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मई, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इन बुज़ुर्गों से हम क्यों नहीं सीख लेते

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एकता की अनूठी मिसाल हैं मौलाना यामीन और डॉ. हरपाल दोनों काफी बुज़ुर्ग हैं। दोनों के जवान बेटे फिरकापरस्त हिंसा की बलि चढ़ गये। अगर मज़हब के चश्मे से देखें तो एक हिन्दू है, दूसरा मुसलमान। पर ये 'हम' और 'तुम' के मज़हबी खानों में नहीं बँटे। ये एक-दूसरे के दुश्मन भी नहीं बने। न ही इन्हें, हर दूसरा मज़हब वाला दुश्मन नज़र आता है। ये हैं मौलाना मोहम्मद यामीन और डॉ. हरपाल सिंह। मौलाना मोहम्मद यामीन मज़हबी मामलों के जानकार हैं और मेरठ नगर निगम के पार्षद रह चुके हैं। डॉ़. हरपाल राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रहे हैं। नफरत के साये में रहने के बावजूद ये दोनों हिन्दू-मुस्लिम एकता की अनूठी मिसाल हैं। मेरठ के हाशिमपुरा कांड की जद्दोजहद बीस साल से चलते रहने के पीछे भी यही दो बुज़ुर्ग हैं। चारों ओर बढ़ते नफरत के बीच ये लोग प्रेरणा की जीवंत मिसाल हैं। मेरठ। मई १९८७। वही दंगा जिसमें हाशिमपुरा कांड हुआ। एक नौजवान डॉक्टर, जिसने अभी-अभी मेडिकल की पढ़ाई पूरी की थी, एक मुस्लिम डॉक्टर के बुलावे पर, मुस्लिम मरीज के ऑपरेशन के लिएं बेहोशी की दवा देने घर से निकलता है। दंगा, एक दिन पहले ही शहर में फैल

मकसद, मुसलमानों को सबक सिखाना था

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मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार को नजदीक से देखने और महसूस करने वालों में आईपीएस अफसर विभूति नारायण राय भी हैं। इस घटना के बीस साल पूरे होने पर मैंने, हिन्दुस्तान के लिए उनसे बात की। बातचीत और उनकी किताब के आधार पर तैयार रिपोर्ट ढाई आखर के पाठकों के लिए- नासिरूद्दीन हाशिमपुरा कांड पर एक पुलिस अफसर का नजरिया 'पुलिस हिरासत में हत्या का हाशिमपुरा कांड जैसा उदाहरण खोजना मुश्किल है। असलीयत में यह नरसंहार मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए अंजाम दिया गया था। अल्पसं ख्यकों के बारे में पुलिस के नजरिये का इससे बेहतर उदाहरण और दिल दहला देने वाली घटना, शायद ही कोई और हो।' सन् 1987 में हुए मेरठ के हाशिमपुरा कांड के बारे में यह ख्यालात आईपीएस अफसर विभूति नारायण राय के हैं। बतौर गाजियाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक विभूति नारायण राय ने इस घटना को नजदीक से देखा था। यही नहीं, शोधकर्ता के रूप में भारतीय पुलिस पर अपने अध्ययन 'कॉम्बैटिंग कम्युनल कांफिल्कट` में इस घटना का विश्लेषण भी किया है। 22 मई 2007 को जब इस हत्याकांड के 20 साल पूरे हो गये हैं, वीएन राय घटनाक्रम की कड़ियाँ ऐसे जोड़ते हैं, मानो

हाशिमपुरा याद है!

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हाशिमपुरा याद है! 22 मई 1987 तक मेरठ का यह एक गुमनाम कस्बा था। पर बीस साल पहले कुछ ऐसा हुआ, जिसने इस कस्बे को देश की सुर्खी बना दिया। दंगे के दौरान इस इलाके से हिरासत में लिये गये करीब 50 मुसलमानों को पीएसी की एक बटालियन उठाकर ले जाती है और रात के अँधेरे में मारकर नहर में फेंक देती है। संयोग से मरा हुआ समझ कर फेंके लोगों में पाँच, गोलियाँ लगने के बावजूद बचने में कामयाब रहे। आजाद हिन्दुस्तान में पुलिस हिरासत में इतनी बडी तादाद में हत्या का कोई दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है। नागरिक समाज उस वक्त तो उद्वेलित हुआ था पर पिछले 20 सालों में वह इसे लगभग भूल सा गया। ठीक वैसे ही जैसे असम का नल्ली, बिहार का भागलपुर या महराष्ट्र का मुम्बई भुला दिया गया या फिर अब गुजरात के दंगों को भुलाने की कोशिश हो रही है। जख्म हमेशा हरे रहे, यह अच्छी बात नहीं है। पर जख्म भरने के लिए जरूरी है कि पीड़ितों को इंसाफ मिले। ऊपर गिनाये गये किसी भी नरसंहार में लोगों को आज तक इंसाफ नहीं मिला। हजारों लोगों ने न सिर्फ अपने अजीज खोये बल्कि हजारों परिवार पीढ़ियों के लिए तबाह व बर्बाद हो गये। हाशिमपुरा के लोग पिछले 20 सालों से

दबे पांव आया एक सामाजिक 'सुनामी'

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जी हां, मशीन से बसपा का जिन्न निकला पर किसी ने उसकी ऐसी धमाकेदार आमद का अहसास नहीं किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। जब भी हाशिये पर लोगों की दस्तक सत्ता तक पहुँचती है, 'सभ्य नागरिक समाज' उसे न तो देख पाता है और न ही देखना चाहता है। सुनना भी नहीं चाहता। नहीं तो ऐसा क्यों है कि उत्तर प्रदेश में इतना बड़ा बदलाव हो रहा था लेकिन धुरंधर से धुरंधर विश्लेषक, चुनाव सर्वेक्षक, मीडिया कर्मी जमीन पर घूमते हुए जमीन के बदलाव को नहीं महसूस कर पा रहे थे। कुछ थोड़े से लोग जो इस बदलाव की साफ उम्मीद जता रहे थे, उन्हें ही शक के दायरे में रख दिया जा रहा था। उन पर किसी न किसी तरह की चिप्पी चस्पा कर दी गयी और खानों में डाल दिया गया। याद करें, बिहार में सन् 1995 में लालू प्रसाद यादव के साथ ठीक यही हुआ था। दलित-शोषित-वंचित वर्ग, लालू के रूप में ऐसी सरकार देख रहा था, जो उनकी होगी। लेकिन सारे सर्वेक्षण, चंद पत्रकारों को छोड़, सभी अखबार, लालू को खत्म मान रहे थे। उन्हें यह बदलाव नहीं दिख रहा था। ... और लालू लगातार कह रहे थे, बैलेट बॉक्स से जिन्न निकलेगा। ... और जिन्न ही निकला। लालू पहले से ज्यादा समर्थन के

क्या ये खजुराहो को उड़ायेंगे

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दुआ कीजिये, वो व क्‍त कभी न आये बड़ी मुश्किल हो ग यी है। जिसे देखिये वही खजुराहो, अजंता एलोरा, कोना र्क या फिर काम सूत्र का हवाला दिये जा रहा है। हुसैन का मामला हो या फिर बडौदा के एमएस यू निवर्सिटी के कला विद्यार्थी चन्‍द्रमोहन की गिरफ्तारी का ... तर्क देने वाले जब देखो, यह बात उठा दे रहे हैं। यह तो हिन्‍दुत्‍ववादियों (हिन्‍दू मजहब मानने वाले नहीं) के गले की फांस बन गया है। भई, उस वक्‍त तो ये शक्तिमान थे नहीं, तो कलाकारों के मन में जो आया, बना डाला। जिंदगी के जो खूबसूरत तजर्बे थे, उनकी अभिव्‍यक्ति अपने कला माध्‍यमों के ज़रिये कर डाली। उनकी नीयत क्‍या थी, वो तो वही जाने लेकिन ये पंगेबाज उस वक्‍त रहते तो यकीन जानिये न तो खजुराहो के कलाकार बचते और न ही वात्स्यायन साहब। मेरी एक दोस्‍त संस्‍कृत की विदुषी है। विश्‍वविद्यालय की टॉपर है। संस्‍कृत में ही शोध किया है। उसने एक बार बताया था कि संस्‍कृत की एक नहीं कई रचानाएँ हैं, जिनमें आपको ऐसी सामग्री मिल जायेगी, जिन्‍हें अतिवादी 'अश्‍लील और भावनाओं को आहत करने वाला' मानेंगे। और तो और... कालिदास और शेक्‍सपीयर की तुलना कर अघाने वाले ल

किसने बनाया इन्हें ठेकेदार

कलाकार चन्द्रमोहन आखिर रिहा हो गये। आज बड़ौदा में देश और विदेश के माहरीन कलाकार, इस देश की विभिन्नता का सम्मान करने और बचाये रखने की वकालत करने वाले जुटे। वे एमएस यूनिवर्सिटी बड़ौदा के फाइन आर्ट के अंतिम वर्ष के छात्र चन्‍द्रमोहन को इस बिना पार गिरफ्तार कर लिया गया कि उन्होंने इम्तहान के लिए जो कलाकृति बनायी, वो धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली हैं। यही नहीं इन विद्यार्थियों का साथ देने वाले डीन शिवजी पणिक्‍कर को बर्खास्‍त कर दिया गया और वह जान बचाये फिर रहे हैं। जिस शख्‍स ने हंगामा करने वालों की अगुवाई की, उस शख्‍स पर सन् 2006 में बड़ौदा में हुए दंगे में भी शामिल होने का आरोप है। इस घटना के बाद कला विभाग के विद्यार्थी लगातार प्रदर्शन कर रहे थे। आज पूरे देश के कलाकार वहां पहुँचे तो उन्हें एबीवीपी और विहिप के कार्यकर्ताओं के हंगामे का सामना करना पड़ा। एक हजार से ज्‍यादा माहरीन कलाकारों को पुलिस ने प्रदर्शन नहीं करने दिया। यही नहीं पुलिस ने इनके विरोध में जुटे करीब पचास अतिवादियों का हंगामा चुपचाप देखती रही। इसने साफ साबित कर दिया है कि किस तरह राज्‍य का तंत्र उन लोगों के साथ हैं, जो हंग

अल्पसंख्यक नहीं रहा मुसलमान!

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क्या न्यायपालिका पर टिप्पणी करना अवमानना होता है? जज साहबान, चाहे जो फैसला दें लेकिन उन पर किसी तरह की टिप्पणी क्यों नहीं की जा सकती? हाल में कई फ़ैसले आये जिन पर राय जाहिर करने के दौरान ऐसे सवालों से दो चार होना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर फैसला दिया, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने के बारे में निर्देश दिये तो एक मजिस्ट्रेट ने रिचर्ड गेर के खिलाफ निर्णय दे दिया। इसी के मुद्देनज़र इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर कानून के कुछ माहरीन लोगों की राय के आधार पर यह टिप्पणी लिखी गयी है। ऊहापोह के कारण यह लेख सिर्फ अँग्रेज़ी में पोस्ट हो सका। मोहल्ला में सत्येन्द्र जी की न्यायपालिका पर राय पढ़ने के बाद यह ख्याल आया, क्यों न इस टिप्पणी को हिन्दी में यहाँ जगह दी जाये। चूंकि ऐसे फैसलों के दूरगामी नतीजे होंगे, ऐसे फ़ैसलों को समझने की कोशिश जरूरी है। खासकर वैसी हालत में जब अदालत में पेश मामले का यह मुद्दा नहीं था। इस पर बहस चल रही है, खासकर उत्तर प्रदेश में। मुसलमानों के अल्पसंख्यक न रहने वाला इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला दो हिस्सों में आया है। नीचे दी गयी टिप्पणी पहले फ

1857 के शहीदों को सलाम

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1857 के विद्रोह के 150 साल हो गये हैं। यह विद्रोह साझी शहादत, साझी विरासत की अनूठी मिसाल है। ऊपर के चित्र उन हिन्‍दुस्तानी शहीदों की याद दिलाता है, जिन्होंने इस माटी की हिफाजत के लिए अपनी कुर्बानी दे दी। दोनों फोटो लखनऊ के सिकंदर बाग़ में हुई नवम्बर 1857 के संघर्ष के बाद की है। फोटोग्राफर फेलिको बियातो सन् 1858 के मार्च-अप्रैल के दौरान लखनऊ में थे और नीचे वाली तस्वीर उन्हीं की ली हुई है। सिकंदरबाग के इस संघर्ष में मारे गये ब्रितानी सिपाहियों के शव तो दफनाये दिये गये लेकिन दो हजार हिन्‍दुस्तानी सिपाहियों के शव यूं ही छोड् दिये गये। फेलिको की तस्वीर में मानव अवशेष साफ देखे जा सकते हैं। सिकंदरबाग में ही एक अनाम वीरांगना की बहादुरी की कहानी मिलती है। बाद में जिसे कुछ लोगों ने ऊदा देवी का नाम दिया। दस मई 1857 ही वह दिन जब मेरठ से इस विद्रोह की शुरुआत मानी जाती है। इस विद्रोह के कई मशहूर नाम को तो हम जानते हैं लेकिन हजारों ऐसे हैं जो अनाम रह गये। उनकी शहादत को सलाम।

हुसैन की कीमत: पेंटिंग की नहीं, जान की

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पिछले दिनों मोहल्ला में अपूर्वानन्द की एक टिप्पणी आयी थी कि हुसैन कहां हैं। आज एक और जगह हुसैन बनाम रश्दी और तसलीमा नसरीन पर चर्चा की गयी है। हुसैन यानी एमएफ हुसैन। 91 साल के बुजुर्ग चित्रकार। वो इस देश में नहीं हैं क्योंकि उनकी गिरफ्तारी का वारंट है। इल्जाम है, उन्होंने हिन्दू-दे‍वी देवताओं की बेइज्जती की। हरिद्वार की एक अदालत के निर्देश के बाद मुम्बई में उनके घर पर कुर्की की नोटिस चस्पा कर दी गयी है। लेकिन थोड़ा पीछे जायें तो कुछ और सच्चाई भी पता चलेगी। हुसैन को मारोगे तो यह मिलेगा...वो मिलेगा नासिरूद्दीन हैदर खॉं (एक) याद दिलाना जरूरी है कि जब मुसलिम कट्टरपंथियों ने विवादास्पद लेखक सलमान रश्दी के खिलाफ मौत का फतवा दिया था, तो बार-बार यह कहा जा रहा था कि मुसलमानों में जरा भी सहिष्णुता नहीं है। इस्लाम कट्टरता सिखाता है। हिन्दू ऐसे नहीं होते। हिन्दू ऐसा नहीं करते। सहिष्णुता तो उनके खून में है। यह आम हिन्दू जन नहीं बल्कि उनके प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले हिन्दुत्व (हिन्दू मजहब और हिन्दुत्व में हम फर्क करते हैं) के अलमबरदार कह रहे थे। लेकिन दुनिया भर में सहिष्णुता का दावा करने वाले

पादरी पर हमला: बकलम एक सहाफी

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उनतीस अप्रैल की शाम टीवी खोलते ही एक आदमी की चिल्‍लाते हुए तस्‍वीर दिखाई दी। वह चिल्‍ला रहा था और मुँह छिपाये कुछ वीर उसे पीट रहे थे। कमरे में रखे सामान तोड़ रहे थे। वह आदमी जीसस... जीसस चिल्‍लाता हुआ भाग रहा था। कोई बचाने वाला नहीं था। अगर टीवी वाले न पहुँचते तो शायद जिस घृणा के साथ उसे पीटा जा रहा था, उस खौफनाक मंजर का अंदाजा लगाना मुश्किल था। देखने, सुनने और पढ़ने में जो फर्क है, वह फर्क ऐसी घटनाओं में और साफ हो जाता है। आज तक के संवाददाता शरत कुमार वहां पहुँचे तो जो देखा, उसे तस्‍वीरों के ज़रिये तो दिखाया ही, उस खौफ नाक मंजर को क़लमबंद भी किया। दोस्‍तों के ज़रिये मिली रिपोर्ट को हम ढाई आखर पर दे रहे हैं। आंखन देखी शरत कुमार मेरे कानों में अभी तक बेबस पादरी वाल्टर मसीह की वेदना गूँज रही है । बर्बरता का ये आलम मेरे लिए नया था । मैंने पहले कभी किसी को एक अकेले और निहत्थे आदमी को इतनी बेरहमी से पीटते नहीं देखा था । आज तक पर पादरी की हिन्दू संगठनों द्वारा पिटाई की तस्वीरें देखने के बाद पूरा देश स्तब्ध है । लेकिन हिन्दू संगठनों , इनका समर्थन करने वाले अख़बार और राज्य की