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जुलाई, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दोस्‍त, साँस की डोर क़ायम है

हम ढेर सारे मिथकों और भ्रां‍तियों पर यक़ीन करते हैं और उसी में जीते हैं। समाज के बारे में, समुदायों और जातियों के बारे में... हम उसे सच की कसौटी पर कसना भी नहीं चाहते। वही भ्रांति और मिथक समुदायों और जातियों के बीच दूरी की वजह भी बनता है। मेरे ब्‍लॉग के एक पोस्‍ट '... तो टीवी देखना इस्‍लाम के खिलाफ़ है ' पर पाठक साथी ab inconvenienti ने  एक टिप्‍पणी दर्ज की। टिप्‍पणी भ्रांतियों और मिथकों के तह में लिपटे मुसलमानों के बारे में है। ab inconvenienti कहते हैं, ' यही बात आप किसी मुस्लिम आबादी के सामने कह कर देखें, मौलवी-मौलानाओं के सामने... देखते हैं फ़िर कितनी देर आप अपनी साँसों की डोर को कायम रख पाते हैं?' यह चेतावनी है... धमकी है या फिर चुनौती या दोस्‍ताना सलाह...  जो भी हो... मैं अक्‍सर सुनता हूँ। मुझे नहीं मालूम कि यह दोस्‍त किस आबादी में जाने को कह रहे हैं और कहाँ इन्‍होंने ऐसी हालत देखी जहाँ, साँस की डोर काटने वाले तो हैं पर जिंदगी बचाने वाले नहीं। मेरा तजुर्बा जुदा है। मेरी साँस की डोर पर जान लड़ा देने वाले ढ...

... तो टीवी देखना इस्लाम के खिलाफ़ है! (Ooh...Watching TV is against the Islam!)

सनिचर 12 जुलाई की सुबह मेरठ के लावड़ कस्‍बे के पास दौराला रोड पर लोगों का हुजूम लगा था। जिसे देखिए वही अपनी गाड़ी लगाकर तमाशा देख रहा था। समझना चाह रहा था कि आखिर यह हुआ क्‍या। क्‍या हो रहा है। ... लोग अपने घरों से टीवी उठाकर ला रहे हैं और सड़क पर पटक रहे हैं। कोई वीसीडी प्‍लेयर लिए चला आ रहा है तो किसी के हाथ में टेपरिकार्डर। ... टीवी, टेपरिकार्डर, सीडी और सीडी प्‍लेयर ... जिस घर में जो था ... सब तोड़ दिए गए। कहीं किसी सामान की साँस न चलती रहे, इसलिए इतिमिनान के लिए मलबे में आग लगा दी गई। राख... सब कुछ खाक। पर यह हुआ क्‍यों। इन सबकी अगुआई कर रहे नेता जी कहना था कि 'ये सारी चीज़ें अश्‍लीलता और जुर्म को बढ़ावा देने का सबब हैं। नौजवान अपनी जिम्‍मेदारियों से दूर हो रहे हैं।' और तो और उन्‍होंने एक और लुकमा जोड़ दिया... 'यह सारी चीज़ें इस्‍लाम विरोधी हैं। ऐसा इस्‍लाम के विद्वानों ने बताया है। मुसलमानों के लिए इन्‍हें देखना हराम है। इनकी अपील है कि मुसलमान टीवी... सीडी प्‍लेयर इस्तेमाल न करें और कर रहे हैं तो इनकी तरह घर से इन्‍हें बेदख़ल कर दे।' इस्‍लाम के पहले के युग ...

फ़हमीदा रियाज की नज्‍म नया भारत (Naya Bharat by Fahmida Riyaz)

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कुछ लोगों को लगता है कि पड़ोस में कुकर्म हो रहा है, तो वे भी अपने यहाँ कुकर्म करने के हकदार हो गए हैं। अगर आप अपने यहाँ के कुकर्म के बारे में आवाज उठा‍इए तो वे कहेंगे, पड़ोस का कुकर्म नहीं दिखाई देता। यानी इनका कुकर्म एक वाजिब कर्म हो गया क्‍योंकि पड़ोस में भी ऐसा ही चल रहा है। एक मु‍ल्‍क है, जिसका नाम है पाकिस्‍तान। साठ साल की उम्र है। मजहब के नाम पर बना। लेकिन मजहबी लोगों ने नहीं बनाया। वहाँ क्‍या होता आया है या हो रहा है- इस पर तनकीद की जरूरत नहीं है। लेकिन उसकी बाकि किसी चीज से कम्‍पटीशन करे या न करे, कुछ लोगों को उनका कट्टरपंथ बड़ा भा रहा है। वहाँ का कट्टरपंथ, मजहबी पेशवाई, उनके लिए इस मुल्‍क में खाद-पानी का काम कर रहा है। वे उससे कम्‍पटीशन करने में लगे हैं। वे उसे जिंदा रखना चाहते हैं, ताकि खुद भी जिंदा रहें।  ख़ैर। दूसरी ओर, पाकिस्‍तान के आम लोग, साहित्‍यकार, संस्‍कृतिकर्मी,  कट्टरपंथ से आजिज हैं। (शक हो तो खुदा के लिए KHUDA KE LIYE फिल्‍म जरूर देखें) उनके लिए हिन्‍दुस्‍तान प्रेर...

वो बात उनको बहुत नाग़वार गुज़री है

कितना आसान होता है, दूसरों से ईमानदारी का सर्टिफिकेट माँगना। उससे भी आसान होता है, तड़ से सर्टिफिकेट दे देना। मुझे भी सर्टिफिकेट दिए जा रहे हैं। पहले भी ख़ूब दिए गए। ललकारा गया। पर मुझे किसी सर्टिफिकेट की दरकार नहीं है। इसलिए कि जब सर्टिफिकेट देने वाला किसी खास रंग का चश्‍मा पहने होगा, तो उसे कुछ भी साफ नज़र नहीं आएगा। न ही मैं यहाँ बॉक्सिंग रिंग में हूँ कि धींगामुश्‍ती करूँ। जो चीज हम देखना नहीं चाहते, वह सामने होते हुए भी नहीं दिखती। जैसे कुछ दोस्‍तो को (मैं जानबूझ कर नाम नहीं लेना चाहता) पिछले पोस्‍ट में नहीं दिखा। मैं यही कह सकता हूँ कि उन्‍होंने पोस्‍ट पूरी नहीं पढ़ी। कुछ लोग अगर मेरे पिछले कई पोस्‍ट देख लेते तो शायद,  उनका जो ख़ून जला, न जलता। यही नहीं, यह सब संवाद वाली टिप्पिणियाँ नहीं हैं, विवाद वाली हैं। संवाद वाली टिप्पिणियाँ कैसे की जाती हैं, यह घुघूती बासूती से सीखना चाहिए। ख़ैर। कुछ उदाहरण। पिछली पोस्‍ट की दो लाइन है- 'मामला उस अमरनाथ यात्रा से जुड़ा था, जो हिन्‍दुस्‍तान की मिली-जुली तहज़ीब का अद्भु...

सियासत का मजहब और मजहब की सियासत (Politics, secularism and religion)

सियासत को मजहब बड़ा भाता है और मज़हब को सियासत। सब अपनी सत्‍ता कायम करना चाहते हैं लेकिन भारत के संविधान की मजबूरी है। वह मजहब और सियासत के घालमेल के खि़लाफ़ है। कल का हंगामा ही लें। मामला उस अमरनाथ यात्रा से जुड़ा था, जो हिन्‍दुस्‍तान की मिली-जुली तहज़ीब का अद्भुत नमूना है। पर यह उन लोगों को गवारा नहीं, जिनकी कामयाबी का राज़ लोगों को बाँटने में छिपा है। जो बेरोजगारी के सवाल पर भारत बंद कभी नहीं कराते। उन्‍हें तो 'आस्‍था' भाती है। सो साधु नुमा राजनेता और राजनेता नुमा साधु जुट गए। धर्म पर हमला हो रहा है... सो उन्‍होंने जगह-जगह हमला बोल दिया। ख़ूब तोड़ा- ख़ूब बिख़ेरा। ख़ूब बोई नफ़रत के बीज... अब फ़सल पकाएँगे। यह है धर्म और राजनीति का गठजोड़। ख़ैर। एक ओर मजहब में राजनीति चल रही है तो दूसरी ओर राजनीति में मजहब। यह मुल्‍क न्‍यूक्‍लीयर करार करेगा या नहीं, ख़ालिस सेक्‍यूलर मसला है। यह इस मुल्‍क के मुस्‍तकबिल से जुड़ा है। आगे आने वाले दिनों में देश की सियासत की लाइन भी यह तय करेगा। कई पुराने दोस्‍त छूटेंगे तो कई न...

तो यह तैयारी की झलक है

तो यह तैयारी ऐसे ही वक्‍त के लिए थी। यह बात बृहस्‍पतिवार को समझ में आई। चकाचक क्रिज वाला भगवा शर्ट पहने... कान में मोबाइल की आवाज पकड़ने वाला मशीन लगाए...हाथों में चमकता त्रिशूल लहराते नौजवान..गदा उठाए... जी हाँ... ये हैं ‘तेजस्‍वी’ और ‘वीर बालक’। यह छवि उसी इंदौर की है, जहाँ ‘सांस्‍कृतिक’ काम करने वाले एक संगठन के लोग पिछले दिनों खुलेआम बंदूक से गोलियाँ दाग रहे थे। क्‍यों। क्‍यों क्‍या...प्रैक्टिस कर रहे थे... ये लोग भी इन्‍हीं के भाई बंधु हैं, ऐसा कहा जाता है। यह सड़क पर उतरें और भू-डोल न हो, तो इनका उतरना बेमानी। इनका कमाल देखिए, रथ पर चलते हैं, पीछे-पीछे अपने-आप भू-डोल होता जाता है। बृहस्‍पतिवार को देश बंद कराने चले, तो हो गया भू-डोल। और फिर बंदूक चलाना और त्रिशूल लहराना, सीखने का फायदा क्‍या, जब उसका इस्‍तेमाल ही न हो। तो हो गया इस्‍तेमाल। लग गया इंदौर के कई इलाकों में कर्फ्यू। राष्‍ट्रीय अस्मिता का सवाल है जनाब, थोड़ा बर्दाश्‍त तो करना पड़ेगा। न ही करेंगे तो ...