संदेश

अगस्त, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुल्क और मुसलमानों से जुड़े चंद सवाल

कई दोस्त इसे पढ़ने के बाद मुझे कई खांचों में फिट करने की कोशिश करेंगे। मैं यह ख़तरा मोल लेते हुए, यह सब लिख रहा हूँ। हर बड़े विस्फोट या आतंकी कार्रवाई के बाद ज्यादातर एक ही तरह की बात रक्षा विशेषज्ञों, मीडिया चैनलों के जरिये सुनने को मिलती है। और हममें से ज्यादातर उसी को आखिरी सच मान कर जीते रहते हैं। पर मेरे ज़हन में इस 'सच' को अंतिम मानने से पहले कई सवाल हैं। उन सवालों को आपसे बांट रहा हूँ- ऐसा क्यूँ होता है कि हर बार आतंकी कार्रवाई की पुख्ता सूचना होने के बावजूद, सुरक्षा एजेंसियां उसे रोक नहीं पातीं यह कैसे होता है कि विस्फोट होने के चंद मिनट बाद ही सुरक्षा एजेंसियों को संगठनों के नाम, पते, अंजाम देने वालों का पूरा बायोडाटा... उनके रिश्ते पता चल जाते हैं ऐसा क्यूँ होता है कि इस देश में होने वाली सभी आतंकी कार्रवाई को तुरंत इस्लामिक आतंकवाद का नाम दे दिया जाता है। ... और किसी धर्म के साथ तो ऐसा नहीं होता... पर ऐसा क्यूँ होता है कि घटना के चंद मिनटों बाद ही सभी अहम जानकारी पा लेने वाले महीनों बीत जाने के बाद भी न तो मालेगांव, न समझौता एक्सप्रेस और न ही मुम्बई ट्रेन

द ग्रेट डिक्टेक्टर और चार्ली चैप्लिन

चार्ली चैप्लिन की मशहूर फिल्म है 'द ग्रेट डिक्टेक्टर'। पूरी फिल्म की आत्मा इसके आखिरी अंश में बसती है। चार्ली द ग्रेट डिक्टेटर के जरिये हिटलर के सम्मोहनकारी छवि के पीछे छि‍पी क्रूरता को दुनिया के सामने लाना चाहते थे। उन्होंने फिल्म में दो किरदार- तानाशाह हिटलर और एक आम यहूदी की भूमिका निभायी है। यह फिल्म नफ़रत की राजनीति, तानाशाही प्रवृत्तियों और जंग के पैरोकारों के खिलाफ एक मज़बूत आवाज़ है। इस दृश्य में दिया गया भाषण आम जन की आवाज़ है। ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्तियां, हिटलर जैसी सोच वाले लोग आज मौजूद नहीं हैं। इसीलिए यह फिल्म और उसका यह भाषण बार-बार देखना, सुनना और पढ़ना जरूरी है ताकि हम इंसानियत को खत्म करने वाली ताकतों को पहचान सकें। अभी भारत ज्ञान विज्ञान समिति (बीजीवीएस) से जुड़े हमारे दोस्त विनोद कुमार जन वाचन अभियान के लिए यानी आम लोगों के लिए विभिन्न स्रोतों से चार्ली चैप्लिन की जीवनी संकलित कर रहे हैं। बातचीत के दौरान इस भाषण का जिक्र आया तो हमने ढाई आखर के लिए इसका हिन्दी रूपान्तर उनसे साभार ले‍ लिया। आप सिर्फ सुनें और देखें नहीं बल्कि पढ़ें भी 'द ग्रेट डिक्टेटर

हैदराबाद विस्फोट की ताज़ा खबरें देखें

चित्र
एक और आतंकी कार्रवाई। एक और विस्फोट। एक और भयावह रात। हैदराबाद में शनिवार की शाम दो विस्फोट हुए। विस्फोट वाली दोनों जगह भीड़ भाड़ वाली थी। इसमें रात 11.30 बजे तक करीब 40 लोगों के मारे जाने की खबर है। बड़ी तादाद में लोग घायल हैं। जान के नुकसान की भरपाई नामुमकिन है। बेगुनाहों की जान लेने वाली इस घटना की जितने कड़े अल्फाज़ में निंदा की जाये, कम है। खबर के मुताबिक इसमें नासिक से हैदराबाद भ्रमण पर आये इंजीनियरिंग के चार छात्र भी मारे गये हैं। कुछ महीने पहले ही एक बड़ा विस्फोट हैदराबाद के मक्का मस्जिद में हो चुका है। अभी उस घटना से लोग उबरे भी नहीं थे कि एक और जघन्य हादसा... प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री ने इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा की है। घटना पर राजनीति भी शुरू हो चुकी है। घटना के बाद से हर पल बड़ी तेज़ी से खबरें बदल रही हैं। अगर आप टीवी स्क्रीन के सामने नहीं हैं, तो इंटरनेट पर ही इन जगहों पर जाकर ताज़ा खबर देख सकते हैं। इनमें सीएनएन- आईबीएन लाइव वेबकास्ट कर रहा है। आपको यहां वहीं खबर देखने को मिलेगी जो उस वक्त टीवी स्क्रीन पर चल रही होगी। चंद सेकंड का हेर फेर है।

चक दे मुस्लिम इंडिया

चित्र
रवी श कुमार किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है। खबरिया चैनलों और पत्रकारों की भीड़ में जहां उनका खास मुकाम है वहीं हिन्दी ब्लॉग की दुनिया में वो अलग पहचान रखते हैं। ... उन्हें खास बनाती है, उनकी दृष्टि। समाज, समाज में रह रहे लोगों और वहां हो रही घटनाओं को देखने की ताकत। फिर चाहे वो फिल्म ही क्यों न हो। फिल्म का सम ाजशास्त्रीय विश्लेषण कम होता है। बुधवार के 'हिन्दुस्तान' में रवीश की 'चक दे इण्डिया...' के बहाने से लिखी एक टिप्पणी छपी है। फिल्म के बहाने समाज की पड़ताल। रवीश की इजाज़त और 'हिन्दुस्तान ' से आभार के साथ यह टिप्पणी ढाई आखर के पाठकों के लिए पेश है। उम्मीद है, आपको पसंद आयेगी। नाम- सेंटर फार्वर्ड का बेहतरीन खिलाड़ी कबीर खान। पद- कोच, भारतीय महिला हॉकी टीम। मजहब- मुसलमान। चक दे इंडिया के मुख्य किरदार की तीन पहचान सामने आती हैं। शुरुआत में ही फिल्म एक सवाल को उठा लेती है। पाकिस्तान से हार का कारण कबीर खान का मुसलमान होना। उसके घर की दीवार पर लिख दिया जाता है- गद्दार। चक दे इंडिया की कहानी क्या है? हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ी की हार के पश्चाताप से निकलने की छट

हेब्रॉन, सिंघाड़ा और नगा चटनी...2

नगालैंड की हालत का जायज़ा लेकर लौटै पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के रिपोर्ट की पहली किस्त आपने पढ़ी। इस रिपोर्ट की दूसरी और आखिरी किस्‍त आपके सामने पेश है। नगालैंड में सिमटता नगा संसार (पिछली पोस्‍ट से जारी...) लेकिन क्या एनएससीएन का कोई वैकल्पिक विकास मॉडल है? हमने जानना चाहा...। नहीं। साफ शब्दों में एनएससीएन के एक पदाधिकारी कहते हैं, 'हमारी भारत से अलग होने की कोई मंशा नहीं है। हम सिर्फ ये चाहते हैं कि नगाबहुल क्षेत्रों को नगालैंड में शामिल कर नगालिम का गठन हो और उसकी सुरक्षा व्यवस्था की बागडोर नगाओं के हाथों में हो। नगा ही अपनी किस्मत का फैसला सबसे बेहतर तरीके से कर सकते हैं। भारतीय सेनाएं नहीं।' हम पन्नों में कुछ जवाब खोजने जाते हैं तो पता चलता है कि नगाओं के जीने की पारंपरिक शैली कमोबेश बस्तर के आदिवासियों जैसी ही रही है। यहां भी बस्तर के इलाकों जैसे 'मोरंग' हुआ करते थे और हरेक गांव अपने आप में एक स्वायत्त गणराज्य था। सबकी अपनी न्याय व्यवस्था थी और तमाम आदिवासी समुदायों का प्रतिनिधित्व नगा होहो नामक एक संस्था करती थी जिसे नगा असेम्बली के नाम से भी जाना जाता है।

देखें, नगालैंड की 'निर्वासित सरकार'

नगालैंड में एक अलग दुनिया है। दुनिया है नगालैंड की कथित 'निर्वासित सरकार' की। इस सरकार को नाम दिया गया है- गवर्नमेंट ऑफ द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ नगालिम (जीपीआरएन)। इसका नेतृत्व एनएससीएन (आईएम) ग्रुप करता है। पिछले दिनों अभिषेक श्रीवास्तव वहां गये थे। उन्होंने जो देखा सो लिखा ही। चंद तस्वीरें भी खींच कर लाये। आप भी देखें तस्वीरें। तीर के सहारे आगे बढ़ते जायें। इसके बारे में विस्तार से पढ़ें- हेब्रॉन, सिंघाड़ा और नगा चटनी... Technorati Tags: नगालैंड , मेहमान का कोना , एनएससीएन(आईएम) , जीपीआरएन , Nagaland government in Exile , NSCN (IM) , GPRN , Abhishek Shrivastav

हेब्रॉन, सिंघाड़ा और नगा चटनी...

हम अपने देश के लोगों की कितनी फिक्र करते हैं...यह बात उस वक्त उजागर हो जाती है जब पूर्वोत्तर के राज्यों में रहने वाले लोगों और उनके संघर्ष का मसला आता है... हालांकि जब देश की अखंडता की बात आती है तो हमें एक छोर से दूसरे छोर का हिन्दुस्तान याद आता है ... चौहद्दी और विशालता याद आती है... पर वहां के लोग नहीं ... हम बात करने जा रहे हैं पूर्वोत्तर के एक राज्य की... नगालैंड ... जी हां, हिन्दुस्तान का नगालैंड ... कोई भी देश या राज्य वहां रहने वाले लोगों से बनता हैं ... क्या हम नगालैंड के लोगों की जद्दोजहद के बारे में जानते हैं ... उनकी जिंदगी के बारे में जानते हैं... अभिषेक श्रीवास्तव नौजवान पत्रकार हैं... अभी हाल ही में नगालैंड की यात्रा से लौटे हैं और जो देखा है वो बयान कर रहे हैं- नगालैंड में सिमटता नगा संसार संगीता कलर लैब...सद्गुरु जलपान गृह...चौरसिया पान शॉप...ये नाम आपको किस भौगोलिकता का अहसास कराते हैं? ज़ाहिर तौर पर पूर्वांचल के किसी शहर की सड़कों पर सजी दुकानों की गंध इनसे आती है। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इन दुकानों तक पहुंचने के लिए आपको इनर लाइन परमिट की ज़रूरत पड़ती

असहमति से संवाद वाया घुघूती बासूती जी

कुछ दिनों पहले हुए एक विवाद के दौरान मैंने कहा था कि ब्लागिंग की सबसे बड़ी चीज़, जो मुझे खास लगती है, वह है उसका लोकतांत्रिक होना। यानी हम एक पोस्ट करते हैं और कई लोग उस पर अपनी राय देते हैं। कुछ सिर्फ तारीफ होती है तो कुछ वास्तविक आलोचनाएं। तारीफ से हर कोई डील कर लेता है लेकिन आलोचनाओं से आप कैसे डील करते हैं, यह सबसे अहम है। सहमति के साथ होना बड़ा आसान है, पर असहमति से सहमत होना बड़ा मुश्किल। असहमतियों से संवाद कायम करना ही लोकतंत्र की रूह है। दूसरों की असहमति को हम अपने संवाद में कितना स्पेस देते हैं, यह इस बात का पैमाना है कि हम ख़ुद कितने लोकतांत्रिक हैं, कितने उदार, कितने सहिष्णु। पिछले दिनों तस्लीमा पर मैंने एक पोस्ट की जिस पर घुघूती बासुती जी के कुछ जेन्यून सवाल थे। पहले मैंने उस सवाल को मटियाना चाहा। तब तक घुघूती जी की एक और टिप्पणी आ गयी। फिर अविनाश की टिप्पणी। तब मुझे लगा कि इनकी बात का जवाब न देना, गलत होगा। मेरे लिए उस सवाल का जवाब देना आसान नहीं था। फिर भी मैंने कोशिश की। ... और घुघूती जी का बड़प्पन देखिये, उन्होंने अपनी असहमति को एक संवाद में बदल दिया। यानी

दो बदन प्‍यार की आग में जल गये

अभय जी की टिप्‍पणी के बाद मुझे लगा कि कहीं मेरी याददाश्‍त तो धोखा नहीं खा रही है। आखिरकार मैं कल इस नज्‍़म को तलाशने में कामयाब रहा। यह नज्‍़म क्रांतिकारी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन की है। मख़दूम ने जहां क्रांति के गीत लिखे वहीं उन्‍होंने मोहब्‍बत के गीत भी उसी जज्‍़बे से गाया। मख़दूम उन इंकलाबी शायरों में हैं, जो बार बार याद दिलाते हैं कि एक इंकलाबी शख्सियत के लिए एक इंसानी जज्‍़बे से भरपूर दिल की भी ज़रूरत होती है। इसके बिना क्रांतिकारी की कल्‍पना अधूरी है। मख़दूम आज़ादी की लड़ाई के सिपाही रहे और बाद में कम्‍युनिस्‍टों की कतार में शामिल होकर तेलंगाना विद्रोह की शमा भी जलाई। उनके चंद मशहूर अशआर हैं- न माथे पर शिकन होती, न जब तेवर बदलते थे खुदा भी मुस्‍कुरा देता था जब हम प्यार करते थे यही खेतों में पानी के किनारे याद है अब भी। -------------------- हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो- चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो। -------------------- इक नयी दुनिया, नया आदम बनाया जायेगा। -------------------- सुर्ख़ परचम और ऊंचा हो, बग़ावत जि़दाबाद। ढाई आखर के पाठकों के लिए पेश है उनकी मशहूर नज्‍़म।

गुरुदेव ने क्या कहा जन गण मन के बारे

चित्र
खुद गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर 'जन गण मन' के बारे में क्या कहते थे। यह जानना निहायत जरूरी है। एक लम्बे समय से 'राष्ट्रवादी' दोस्त वंदे मातरम के बरअक्स जन गण मन को रखकर टैगोर की रचना को चारण साबित करते रहे हैं। पिछले दो दिनों से ब्लॉग की दुनिया में भी यह बहस हो रही है। न सिर्फ हिन्दी में बल्कि अंग्रेजी ब्लॉगर के बीच भी यह चर्चा का विषय बना हुआ है। अभय जी ने निर्मल आनन्द पर जन गण मन के बारे में हजारी प्रसाद द्विवेदी का एक लेख कल पोस्ट किया। इसमें द्विवेदी जी ने साफ किया है कि‍ यह गीत क्यों और कैसे लिखा गया। इसके बावजूद हमारे कुछ दोस्तों को यह बात पच नहीं रही। इंटरनेट पर तलाश करते हुए यूनिवर्सिटी ऑफ डैटोन के मोनीष आर. चटर्जी का एक लेख मिला, 'टैगोर एंड जन गण मन' । यह लेख अंग्रेजी में दो जगहों पर मौजूद है। इस लेख के दो अंश काफी अहम हैं, जो जन गण मन के बारे में थोड़ी रोशनी डालते हैं। खुद टैगोर क्या सोचते थे, वो इस लेख में है। अंग्रेजी में लिखे इस लेख के इन दो अंशों को ढाई आखर के पाठकों के लिए हिन्दी में करने की कोशिश की है। गलती के लिए पहले से माफी। लेख के अंश- का

ये जंग है जंगे आज़ादी

आज़ादी मिली तो फैज़ ने बहुतों के दिल के दर्द को आवाज़ दी 'ये वो सहर तो नहीं'। यानी हम देश के बंटवारे के लिए तो आज़ादी नहीं चाह रहे थे। कल तक जिनकी जद्दोजहद साझा थी, उसे हुक्‍मरानों ने बांट दिया था। दिलों पर जख्म लिये लोगों ने नया सफ़र शुरू किया। नये उम्मीदों से भरपूर सफ़र। स्वराज का सफ़र। पर कुछ ही सालों में लोगों को लगा कि आमजन का स्वराज तो अब भी नहीं आया है। फिर याद आने लगी 1931 में लिखी भगत सिंह की  बात- 'भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को- भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकार जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के  पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयां, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने के लिए तैयार हैं।' क्या आपको नहीं लगता कि भगत सिंह भविष्यवक्ता के रूप में अपनी बात कह रहे थें। उनकी बात आज भी, मेरी नज़र में सौ फीसदी सटीक है। ... जब यह बात महसूस हुई तो फिर आज़ाद मुल्क में ही जद्दोजहद की शुरुआत हुई। इसका इतिहास काफी लम्बा

ये वो सहर तो नहीं

आज़ादी के साठ साल। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के साठ साल। यह कोई मामूली कामयाबी नहीं है। इसका सेहरा इस देश के अभिजन यानी एलीट को नहीं आमजन को जाता है। जो आज भी यक़ीन करता है कि यह देश उसका है और उसके लिए कुर्बानी दे रहा है। आज़ादी की जद्दोजहद, बिना ख्वाब के मुमकिन नहीं रही होगी। जो लड़ रहे थे, जो जान की बाज़ी लगा रहे थे और एक नये हिन्दुस्तान का ख्वाब देख रहे थे। ... पर जब आज़ादी आयी तो ख़ून ख़राबे और हिंसा के साथ। देश के टुकड़े करने के साथ। तब भी इस देश के अभिजन को शायद ही फर्क पड़ा हो, दर बदर और खूंरेंजी का शिकार आमजन ही हुआ। कई लोगों के लिए यह ख्वाब टूटने जैसा था। पर वे हिम्मत नहीं हारे। कुछ ऐसे ही हालात का बयान फैज़ अहमद फैज़ की नज्म करती है-सुबहे आज़ादी। सुबहे आज़ादी ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शब गज़ीदा सहर वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं ये वो सहर तो नहीं कि जिसकी आरज़ू लेकर चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं फ़लक के दश्त में तारों की आखिरी मंज़िल कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों में चले जो यार तो

तस्लीमा को भारत की नागरिकता दी जाये

चित्र
तस्लीमा नसरीन पर हैदराबाद में हुए हमले के विरोध में अब लेखक-कलाकार और संस्कृति कर्मी सड़क पर आ गये हैं। लखनऊ में कल सोमवार को शहर के बुद्धिजीवियों, साहित्‍यकारों, संस्कृतिकर्मियों और स्‍वयंसेवी संगठनों ने इस हमले के खिलाफ हजरत गंज चौराहे पर गांधी प्रतिमा के सामने धरना देकर अपना विरोध जताया। (ऊपर का फोटो इसी धरने का है।) इस विरोध प्रदर्शन में साझी दुनिया, भारतीय जननाट्य संघ, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, नीपा रंगमंडली, आली जैसे संगठन और रूपरेखा वर्मा, राकेश, वीएन राय, शकील सिद्दीकी, दीवाकर, गिरीशचंद्र श्रीवास्‍तव, अजय सिंह, मृदुला भारद्वाज, प्रदीप कपूर, रिशा सईद, मनोज पाण्डेय, केबी सिंह, जूली समेत बड़ी संख्या में शहर के नागरिक शामिल थे। इन लोगों ने इस मौके पर हमले की भर्त्सना करते हुए एक प्रस्ताव भी पारित किया जिसके कुछ हिस्से आप भी पढ़ें- '... हमारा मानना है कि सहमति और असहमति का अधिकार लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है। आस्था और विश्वास के नाम पर हर मज़हब की कट्टरता, रूढि़वादिता, पुनरुत्थानवादी और हिंसा से दूसरे मज़हबों के कट्टरपंथ को ही बढ़ावा मिलता है। हमारा

कौन कह रहा है कि विरोध नहीं हुआ

तस्लीमा नसरीन पर हमले के बाद एक सुर चल रहा है कि कहां गये सेक्यूलरिस्ट... क्या वे सिर्फ हिन्दुत्वादियों के हमले का विरोध करेंगे। बड़े- बड़े नाम इस सुर में सुर मिला रहे हैं। इन का कहना है कि मुस्लिम कट्टरपंथियों के बारे में सेक्‍यूलर लोग और समूह नहीं बोलते। उन सबसे विनम्र निवेदन है कि कृपया हमले की शाम के बाद से अब तक के अख़बार, इंटरनेट साइट देखें... पता करें... फिर बात करें... तो अच्छा रहेगा। हां, बड़े मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक चैनल को तब तक ख़बर नज़र नहीं आती है, जब तक कि उसमें कट्टरपंथियों के चेहरे और ज़हरीली ज़बान न हो। इसीलिए ऐसे विरोध के स्वर उन्हें कम ही सुनाई देते हैं। मैं हमले के विरोध के चंद उदाहरण दे रहा हूं- गीतकार जावेद अख्तर का कहना है कि यह शर्मनाक घटना है। कट्टरपंथी दिनों दिन आक्रामक होते जा रहे हैं, और उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हो रही है। प्रख्यात अभिनेत्री शबाना आज़मी ने हमले को भयानक घटना बताया है। उन्‍होंने कहा कि मैं इसकी कड़े से कड़े शब्‍दों में भर्त्सना करती हूं। इस तरह के व्यक्तिगत हमले नाकाबिले बर्दाश्त हैं। प्रख्‍यात नारीवादी लेखिका व प्रकाशक उर्वशी बुटालिया, अल

ये डरे हुए लोग हैं

इंदू जी ने तस्लीमा के इंटरव्यू और हमले के बारे में डाले गये पोस्ट पर लम्बी टिप्पणी की है। हालांकि जब मैं उनके ब्लॉग बतकहियां-इंदू पर गया तो मुझे उनकी कोई पोस्ट नहीं दिखी। मुझे लगा कि क्‍यों न इंदू जी कि इस टिप्पणी को उनके पहले पोस्ट का दर्ज़ा मिले। इंदू जी ने क्या कहा, आप भी पढ़ें- तसलीमा पर हमला कोई अचरज की बात नहीं है.... यही तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की खासियत है। अगर हमें ये लगता है कि देश मे कोई राजनीतिक पार्टी इसके खिलाफ बोलेगी तो हम मुगालते में जी रहें हैं, क्योंकि वोट्स पर आधारित राजनीति में किसी विचार धर्म या व्यक्ति की महत्ता नहीं है, वोटों के लिए ये लोग कुछ भी कर सकते हैं.....लेकिन तथाकथित प्रगतिशील ताकतें, महिला संगठन, बुद्धिजीवी क्यों नहीं खुलकर बोलते इस हमले के खिलाफ, विशेष रूप से औरतें... तस्लीमा, हो सकता है एक अच्छी लेखिका न हो, लिटरेरी भी न हो, ज्यादा बोल्ड हो, तो भी उन्होने धर्म की मूलभूत बुराइयों पर चोट करने का साहस किया, यह साहस की ही बात कही जायेगी । रुश्दी और तस्लीमा के लेखन से हमें असहमति हो सकती है, लेकिन अभिव्यक्ति का जवाब हमले से देना तो असभ्यता ही नहीं,

तस्लीमा नसरीन का इंटरव्यू

हैदराबाद में बांग्‍लादेशी नारीवादी साहित्यकार तस्लीमा नसरीन पर हुए हमले से वे सारे लोग आक्रोशित और शर्मिंदा हैं जिन्हें इस देश की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति, अभिव्यक्ति की आज़ादी और लोकतंत्र पर नाज़ है। तस्लीमा पर हमले ने इन सबको झकझोर कर रख दिया है। ख़ुद तस्लीमा भी इसे अब तक का सबसे घातक हमला मानती हैं। हिन्दुस्तान के रविवार के अंक में वरिष्ठ पत्रकार कृपाशंकर चौबे द्वारा लिया गया तस्लीमा का इंटरव्यू छपा है। ढाई आखर के पाठकों के लिए यह साक्षात्कार हम हिन्दुस्तान से साभार दे रहे हैं। तस्लीमा पर हमले से जुड़ी मेरी त्वरित टिप्पणी मोहल्ला में अविनाश ने पोस्ट की थी, संदर्भ के लिए उस टिप्पणी को भी इस साक्षात्कार के अंत में दे रहा हूं। आशंका है किसी दिन यूं ही मार डाली जाऊंगी कृपाशंकर चौबे क्या हैदराबाद में हुआ हमला पिछले हमलों से भिन्न और खतरनाक था? सही लिखने के लिए मुझ पर पहले भी हमले हुए हैं। बांग्लादेश में जानलेवा हमला हुआ था। मैं 13 वर्षों से निर्वासन में हूं। चूंकि बांग्लादेश का दरवाजा मेरे लिए बंद है, इसलिए बार-बार मैंने कहा है कि मैं भारत में रहना चाहती हूं। निर्वासन में रहते हुए भी

मदरसे पर हमला, इमाम की पिटाई

पहले बसपा और अब सपा। श्रावस्ती में एक अंतधार्मिक शादी के बाद हुए हमले और यौन हिंसा में बसपा नेताओं का नाम आया था तो सिद्धार्थ नगर में एक मदरसे पर हमले में सपा नेता का नाम आ रहा है। उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख पार्टियां अल्पसंख्यकों की कितनी हितैषी हैं, ये घटनाएं एक झलक भर हैं। सिद्घार्थ नगर के अटवा तहसील के मौजा हरिबंधन पुर में कल 7 अगस्त को बन रहे मदरसे तालीमुल कुरान की दीवार और अन्य  हिस्से को गांव के ही दूसरे फिरके के लोगों ने हमला कर तोड़ दिया। मदरसे के कर्ताधर्ता की पिटाई की। बताया जा रहा है कि हमलावरों का नेतृत्व समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्ष अजय उर्फ झिंकू कर रहा था। गांव की आबादी लगभग 700 है, जिसमें पाँच छह फीसदी अल्पसंख्यक हैं। यह मदरसा 20 साल पुराना है और छप्पर के मकान में चल रहा था। अभी तक किसी विवाद की बात सामने नहीं आयी है और इसकी जमीन भी रजिस्टर्ड है। अभी इसे लोगों के चंदे से पक्का बनाने की कोशिश हो रही थी। अहले सुबह हुए हमले में वहां काम कर रहे मजदूर औरत-मर्द की पिटाई हुई। मदरसे के कर्ताधर्ता 85 साल के मोहम्मद सलीम भी पिटाई के शिकार हुए। गांव में इस तामीर को लेकर पहले ही

अंतधार्मिक शादी और दो मौतें

श्रावस्ती के धन्नीडीह गांव में कुछ दिनों पहले एक अंतधार्मिक विवाह के बाद हंगामा, तोड़फोड़, यौन हिंसा का मामला अभी ठंडा भी नहीं पडा है कि एक और घटना सामने आयी है। यह मामला पड़ोसी जिले बहराइच के पयागपुर थाने का है। विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के मुताबिक यह मामला भी अंतधार्मिक विवाह का है। बीडीसी सदस्य आज़ाद अहमद अंसारी उर्फ गुड्डू श्रावस्ती जिले के भिनगा के गांव कन्ननपुर नौशरवा का रहने वाला था। वह पहले से शादीशुदा था। उसने तीन साल पहले बहराइच के इमलियागंज की रहने वाली और  लेखपाल कृपाराम मौर्य की बेटी नीतू से दूसरी शादी कर ली थी। यह शादी कोर्ट में कानून के मुताबिक हुई। रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक, बाद में नीतू ने धर्म परिवर्तन भी कर लिया और इन दोनों का निकाह भी हो गया। नीतू, शबाना हो गयी। कुछ रोज़ पहले नीतू की मां, इनके पास आयीं। उन्‍होंने अपने दामाद से कहा कि वे नीतू को ले जाना चाहती हैं और वो बाद में आकर उसे विदा कराकर ले जाये। शनिवार को आज़ाद अपने दोस्‍त और शिक्षा मित्र असलम के साथ नीतू की रुख्सती के लिए इमलियागंज गया। खबर के मुताबिक, गांव वालों ने इन दोनों पर हमला कर दिय