍स लौट रहे हैं। दास कैपिटल यानी पूँजी की तलाश फिर शुरू हुई है। गोष्ठियों में कहा जा रहा है, ‘देखा आ गई ना मार्क्‍स की याद। मार्क्‍स ही इस दुनिया को बचाने वाले हैं।’ कार्ल मार्क्‍स न लौट रहे हों जसे कल्कि अवतार हो रहा हो। जसे कोई आस्थावान कह रहा हो, देखो हम कहा करते थे ना, दुनिया को बचाने भगवान, कल्कि अवतार का रूप लेंगे। वो आ गए। वो आ गए...। पिछले कई सालों से वचारिक रूप से पस्त चल रहे ‘ऑफिशियल मार्क्‍सवादियों’ में विश्व आर्थिक मंदी ने थोड़ी हरकत पैदा कर दी है। पँख फड़ फड़ाकर वे धूल झाड़ रहे हैं। खबरें पढ़कर खुश हो रहे हैं। कोने में छप रही - ‘मार्क्‍स की याद आई’ या ‘तलाशी जा रही है मार्क्‍स की पूँजी’ जसी खबरें उन्हें खुशी से झुमा रही है। याद अमेरिका, यूरोप और दूसरों को आ रही है, खुश ये हो रहे हैं। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी तलाशना अच्छी बात है। लेकिन ...

अजगर तो छदम धर्मनिरपेक्षतावादी निकला!

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मोहब्‍बत की बात करते- करते अजगर ने यह क्‍या लिख डाला। यह भी छदम धर्मनिरपेक्षतावादी ही निकला। शायद यह अजगर होते ही ऐसे हैं। तब ही तो इसने अपना नाम ही रखा है, आस्‍तीन का अजगर। तीन दिन पहले उसने एक पोस्‍ट डाली अपने ब्‍लॉग 'अखाड़े का उदास मुदगर' पर। वही पोस्‍ट यहाँ दोबारा पेश कर रहा हूँ। कॉपी- पेस्‍ट लेकिन बिना किसी साभार के। यह आस्‍तीन का अजगर कौन है। है भी या नही। कहीं वर्चुअल वर्ल्‍ड का यह वर्चुअल क्रिएशन तो नहीं। दिखता है पर होता नहीं। क्‍या करता है। क्‍या खाता है। किस बिल में रहता है। जब यह मालूम नहीं तो साभार हवा में कैसे दे दिया जाए। अजगर की इन लाइनों को पढ़कर लगता है, अजगर इन दिनों बेचैन है। उसके बदन में ऐंठन हो रही है। लगता है गला दबोचने वाले अजगर के गले पर किसी तरह का फंदा है। और वह फंदे से आजाद होने की कोशिश में है। खैर मेरा भाषण पढ़ने के बजाय, जिन दोस्‍तो ने अब तक आस्‍तीन का अजगर की ये लाइन नहीं पढ़ी है, जरूर पढ़ें और देखें अजगर ने जब पूंछ उठाई तो वह भी छदम धर्मनिरपेक्षतावादी ही निकला। सो, सावधा...

आतंकवाद का हिन्‍दुत्‍ववादी (हिन्‍दू नहीं) चेहरा (Hindutava terror)

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क्‍या वाकई हम सब, पुलिस और खुफिया निजाम आतंकवाद से लड़ना चाहते हैं। अगर हाँ, तो वक्‍त आ गया है कि आँख में आँख डालकर सच कहने और सुनने की हिम्‍मत पैदा करें। पिछले कई पोस्‍ट में ढाई आखर से यह मुद्दा उठता रहा है कि आतंकवाद को किसी खास मजहब या खास समुदाय या खास नामधारियों के मत्‍थे मढ़ने से काम नहीं चलेगा। इससे आतंकवाद खत्‍म नहीं किया जा सकता। लेकिन जब पूरा का पूरा निजाम, खासतौर पर पुलिस और खु‍फिया एजेंसियाँ और उनकों वैचारिक खाद-पानी देतीं, हिन्‍दुत्‍ववादी पार्टियाँ (हिन्‍दूवादी नहीं)  हों  तो हर जाँच एक खास चश्‍मे से ही की जाएगी। इसी मायने में इंडियन एक्‍सप्रेस की आज की एक खबर हंगामा मचाए है। इंडियन एक्‍सप्रेस के मुताबिक ईद के ठीक पहले मालेगाँव और मोदासा में हूए बम धमाकों में हिन्‍दुत्‍ववादी संगठनों के हाथ होने की खबर है।  खबर कहती है कि इंदौर के एक हिन्‍दुत्‍ववादी संगठन हिन्‍दू जागरण मंच इन धमाकों के पीछे है। धमाका करने वालों का रिश्‍ता अखिल भारतीय विद्यार्थ...

भारतीय मुसलमानों का अलगाव (Alienation Of Indian Muslims)

यह लेख जामिया मिलिया इस्‍लामिया विश्‍वविद्यालय, दिल्‍ली के कुलपति प्रोफेसर मुशीरूल हसन  का लिखा है। इसे यहाँ अंग्रेजी में ही पेश किया जा रहा है। जामिया मीलिया, भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सबसे मजबूत कडि़यों में से एक है। लेकिन बटला हाउस इनकाउंटर के बाद जामिया और मुशीरुल दोनों पर 'तथाकथित राष्‍ट्रवादी'  लगातार हमले कर रहे हैं। इनके सुर में सुर मिलाया 'निष्‍पक्षता' के अलमबरदार मीडिया ने। मुशीरुल की यह टिप्‍पणी उसी संदर्भ में है। मुशीरुल हसन के बारे में कोई भी टिप्‍पणी करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि उनके नाम से उनकी शख्सियत की 'पहचान' नहीं है। मुशीरल हसन देश के उन-गिने चुने लोगों में से थे, जिन्‍होंने सलमान रुश्‍दी की पुस्‍तक पर पाबंदी लगाए जाने पर सवाल खड़े किए थे। वह इस मुल्‍क के बड़े  इतिहासकार हैं। यह टिप्‍पणी काउंटरकरंट्स   से साभार यहाँ पेश की जा रही है। Alienation Of Indian Muslims By Mushirul Hasan T he extent to which the Indian society is getting polarised along religious lines is ...

एक पागल की डायरी का पुनर्पाठ

लू शुन की कहानी 'एक पागल की डायरी' का पुनर्पाठ अपूर्वानन्‍द के शब्‍दों में- पचीस वर्ष हो गए हैं जब हमने पटना इप्टा की ओर से चीनी लेखक लू शुन की कहानी ' एक पागल की डायरी'   का मंचन किया था.  जावेद अख्तर खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी.  ज़ोर देने पर भी याद नहीं आ रहा कि तब क्यों हमने इस कहानी को मंचित करने के बारे में सोचा था. इन पचीस बरसों में यह कहानी दिमाग की दराज में पड़ी रही. कहानी के आखरी दो वाक्य जैसे एक मन्त्र की स्मृति की तरह रक्त में घुल गए : "शायद बच्चों ने आदमी को नहीं खाया है? बच्चों को बचा लें... ." एक विक्षिप्त हो गए मनुष्य की कातर, आर्त पुकार है.  नफरत के निरंतर प्रचार के बीच लगभग नब्बे साल पहले चीन से  उठी यह चीख  मेरे मस्तिष्क   के आकाश में मंडराती रही है. कथा का वाचक अपने स्कूल के दो दोस्तों से कई साल बाद मिलने जाता है. उसे उनमें से एक के बीमार रहने कि ख़बर मिली थी. उनके घर जाने पर बड़ा भाई  बताता है कि छोटा भाई अभी-अभी   बीमारी से  उबरा  है  और कोई सरकारी नौकरी उसे मिल गई है....

ईद के मौके पर गांधीगीरी

ऐसी न शब्‍बरात न बकरीद की खुशी, जैसी है हर दिल में इस ईद की खुशी।। नजीर अकबराबादी की ये दो लाइनें ईद की अहमियत बताने को काफी हैं। ईद से पहले एक महीना होता है- रमजान। रमजान यानी इबादत, संयम, विवेक, खुद पर काबू रखने की सलाहियत पैदा करना,  अपनी बुराइयों पर विजय पाना, झंझावात में भी इंसानियत का जज्‍बा सम्‍हाल कर रखना, पडो़सियों का हक अदा करना, गरीबों की मदद करना, बेसहारों को सहारा देना... और ढेर सारे आदि-आदि। यानी उन सब की चीजों की याद दिलाना, जिससे इंसान, इंसान बना रहे। यही असली जिहाद भी है। सर्वश्रेष्‍ठ जिहाद। लेकिन यह ईद कुछ अलग है। इस बार रमजान में बम‍ विस्‍फोट, एनकाउंटर, तनाव, खौफ, नफरत के बोल, मीडिया के हर क्षण होते ब्रेकिंग न्‍यूज... हावी रहे। रोजदारों के सूखते गले, पपडि़यों पड़े काँपते होंठ  और खोई- खोई आँखें ढेर सारे सवालों का जवाब खोजती रही। खुशी पर खौफ और नफरत का साया छाया रहा। फिर भी ईद एक ऐसा त्‍योहार है जो आता ही इसीलिए है कि दूरियाँ कम हों, नफरत और खौफ का साया खत्‍म हो। गले यूँ ही थोड़े मिलते हैं। इ...