दोस्त, साँस की डोर क़ायम है
हम ढेर सारे मिथकों और भ्रांतियों पर यक़ीन करते हैं और उसी में जीते हैं। समाज के बारे में, समुदायों और जातियों के बारे में... हम उसे सच की कसौटी पर कसना भी नहीं चाहते। वही भ्रांति और मिथक समुदायों और जातियों के बीच दूरी की वजह भी बनता है। मेरे ब्लॉग के एक पोस्ट '... तो टीवी देखना इस्लाम के खिलाफ़ है ' पर पाठक साथी ab inconvenienti ने एक टिप्पणी दर्ज की। टिप्पणी भ्रांतियों और मिथकों के तह में लिपटे मुसलमानों के बारे में है। ab inconvenienti कहते हैं, ' यही बात आप किसी मुस्लिम आबादी के सामने कह कर देखें, मौलवी-मौलानाओं के सामने... देखते हैं फ़िर कितनी देर आप अपनी साँसों की डोर को कायम रख पाते हैं?' यह चेतावनी है... धमकी है या फिर चुनौती या दोस्ताना सलाह... जो भी हो... मैं अक्सर सुनता हूँ। मुझे नहीं मालूम कि यह दोस्त किस आबादी में जाने को कह रहे हैं और कहाँ इन्होंने ऐसी हालत देखी जहाँ, साँस की डोर काटने वाले तो हैं पर जिंदगी बचाने वाले नहीं। मेरा तजुर्बा जुदा है। मेरी साँस की डोर पर जान लड़ा देने वाले ढेर सारे दोस्त हैं। यह मेरा यक़ीन है और अविश्वास की